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अपराध का शोर और किशोर

Dr. Yogesh mishr
Published on: 21 Dec 2015 11:58 AM IST
नागालैंड के दीमापुर में उन्मादी भीड़ ने दुराचार के आरोपी को केंद्रीय जेल से बाहर निकाल कर मार-मार कर अधमरा कर दिया। गुस्साई भीड़ ने दुराचार के आरोपी को चौराहे पर फांसी पर लटका दिया। इस तरह के अराजक और आदिम मानसिकता का समर्थन किसी भी स्तर पर नहीं हो सकता। लेकिन आज जब निर्भया कांड के किशोर अपराधी को उसके गांव वाले कुबूल करने को तैयार नहीं हैं भयवश उसे एक एनजीओ के संरक्षण में एक अज्ञात स्थल पर भेज दिया गया हो तब यह सवाल मौजूं हो जाता है कि किशोर अपराध को लेकर जो भी कानून हैं वह जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते।  एक बड़ा तबका यह भी मानता है कि कानून को जनभावनाओं के प्रतिनिधित्व करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पर इस सच से शायद ही कोई आंख मूंद सकता है कि कानून अगर अपराधी में भय उत्पन्न करने की स्थिति में है तो उसे बदला ही जाना चाहिए।
निर्भया कांड के किशोर अपराधी के मद्देनज़र यह सवाल आज ज़ेरे-बहस है। एक अपराध को दुर्दांत और जघन्य ढंग से अंजाम देने में लिप्त शख्स को अपराध की प्रकृति और प्रवृति की जगह उसके उम्र के आधार पर दंड का प्रावधान किया जाय तो यह ही- विलंबित न्याय, न्याय की श्रेणी में नहीं आता है- उक्ति का परिमार्जित रुप ही कहा जायेगा। मूलतः सज़ा का प्रावधान अपराध की प्रकृति और प्रवृति पर होना चाहिए। दूसरे, सामाजिक सांस्कृतिक और तकनीकी विकास के क्रम मे उम्र की सीमा एक शताब्दी पहले की स्वीकार की जाय, यह भी अपराध पर नियंत्रण का कारगर उपाय नहीं हो सकता है। आंकड़े बताते हैं कि –
एन सीआर बी के अनुसार 2003 से 2013 के दशक में भारतीय दण्ड संहिता और स्थानीय विशेष अधिनियमों के अनुसार 379,283 किशोर उम्र के बच्चों को गिरफ्तार किया गया। इसमें बलात्कार के मामलों में हुई कुल गिरफ्तारियाँ वर्ष 2003 में 535 से 288% के चिंता जनक बढ़कर 2074 हो गयी हैं।  इस दशक में कुल बलात्कार के मामलों में गिरफ्तार हुए लोगों कि संख्या 10,693 थी | यानी इस दशक में दुराचार के आरोप में गिरफ्तार कुल आरोपियों में हर पांचवा आरोपी किशोर था।  उसी तरह आई0 पी0सी0 की धारा 354 यानी  महिलाओं के साथ किए जा रहे अन्य अपराध गिरफ्तारियों में किशोर अपराधियों की संख्या में 117% की वृद्धि दर्ज हुई। पिछले बीते दशक (2003 से 2013) में बाल अपराधों में गिरफ्तारी 16 से 18 आयु के वर्ग में आरोपित मामलों 60% की वृद्धि पायी गयी।
वर्ष 2014 के आकंडे बताते हैं कि 28,51,563 अपराधों में से 33.526 मामले किशोर अपराध से जुड़े हुए हैं। अपराधों की बढती हुई संख्या यह पुष्ट करती है कि इन्हें रोकने के लिए बनाए गये कानून बेहद मुलायम है। उऩका इकबाल नहीं है। जब यह कानून बनाए गए थे तो बच्चा, किशोर, युवा की यात्रा करता हुए प्रौढ़ होता था। उसके अंदर रासायनिक परिवर्तन ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्याय के क्रम में होता था। लड़कियां भी एक उम्र से पहले युवावस्था को प्राप्त नहीं करती थीं। जीवन का क्रम था। लेकिन तकनीकी के विस्तार ने इस क्रम को व्यतिक्रम कर दिया है। अब ब्रह्मचर्य में ही गृहस्थ आश्रम प्रवेश कर गया है। सन्यास और वानप्रस्थ विलुप्त हो गये है।
आचार्य रजनीश ने जब संभोग से समाधि तक किताब लिखी थी तब संभोग शब्द का उच्चारण अश्लील माना जाता था। अब उसकी जगह सेक्स ने इस कदर ली है कि वह श्लील शब्दों में शुमार ही नहीं हुआ बेल्कि वह तारीफ का एक विशेषण बन गया है। संचार क्रांति और तकनीकी के जीवन में पैठ ने बच्चों को सीधे बूढ़ा बनाना शुरु कर दिया है। लिहाजा उनके जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मनोविकार और मनोवृत्तियां आने के लिए उम्र की मोहताज नहीं हैं।
