TRENDING TAGS :
निरपेक्षता की कसौटी पर धर्मनिरपेक्षता...
पाकिस्तान के मशहूर गज़ल गायक गुलाम अली इन दिनों भारत दौरे पर हैं। उनकी एक गज़ल हंगामा है क्यूं बरपा ने न सिर्फ तालियां बटोरीं बल्कि उसने शोहरत की बुलंदियां भी गुलाम अली को मुहैया कराईं। अकबर इलाहाबादी की यह गज़ल खुद में कई कई संदेश देती है। जब गुलाम अली भारत दौरे पर हैं तब इस गज़ल के सभी संदेश एक साथ खासे प्रासंगिक हो उठते हैं। एक ओर गुलाम अली के शिवसेना के विरोध मद्देनज़र तो दूसरी ओर दादरी की घटना, बीफ खाने के जिक्र आदि को लेकर।
धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की आड़ में जो भी खेला जा रहा है वह शर्मनाक है भारत के लोकतंत्र के लिए। भारत के उस समाज और संस्कार के लिए जिसने वसुधैव कुटुंबकम् को अपना आदर्श वाक्य बनाया। उसके लिए जो परहित सरसि धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई जैसे विचार पर अनेकता में एकता का अपना लोकतंत्र मजबूत कर रहा है पर धर्मनिरपेक्षता की ओट लेकर कथित धर्मनिरपेक्षता, छद्म धर्मनिरपेक्षता और मनोविकृत धर्मनिरपेक्षता पर काम करते हुए एक बड़ा तबका दिखता है। यह तबका गाहे बगाहे प्रगतिशीलता का लबादा ओढ लेता, धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार बन जाता लेकिन इस तबके के लोगों की दृष्टि इतनी स्वहितपोषी होती है कि उन्हें किसी भी घटना का सिर्फ एक पार्श्व दिखाई देता है। वे लोग पूर्व निर्धारित अपने निष्कर्षों के लिए तर्क जुटाते हैं। किसी भी तर्क के आधार पर निष्कर्ष की ओर नहीं बढ़ते हैं। यही वजह है कि जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर मनमोहन सिंह यह मुनादी पीटते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। जब संसद में दंगा निरोधक बिल लाया जाता है। जब मुजफ्फरनगर दंगे में मरे हुए लोगों की सूची कांग्रेस नीति सरकार के गृहमंत्रालय द्वारा बाकायदा धर्म को इंगित कर जारी की जाती है। तब आखिर इस तबके के लोग मौन का लबादा ओढ़कर क्यों कुंभकर्णी नींद सो जाते हैं। क्यों नहीं कुछ लोग आगे आकर इसे खारिज करते हैं। लेकिन दादरी कांड या किसी भी इस तरह की घटना पर यह तबका पता नहीं कहां से रुदाली बन एकजुट हो जाता है। मैं इस तरह की घटना का यह कहकर समर्थन नहीं कर रहा हूं। हांलांकि इस तबके के लोग ऐसे किसी भी विचार को समर्थन और विपक्ष के खांचे में आसानी से फिट कर देते हैं। चूंकि ऐसी घटनाएं जब भाजपा नीत सरकारों में होती हैं तो विपक्ष में यह तबका खुद ब खुद खड़ा है। किसी राजनैतिक दल की वहां न जरूरत है न ही जगह। पर सवाल यह उठता है कि आजादी से अबतक इस तरह की घटनाएं हर सरकार में जारी क्यों हैं। इस तरह की घटनाओं के स्थाई समाधान के लिए यह प्रगतिशील छद्म धर्मनिरपेक्ष, कथित धर्मनिरपेक्ष और मनोविकृत धर्मनिरपेक्ष लोग क्यों नहीं सोचते हैं। किसी हिंदू के मरने या किसी मुसलमान के मरने में अंतर क्यों किया जाता है। क्यों किया जाना चाहिए। किसी दलित के साथ और गैर दलित के साथ एक ही तरह के उत्पीड़न को अलग अलग चश्मे से क्यों देखा जाना चाहिए। हिंदू महिला की जरुरतें और मुस्लिम महिला की जरुरतो में एक ही देश काल और समाज में विभेद क्यों किया जाना चाहिए। इन सवालों का जवाब उन लोगों के पास नहीं है जो धर्मनिरपेक्षता के अलमबरदार बनते हैं। दादरी में बीफ खाने की अफवाह के चलते सीमा पर तैनात सैनिक के पिता को मौत के मुंह सुला दिया