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बिहार चुनाव - तेरी हार... मेरी जीत
प्रतियोगी परीक्षा और चुनाव में किसी भी व्यक्ति और दल की सफलता सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वो कैसा प्रदर्शन करता है। इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके प्रतिद्वंदी किस तरह का प्रदर्शन करते है। इसी एक जुमले में भाजपा के बिहार अभियान और ऐलानिया विजय का कुल सार छिपा है। शायद बिहार के लोकतंत्र का यह पहला ऐसा चुनाव हो जिसमें जातियों की टूटती जकड़बंदी के बीच सभी राजनैतिक दल जातीय बंधन को और मजबूत बनाने में जुटे हों। हर राजनैतिक दल में विकास की लंबी चौड़ी फेहरिस्त और दावे हैं। राजनीति में स्थायी मित्र और स्थाई शत्रु नहीं होते। यह जुमला आम है। लेकिन यह भी एक कठोर सच्चाई है कि राजनीति के शत्रु कभी मित्र नहीं होते। बिहार चुनाव में लालू की प्रचार शैली न केवल इसकी चुगली करती है बल्कि इसे पुष्ट भी करती है। जो नीतीश कुमार सुशासन बाबू हैं। विकास पुरुष हैं। जंगलराज खात्मे के दावे औ संकल्प के साथ बिहार की राजनीति में अवतरित और स्थापित हुए। बिहार की जातीय जकड़बंदी को जिसने तोड़ा। उस नीतीश कुमार को मंडल रिपोर्ट लागू होने की रजत जयंती की पृष्ठभूमि पर सवार होकर वोट मांगना पड़ रहा है। आज वह खुद जंगलराज पार्ट-2 के दंश झेलने को अभिशप्त हैं। अगड़े बनाम पिछडों की लडाई जो लालू छेड़ना चाहते हैं उसे भाजपा किस तरह मैनेज करती है। यही उसके सियासी सफलता का एक बडा़ समीकरण होगा।
जिस मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनने से लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था। वह भी तब जब लालू को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने वाले मुलायम सिंह यादव थे। वह लालू के चुनाव के केंद्रीय पर्यवेक्षक थे। हांलांकि मुलायम उत्तर प्रदेश में मुख्य़मंत्री बन गये थे। उन्हें लालू को मुख्यमंत्री बनाकर यदुवंश का विस्तार करना था। वही लालू मुलायम के साथ गठबंधन में आये। गठबंधन टूटा। अब वही मुलायम सिंह नीतीश लालू गठबंधन के सामने चुनौती बनकर खडे होने की कोशिश में हैं। राजनीति में शत्रु कभी नहीं मित्र नहीं हो पाता। इसकी इनसे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है। बिहार के चुनाव में नीतीश के पास अगर लालू का माई (मुस्लिम-यादव) के तकरीबन 30 फीसदी वोट हैं तो भाजपा ने भी अगड़ों, दलित, महादलित, कोयरी, कुशवाहा और व्यापारियों की उपजातियों का जखीरा लालू नीतीश के आंकडों के पहाड को बराबर कर देता है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार इसी माई समीकरण के तीस फीसदी वोटों के चलते लालू के प्रति सम्मोहित हुए होंगे। क्योंकि उन्होंने अपनी सियासत ही लालू के खिलाफ ल़ड़ी और खड़ी की। बिहार की जातीय जकड़बंदी यह चुगली करती है कि पचपनिया जातियां चुनाव में निर्णायक भूमिका निर्वाह करेंगी। इसमें पिछडों की 55 छोटी छोटी जातियां आती हैं। हांलांकि इन जातियों के इलाकाई नेता हैं और हर राजनैतिक दल ने इन जातियों पर असर डालने के लिए हर तरह का जोड़-जुगत भिड़ा रखा है। यही वजह है कि पचपनिया किसको वोट करेगा यह मुगालता भाजपा नीत गठबंधन और महागठबंधन दोनों को है।