जाता है। यह घटना किसी के लिए हृदय विदारक है। मेरी समझ में शायद ही कोई आदमी और संगठन हो जिसमें भारतीयता समाहित हो वह ऐसी घटनाओं की निंदा न करे। पर जो लोग आज इस घटना को लेकर अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी के मौन पर उन्हें कोस रहे हैं। क्या उन लोगों को इस बात पर नाराजगी नहीं जाहिर करनी चाहिए कि आखिर इसे लेकर सिसायत क्यों हो रही है। उत्तर प्रदेश की इस घटना पर बिहार का चुनाव का चुनावी एजेंडा क्यों सेट हो रहा है। दंगो और ऐसी घटनाओं की ओट में सियासत की रोटियां क्यों सेंकी जाती हैं। इन सवालों पर महज इसलिए पुरस्कार लौटाने वाले मौन रह जाते हैं क्योंकि उन्हें विरोध मुद्दों का नहीं, समस्याओं का नहीं, सवालों का नहीं, व्यक्ति का करना होता है। यही वजह है कि ऐसी हर घटना का ठीकरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर फोड़ा जाता है। वह भी महज इसलिए क्योंकि यह एक सियासी फैशन हो गया है।
नरेंद्र मोदी एक खास किस्म की टोपी पहनने से मना करते हैं तो हंगामा बरपा होता है। पर नीतीश कुमार उसी टोपी को पहनने से मना करते हैं तो धर्मनिरपेक्षता परवान चढती है। आखिर कैसे। गोधरा और अहमदाबाद में लोग मारे जाते हैं पर हाय तौबा अहमदाबाद में मारे गये लोगों के लिए ही क्यों होती है। क्यों नहीं गोधरा में मारे गये लोगों के लिए भी हायतौबा मचती। मौत मौत है। किसी की हो। किसी भी रुप में, किसी भी कारण से किसी का परिजन छिन जाय तो वेदना एक सरीखी ही होती है। आखिर वेदना का प्रकटीकरण और उसके पीछे की लामबंदी अलग अलग क्यों हो रही है। यह आजादी के बाद से अबतक जारी है। क्यों नहीं यह सवाल उठता कि आखिर इस मनोवृति के लिए कौन जिम्मेदार है। उन्हें क्यों नहीं समाज विरोधी करार देकर खारिज किया जाता है। एक ही घटना को अलग अलग चश्मे से देखने की आदत ने घटनाओं को खत्म करने की जगह उसे फलने फूलने का ज्यादा मौका दे दिया है।
यही मौका कभी शिवसेना को महाराष्ट्र में मशहूर गायक गुलाम अली के कार्यक्रम रद करने से जोड़ता है। यही मौका लालू यादव को बीफ पर सियासत करने का अवसर देता है। यही मौका आदमी को वोट की शक्ल में देखने की आदत बनाता है। यही मौका हिंदू मुस्लिम की विभाजक रेखा खींचता है। यही मौका कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष और भाजपा को सांप्रदायिक बनाने- बताने की पृष्ठभूमि तैयार करता है वह भी तब जबकि 31 फीसदी वोट पाकर सरकार बनाने वाली भाजपा सांप्रदायिक हो जाती है और 2009 में 28.5 फीसदी वोट पाकर सरकार बनाने वाली धर्मनिरपेक्ष रहती है। एनडीए और 2009 में सरकार बनाने वाले यूपीए के लिहाज से देखें तो यह आंकडा क्रमशः 38.5 और 37.22 बैठता है। लोकतंत्र में क्या इसके अलावा भी मानदंड के कोई और अंतिम आधार होने भी चाहिए।
अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवाने वाला दल और उसके नेता धर्मनिरपेक्ष होते हैं। मंदिर बनाने की बात करने वाला दल सांप्रदायिक। शाहबानो मुकदमे में हिंदू महिला और मुस्लिम महिला की जरुरतों को अलग अलग चश्मे से देखने के लिए कानून बदल देने वाला दल धर्मनिरपेक्ष रह जाता है। उसकी सरकार में जो दंगे होते हैं उस पर रुदाली के लोग जमा नहीं होते। जब तक इन सारे सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे। समाज को व्यथित करने वाली किसी परिवार को दुखी करने वाली, किसी चेहरे से खुशी गायब करने वाली घटनाओं को अलग अलग चश्मे से देखा जायेगा तब तक आप अपना सम्मान वापिस करें या रुदाली बनें। मतलब एक ही निकलता है कि आपका लक्ष्य, हमारा लक्ष्य एक दिन की हेडलाइन बटोरना है। अब सदी बदल गयी है। सोच बदल गयी है। दुनिया माउस में सिमट रही है। वैश्विक ग्राम के सपने साकार हो रहे हैं। जरुरतें धर्म, मंदिर-मस्जिद, जाति से ऊपर उठकर शिक्षा, चिकित्सा बिजली, सड़क, पानी और रोजगार पर आकर ठहर गयी हैं। इसी दशक में जब अयोध्या का फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच से आऩे वाला था तो कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उसे रोकने की भारी मशक्कत की थी। तमाम अदालती पेंच फंसवाए थे। उनका मानना था कि फैसाल आते ही देश में कोहराम मच जायेगा। पर, इन 23 सालों में पैदा हुई नस्लों को सलाम करने का समय था कि इस फैसले पर सियासी बयान बाजी को छोड़ पूरे देश में पत्ता भी नहीं खड़का। मतलब साफ है कि हमारी नई नस्ल ने अपने एजेंडे बदल लिए हैं। वह जाति धर्म से ऊपर उठ गयी हैं। ऐसे में इन नस्लों के पहले के लोगों से यह उम्मीद किया जाना बेमानी नहीं होगा कि वे इसे समझें। अपने चश्मे साफ करें। धर्मनिरपेक्षता को लेकर, सांप्रदायिकता को लेकर। घटनाओं के लेकर, लोगों के मरने जीने को लेकर, दंगों को लेकर, लव जेहाद को लेकर।
हो सकता है ये लोग चश्मे बदलने को तैयार न हों ऐसे में हर संप्रदाय के लोगों को सब्र रखना होगा। हिंदू धर्म में सब्र को लेकर यहां तक कहा गया है कि यह सनातन धर्म का सार है। वहीं मुस्लिम धर्म में सब्र को सबसे महान और बौद्ध धर्म में सबसे बड़ी सीख सब्र की है। साई की श्रद्धा बिना सबुरी के पूरी नहीं होती तो यीशू का जीवन ही सब्र का सबसे बड़ा उदाहरण है। अगर धर्म के नाम पर लड़ने लडाने, तोहमत लगाने साजिश रचने से पहले हम अपने अपने धर्म में झांके तो सब्र ही सारी समस्या का हल है। वैसे भी किसी चश्मे से झांकने के बजाय हमें अपने अंदर झांकना होगा जिससे लोगों की नज़र इन चश्मों से प्रभावित ना हो।
धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की आड़ में जो भी खेला जा रहा है वह शर्मनाक है भारत के लोकतंत्र के लिए। भारत के उस समाज और संस्कार के लिए जिसने वसुधैव कुटुंबकम् को अपना आदर्श वाक्य बनाया। उसके लिए जो परहित सरसि धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई जैसे विचार पर अनेकता में एकता का अपना लोकतंत्र मजबूत कर रहा है पर धर्मनिरपेक्षता की ओट लेकर कथित धर्मनिरपेक्षता, छद्म धर्मनिरपेक्षता और मनोविकृत धर्मनिरपेक्षता पर काम करते हुए एक बड़ा तबका दिखता है। यह तबका गाहे बगाहे प्रगतिशीलता का लबादा ओढ लेता, धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार बन जाता लेकिन इस तबके के लोगों की दृष्टि इतनी स्वहितपोषी होती है कि उन्हें किसी भी घटना का सिर्फ एक पार्श्व दिखाई देता है। वे लोग पूर्व निर्धारित अपने निष्कर्षों के लिए तर्क जुटाते हैं। किसी भी तर्क के आधार पर निष्कर्ष की ओर नहीं बढ़ते हैं। यही वजह है कि जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर मनमोहन सिंह यह मुनादी पीटते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। जब संसद में दंगा निरोधक बिल लाया जाता है। जब मुजफ्फरनगर दंगे में मरे हुए लोगों की सूची कांग्रेस नीति सरकार के गृहमंत्रालय द्वारा बाकायदा धर्म को इंगित कर जारी की जाती है। तब आखिर इस तबके के लोग मौन का लबादा