भाजपा के पास पूरे चुनाव के लिए सिर्फ दो हथियार है। एक जंगल राज, दूसरा नरेंद्र मोदी। तीसरा कोई ऐसा काम नहीं जिनसे भाजपा भुना सके। नीतीश के साथ वह सरकार में तो रही है पर नीतीश ने बड़ी चतुराई से उनके मंत्रियों का काम भी अपने खाते में दर्ज करा लिया है। नीतीश अपने काम का ईनाम मांग रहे है। वह जनता को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि लालू के साथ इतिहास की पुनरावृति नहीं होगी। पर उनका भरोसे को लालू के चटपटे-अटपटे बयानो को मीडिया में मिल रही सुर्खियों के चलते धरातल नहीं मिल पा रहा। दस साल तक शासन करने के बाद भी नीतीश ने सत्ता विरोधी रुझान से अपनी सरकार को बचाए रखने की बड़ी कामयाबी हासिल की है। नीतीश बहुत दिनों बाद बिहार के ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिनकी स्वीकार्यता सभी जातियों में कमोबेश तो है ही। लोग उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं लेकिन लालू के साथ नहीं। यही वजह है कि लोग नीतीश को लालू के कौरव सेना का कर्ण मानते हैं। कर्ण की प्रशंसा होती है पर उसकी वीरता के सूर्य को उसकी संगत का ग्रहण निगल जाता है। भाजपा के पास सभी जातियों में स्वीकार्य कोई नेता नहीं है। सुशील मोदी का चेहरा अगड़ों को रास नहीं आता। लालू और नीतीश के पिछडों की थाती में भी सुशील मोदी के लिए बहुत कुछ नहीं है। बिहार की सियासत जातीय जकड़बंदी में इस तरह जकड़ी है कि पार्टियों तो छोडिए उममीदवारों तक को पता है कि उसे किस जाति के और क्यों वोट मिलेंगे। ऐसे में जब जातियों का जमावड़ा आक्रामक रुप से समर्थक के तौर पर आगे आयेगा तभी जीत के लक्षण दिखेंगे।
भाजपा के समर्थन में दलित सक्रिय हैं। अगड़े आक्रामक। उन्हें लालू प्रसाद यादव से निपटने का इससे कोई मजबूत आधार नही मिल रहा है हालांकि भाजपा में रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी निर्लज्जता पूर्व परिवार वाद को बढावा दे रहे हैं पर बिहार के चुनाव में ऐसे सारे आदर्श मुद्दे नेपथ्य में चले गये हैं। तभी रैदास जयंती मन रही। सम्राट अशोक पर डाक टिकट जारी हो रहा है। मंडलराज पार्ट-2 की बात की जा रही है और उम्मीदवारों को चुनने में पार्टियां जाति का वंशबेल देख रही हैं।
यही वजह है कि बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों के दृश्य भिन्न- भिन्न हैं। भोजपुर क्षेत्र में अगड़ों की सक्रियता का तकाजा है कि ब्राह्मण ठाकुर एक साथ वोट करने का मन बना चुके हैं। अगडों की तादाद यहां की 22 विधानसभा सीटें जिताने के लिए काफी हैं। मगध की 60 सीटें पर इबारत दलित लिखते हैं। हांलांकि इस इलाके के नालंदा में एक को छोड़ सभी सीटों पर हवा लालू नीतीश की ओर है। तिरहुत क्षेत्र में दोनों गठबंधनों में बराबर की लडाई है पर आरजेडी की गलती का फायदा भाजपा को मिलता दिख रहा। मिथिला में नीतीश लालू का गठबंधन के उम्मीदवार बीस पड़ते दिख रह हैं। सीमांचल क्षेत्र में महागठबंधन मजबूत है लेकिन मिथिला में पप्पू यादव का प्रभाव और सीमांचल में ओवैसी की ताकत उन सभी सीटों पर महागठबंधन का खेल बिगाडने में कामयाब होगी जहां फैसले छोटे अंतर से होंगे। इस चुनाव में वोट कटवों की खास अहमियत होगी। महागठबंधन की साथी कांग्रेस ने भी 40 सीटें लेकर जीत की राह में कम कांटे नहीं बिछाये हैं। उसके पास दस जिताऊ उम्मीदवार भी नहीं है ऐसे में भाजपा को प्रतियोगिता और चुनाव की मानिंद मुनाफा हो रहा है।