ओढ़कर क्यों कुंभकर्णी नींद सो जाते हैं। क्यों नहीं कुछ लोग आगे आकर इसे खारिज करते हैं। लेकिन दादरी कांड या किसी भी इस तरह की घटना पर यह तबका पता नहीं कहां से रुदाली बन एकजुट हो जाता है। मैं इस तरह की घटना का यह कहकर समर्थन नहीं कर रहा हूं। हांलांकि इस तबके के लोग ऐसे किसी भी विचार को समर्थन और विपक्ष के खांचे में आसानी से फिट कर देते हैं। चूंकि ऐसी घटनाएं जब भाजपा नीत सरकारों में होती हैं तो विपक्ष में यह तबका खुद ब खुद खड़ा है। किसी राजनैतिक दल की वहां न जरूरत है न ही जगह। पर सवाल यह उठता है कि आजादी से अबतक इस तरह की घटनाएं हर सरकार में जारी क्यों हैं। इस तरह की घटनाओं के स्थाई समाधान के लिए यह प्रगतिशील छद्म धर्मनिरपेक्ष, कथित धर्मनिरपेक्ष और मनोविकृत धर्मनिरपेक्ष लोग क्यों नहीं सोचते हैं। किसी हिंदू के मरने या किसी मुसलमान के मरने में अंतर क्यों किया जाता है। क्यों किया जाना चाहिए। किसी दलित के साथ और गैर दलित के साथ एक ही तरह के उत्पीड़न को अलग अलग चश्मे से क्यों देखा जाना चाहिए। हिंदू महिला की जरुरतें और मुस्लिम महिला की जरुरतो में एक ही देश काल और समाज में विभेद क्यों किया जाना चाहिए। इन सवालों का जवाब उन लोगों के पास नहीं है जो धर्मनिरपेक्षता के अलमबरदार बनते हैं। दादरी में बीफ खाने की अफवाह के चलते सीमा पर तैनात सैनिक के पिता को मौत के मुंह सुला दिया जाता है। यह घटना किसी के लिए हृदय विदारक है। मेरी समझ में शायद ही कोई आदमी और संगठन हो जिसमें भारतीयता समाहित हो वह ऐसी घटनाओं की निंदा न करे। पर जो लोग आज इस घटना को लेकर अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी के मौन पर उन्हें कोस रहे हैं। क्या उन लोगों को इस बात पर नाराजगी नहीं जाहिर करनी चाहिए कि आखिर इसे लेकर सिसायत क्यों हो रही है। उत्तर प्रदेश की इस घटना पर बिहार का चुनाव का चुनावी एजेंडा क्यों सेट हो रहा है। दंगो और ऐसी घटनाओं की ओट में सियासत की रोटियां क्यों सेंकी जाती हैं। इन सवालों पर महज इसलिए पुरस्कार लौटाने वाले मौन रह जाते हैं क्योंकि उन्हें विरोध मुद्दों का नहीं, समस्याओं का नहीं, सवालों का नहीं, व्यक्ति का करना होता है। यही वजह है कि ऐसी हर घटना का ठीकरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर फोड़ा जाता है। वह भी महज इसलिए क्योंकि यह एक सियासी फैशन हो गया है।
नरेंद्र मोदी एक खास किस्म की टोपी पहनने से मना करते हैं तो हंगामा बरपा होता है। पर नीतीश कुमार उसी टोपी को पहनने से मना करते हैं तो धर्मनिरपेक्षता परवान चढती है। आखिर कैसे। गोधरा और अहमदाबाद में लोग मारे जाते हैं पर हाय तौबा अहमदाबाद में मारे गये लोगों के लिए ही क्यों होती है। क्यों नहीं गोधरा में मारे गये लोगों के लिए भी हायतौबा मचती। मौत मौत है। किसी की हो। किसी भी रुप में, किसी भी कारण से किसी का परिजन छिन जाय तो वेदना एक सरीखी ही होती है। आखिर वेदना का प्रकटीकरण और उसके पीछे की लामबंदी अलग अलग क्यों हो रही है। यह आजादी के बाद से अबतक जारी है। क्यों नहीं यह सवाल उठता कि आखिर इस मनोवृति के लिए कौन जिम्मेदार है। उन्हें क्यों नहीं समाज विरोधी करार देकर खारिज किया जाता है। एक ही घटना को अलग अलग चश्मे से देखने की आदत ने घटनाओं को खत्म करने की जगह उसे फलने फूलने का ज्यादा मौका दे दिया है।
यही मौका कभी शिवसेना को महाराष्ट्र में मशहूर गायक गुलाम अली के कार्यक्रम रद करने से जोड़ता है। यही मौका लालू यादव को बीफ पर सियासत करने का अवसर देता है। यही मौका आदमी को वोट की शक्ल में देखने की आदत बनाता है। यही मौका हिंदू मुस्लिम की विभाजक रेखा खींचता है। यही मौका कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष और भाजपा को सांप्रदायिक बनाने- बताने की पृष्ठभूमि तैयार करता है वह भी तब जबकि 31 फीसदी वोट पाकर सरकार बनाने वाली भाजपा सांप्रदायिक हो जाती है और 2009 में 28.5 फीसदी वोट पाकर सरकार बनाने वाली धर्मनिरपेक्ष रहती है। एनडीए और 2009 में सरकार बनाने वाले यूपीए के लिहाज से देखें तो यह आंकडा क्रमशः 38.5 और 37.22 बैठता है। लोकतंत्र में क्या इसके अलावा भी मानदंड के कोई और अंतिम आधार होने भी चाहिए।
अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवाने वाला दल और उसके नेता धर्मनिरपेक्ष होते हैं। मंदिर बनाने की बात करने वाला दल सांप्रदायिक। शाहबानो मुकदमे में हिंदू महिला और मुस्लिम महिला की जरुरतों को अलग अलग चश्मे से देखने के लिए कानून बदल देने वाला दल धर्मनिरपेक्ष रह जाता है। उसकी सरकार में जो दंगे होते हैं उस पर रुदाली के लोग जमा नहीं होते। जब तक इन सारे सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे। समाज को व्यथित करने वाली किसी परिवार को दुखी करने वाली, किसी चेहरे से खुशी गायब करने वाली घटनाओं को अलग अलग चश्मे से देखा जायेगा तब तक आप अपना सम्मान वापिस करें या रुदाली बनें। मतलब एक ही निकलता है कि आपका लक्ष्य, हमारा लक्ष्य एक दिन की हेडलाइन बटोरना है। अब सदी बदल गयी है। सोच बदल गयी है। दुनिया माउस में सिमट रही है। वैश्विक ग्राम के सपने साकार हो रहे हैं। जरुरतें धर्म, मंदिर-मस्जिद, जाति से ऊपर उठकर शिक्षा, चिकित्सा बिजली, सड़क, पानी और रोजगार पर आकर ठहर गयी हैं। इसी दशक में जब अयोध्या का फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच से आऩे वाला था तो कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उसे रोकने की भारी मशक्कत की थी। तमाम अदालती पेंच फंसवाए थे। उनका मानना था कि फैसाल आते ही देश में कोहराम मच जायेगा। पर, इन 23 सालों में पैदा हुई नस्लों को सलाम करने का समय था कि इस फैसले पर सियासी बयान बाजी को छोड़ पूरे देश में पत्ता भी नहीं खड़का। मतलब साफ है कि हमारी नई नस्ल ने अपने एजेंडे बदल लिए हैं। वह जाति धर्म से ऊपर उठ गयी हैं। ऐसे में इन नस्लों के पहले के लोगों से यह उम्मीद किया जाना बेमानी नहीं होगा कि वे इसे समझें। अपने चश्मे साफ करें। धर्मनिरपेक्षता को लेकर, सांप्रदायिकता को लेकर। घटनाओं के लेकर, लोगों के मरने जीने को लेकर, दंगों को लेकर, लव जेहाद को लेकर।
हो सकता है ये लोग चश्मे बदलने को तैयार न हों ऐसे में हर संप्रदाय के लोगों को सब्र रखना होगा। हिंदू धर्म में सब्र को लेकर यहां तक कहा गया है कि यह सनातन धर्म का सार है। वहीं मुस्लिम धर्म में सब्र को सबसे महान और बौद्ध धर्म में सबसे बड़ी सीख सब्र की है। साई की श्रद्धा बिना सबुरी के पूरी नहीं होती तो यीशू का जीवन ही सब्र का सबसे बड़ा उदाहरण है। अगर धर्म के नाम पर लड़ने लडाने, तोहमत लगाने साजिश रचने से पहले हम अपने अपने धर्म में झांके तो सब्र ही सारी समस्या का हल है। वैसे भी किसी चश्मे से झांकने के बजाय हमें अपने अंदर झांकना होगा जिससे लोगों की नज़र इन चश्मों से प्रभावित ना हो।
Next Story