भाजपा और संघ ने अपनी बिहार की रणनीति में हिंदुत्व की अलख जगाने के लिए पहली बार जातियों का सहारा लिया। इससे पहले जातियों की जगह धर्म हुआ करता था। यही वजह है कि हुकुम देव नारायण यादव, रामकृपाल यादव, भूपेंद्र यादव को माई समीकरण के बावजूद खास तरजीह दी गयी है। रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी को एक साथ एक मंच परा लाया गया है। उपेंद्र कुशवाहा को भी जातीय रसायन के तहत ही गठबंधन का हिस्सा बनाया गया है। 242 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा सिर्फ दो तिहाई सीटों पर ही महज इसलिए लड़ रही है जिससे दूसरे जाति के नेताओं और दलों को साथ रखा जा सके। नये जातीय नेता तैयार किए गये हैं। जातीय राजनीति में प्रचार का तंत्र या फिर लडाई को नीतीश बनाम नरेंद्र मोदी बनाने का कौशल भले ही भाजपा के पक्ष में माहौल बनाता दिख रहा हो पर भाजपा के नेताओं के बयान उसे उतना उर्जस्विक कर पा रहे हैं जितना की लालू अपने बयानों अपने माहौल को कर ले रहे हैं। नतीजे भले ही 8 नवंबर को आयेंगे पर युद्ध लालू जीत रहे है। उनके हाथ संजीवनी लग गयी है। नीतीश कौरव सेना के साथ खड़े कर्ण बन गये हैं।
जिस मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनने से लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था। वह भी तब जब लालू को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने वाले मुलायम सिंह यादव थे। वह लालू के चुनाव के केंद्रीय पर्यवेक्षक थे। हांलांकि मुलायम उत्तर प्रदेश में मुख्य़मंत्री बन गये थे। उन्हें लालू को मुख्यमंत्री बनाकर यदुवंश का विस्तार करना था। वही लालू मुलायम के साथ गठबंधन में आये। गठबंधन टूटा। अब वही मुलायम सिंह नीतीश लालू गठबंधन के सामने चुनौती बनकर खडे होने की कोशिश में हैं। राजनीति में शत्रु कभी नहीं मित्र नहीं हो पाता। इसकी इनसे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है। बिहार के चुनाव में नीतीश के पास अगर लालू का माई (मुस्लिम-यादव) के तकरीबन 30 फीसदी वोट हैं तो भाजपा ने भी अगड़ों, दलित, महादलित, कोयरी, कुशवाहा और व्यापारियों की उपजातियों का जखीरा लालू नीतीश के आंकडों के पहाड को बराबर कर देता है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार इसी माई समीकरण के तीस फीसदी वोटों के चलते लालू के प्रति सम्मोहित हुए होंगे। क्योंकि उन्होंने अपनी सियासत ही लालू के खिलाफ ल़ड़ी और खड़ी की। बिहार की जातीय जकड़बंदी यह चुगली करती है कि पचपनिया जातियां चुनाव में निर्णायक भूमिका निर्वाह करेंगी। इसमें पिछडों की 55 छोटी छोटी जातियां आती हैं। हांलांकि इन जातियों के इलाकाई नेता हैं और हर राजनैतिक दल ने इन जातियों पर असर डालने के लिए हर तरह का जोड़-जुगत भिड़ा रखा है। यही वजह है कि पचपनिया किसको वोट करेगा यह मुगालता भाजपा नीत गठबंधन और महागठबंधन दोनों को है।
भाजपा के पास पूरे चुनाव के लिए सिर्फ दो हथियार है। एक जंगल राज, दूसरा नरेंद्र मोदी। तीसरा कोई ऐसा काम नहीं जिनसे भाजपा भुना सके। नीतीश के साथ वह सरकार में तो रही है पर नीतीश ने बड़ी चतुराई से उनके मंत्रियों का काम भी अपने खाते में दर्ज करा लिया है। नीतीश अपने काम का ईनाम मांग रहे है। वह जनता को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि लालू के साथ इतिहास की पुनरावृति नहीं होगी। पर उनका भरोसे को लालू के चटपटे-अटपटे बयानो को मीडिया में मिल रही सुर्खियों के चलते धरातल नहीं मिल पा रहा। दस साल तक शासन करने के बाद भी नीतीश ने सत्ता विरोधी रुझान से अपनी सरकार को बचाए रखने की बड़ी कामयाबी हासिल की है। नीतीश बहुत दिनों बाद बिहार के ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिनकी स्वीकार्यता सभी जातियों में कमोबेश तो है ही। लोग उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं लेकिन लालू के साथ नहीं। यही वजह है कि लोग नीतीश को लालू के कौरव सेना का कर्ण मानते हैं। कर्ण की प्रशंसा होती है पर उसकी वीरता के सूर्य को उसकी संगत का ग्रहण निगल जाता है। भाजपा के पास सभी जातियों में स्वीकार्य कोई नेता नहीं है। सुशील मोदी का चेहरा अगड़ों को रास नहीं आता। लालू और नीतीश के पिछडों की थाती में भी सुशील मोदी के लिए बहुत कुछ नहीं है। बिहार की सियासत जातीय जकड़बंदी में इस तरह जकड़ी है कि पार्टियों तो छोडिए उममीदवारों तक को पता है कि उसे किस जाति के और क्यों वोट मिलेंगे। ऐसे में जब जातियों का जमावड़ा आक्रामक रुप से समर्थक के तौर पर आगे आयेगा तभी जीत के लक्षण दिखेंगे।
भाजपा के समर्थन में दलित सक्रिय हैं। अगड़े आक्रामक। उन्हें लालू प्रसाद यादव से निपटने का इससे कोई मजबूत आधार नही मिल रहा है हालांकि भाजपा में रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी निर्लज्जता पूर्व परिवार वाद को बढावा दे रहे हैं पर बिहार के चुनाव में ऐसे सारे आदर्श मुद्दे नेपथ्य में चले गये हैं। तभी रैदास जयंती मन रही। सम्राट अशोक पर डाक टिकट जारी हो रहा है। मंडलराज पार्ट-2 की बात की जा रही है और उम्मीदवारों को चुनने में पार्टियां जाति का वंशबेल देख रही हैं।
यही वजह है कि बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों के दृश्य भिन्न- भिन्न हैं। भोजपुर क्षेत्र में अगड़ों की सक्रियता का तकाजा है कि ब्राह्मण ठाकुर एक साथ वोट करने का मन बना चुके हैं। अगडों की तादाद यहां की 22 विधानसभा सीटें जिताने के लिए काफी हैं। मगध की 60 सीटें पर इबारत दलित लिखते हैं। हांलांकि इस इलाके के नालंदा में एक को छोड़ सभी सीटों पर हवा लालू नीतीश की ओर है। तिरहुत क्षेत्र में दोनों गठबंधनों में बराबर की लडाई है पर आरजेडी की गलती का फायदा भाजपा को मिलता दिख रहा। मिथिला में नीतीश लालू का गठबंधन के उम्मीदवार बीस पड़ते दिख रह हैं। सीमांचल क्षेत्र में महागठबंधन मजबूत है लेकिन मिथिला में पप्पू यादव का प्रभाव और सीमांचल में ओवैसी की ताकत उन सभी सीटों पर महागठबंधन का खेल बिगाडने में कामयाब होगी जहां फैसले छोटे अंतर से होंगे। इस चुनाव में वोट कटवों की खास अहमियत होगी। महागठबंधन की साथी कांग्रेस ने भी 40 सीटें लेकर जीत की राह में कम कांटे नहीं बिछाये हैं। उसके पास दस जिताऊ उम्मीदवार भी नहीं है ऐसे में भाजपा को प्रतियोगिता और चुनाव की मानिंद मुनाफा हो रहा है।
भाजपा और संघ ने अपनी बिहार की रणनीति में हिंदुत्व की अलख जगाने के लिए पहली बार जातियों का सहारा लिया। इससे पहले जातियों की जगह धर्म हुआ करता था। यही वजह है कि हुकुम देव नारायण यादव, रामकृपाल यादव, भूपेंद्र यादव को माई समीकरण के बावजूद खास तरजीह दी गयी है। रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी को एक साथ एक मंच परा लाया गया है। उपेंद्र कुशवाहा को भी जातीय रसायन के तहत ही गठबंधन का हिस्सा बनाया गया है। 242 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा सिर्फ दो तिहाई सीटों पर ही महज इसलिए लड़ रही है जिससे दूसरे जाति के नेताओं और दलों को साथ रखा जा सके। नये जातीय नेता तैयार किए गये हैं। जातीय राजनीति में प्रचार का तंत्र या फिर लडाई को नीतीश बनाम नरेंद्र मोदी बनाने का कौशल भले ही भाजपा के पक्ष में माहौल बनाता दिख रहा हो पर भाजपा के नेताओं के बयान उसे उतना उर्जस्विक कर पा रहे हैं जितना की लालू अपने बयानों अपने माहौल को कर ले रहे हैं। नतीजे भले ही 8 नवंबर को आयेंगे पर युद्ध लालू जीत रहे है। उनके हाथ संजीवनी लग गयी है। नीतीश कौरव सेना के साथ खड़े कर्ण बन गये हैं।
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