दुनिया में खुद को सबसे सभ्य और विकसित कहने वाला अमरीका  24 अक्टूबर 2014 को मैरिसविले पिलचुक हाई स्कूल में हुई गोलीबारी से स्तब्ध रह गया। इसमें गोली चलाने वाला वहीं का एक हाईस्कूल का छात्र था। जिसमें दूसरे 4 छात्र मारे गए थे। इससे पहले भी 4 दिसंबर 2012 को सैंडी हुक एलिमेंट्री स्कूल में भी सामूहिस संहार हुआ था इसमें 26 लोग मारे गए थे। हमलावर एडम लांजा ने 26 लोगों को गोलियां से भून दिया था उनमें 20 छात्र थे। एडम उस समय तरुणाई में था। घटना के बाद उसने अपनी मां और खुद को भी गोली मार ली थी। हाल की घटनाएं एवं आंकडे़ बताते हैं कि डकैती, हत्या तथा बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम दे रहे किशोरों में अधिकतर की उम्र 16 से 18 वर्ष के बीच होती है। पिछले साल हरदोई में बाल सुधार गृह में कैद लगभग 60 किशोरों ने वहां तैनात सिपाहियों की बंदूकें छीन लीं और हवा में गोलियां चलाईं।
हर कानून का फायदा उठाने का जुगत खोजा जाता है। किशोर अपराध कानून का भी लाभ अपराध में लिप्त अपराधी के परिजन उसकी उम्र में हेरफेर कर उठाते है। लिहाजा  फर्जी जन्म प्रमाणपत्र देकर कई अपराधी बचने में सफल भी हो रहे हैं। लखनऊ के आशियाना दुराचार कांड का आरोपी उम्र में हेरफेर कर किशोर अपराधी का फायदा उठाने की जुगत में है। बच्चों से अपराध कराने वाले तमाम गिरोह भी उनकी उम्र का हवाला देकर उन्हें कई बार जरायम की दुनिया में ढकेलने में कामयाब हो जाते है। ऐसे गिरोह बच्चों को यह समझाते हैं कि उन्हें जेल नहीं होगी। 18 साल की उम्र तक उन्हें बाल सुधार गृह में रखा जायेगा। बाकयदा गिरोह के सरगना इन बच्चों का ऐसा जन्म प्रमाण पत्र बनवाते हैं कि उनकी बड़े से बड़े अपराध की सजा एक दो साल में खत्म हो जाय। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता जाहिर करते हुए इसके दुरुपयोग रोकने के लिए एक व्यवस्था दी है।
जिस कानून का इतना बेजा इस्तेमाल हो, जो कानून अपना इकबाल कायम नहीं कर सकता हो उस कानून के बने रहने का औचित्य नहीं रह जाता। कानून जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करे यह भले ही अनिवार्य न हो पर यह तो जरुरी है कि कानून जनभावनाओं को सुरक्षित रखने के लिए अपराधियों में भय उत्पन्न करे। जो कानून निर्भया कांड के आरोप को खुले में घूमने की छूट दे सकता हो, वह भी तब जब तीन साल पहले हुए इस जघन्य अपराध के खिलाफ जन्तर मंतर से लेकर जनपद तक सैलाब उमड़ा हो। जब वह छूट गया हो तब भी जनपथ पर लोग जन भावना प्रदर्शित करने के लिए उतर पड़े हों। लोकसभा किशोर होने की उम्रसीमा घटाने का बिल पास कर चुकी हो। राज्यसभा में यह लंबित है। दीमापुर में लोगों ने कानून को सिर्फ इसलिए हाथ में लिया होगा क्योंकि उन्हें सरकारी तंत्र से नाउम्मीदी हुई होगी। लोगों के गुस्से को संरक्षण देने में कानून और सरकार कामयाब नहीं हुई होगी।
जिस तरह का गुस्सा निर्भया कांड के आरोपी के छूटने पर उसके गांव से लेकर जनपथ तक दिख रहा है उससे इस आशंका का बलवती होना स्वाभाविक है कि अगर वह दिख गया तो दीमापुर कांड दोहराया जा सकता है। एक सभ्य समाज में इस असभ्य कृत्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता पर क्या यह अदालत, कानून और सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है कि वह ब्रिटिश कालीन उन तमाम कानूनों को बदले जो देश की जरुरतों को पूरा नहीं करते। बाल मन की करतूत नहीं होते। बच्चे जैसे प्रकृति और प्रवृति के जो अपराध नहीं करते उन्हें महज उम्र के आधार किशोर अपराध कानून का लाभ दिया जाय यह कानून की विकलांगता कही जाएगी।
कानून का काम सिर्फ उम्र देखना नहीं है उसका काम प्रकृति प्रवृति और मनोवृत्ति भी देखना है। निर्भया कांड में जो कुछ हुआ उसमें अपराधी प्रकृति, प्रवृति और मनोवृत्ति तीनों बाल-दशा की नहीं थीं। किशोर की नहीं थीं। यह तीनों एक जघन्य दुर्दांत अपराधी सरीखी थीं। ऐसे में स्वयंसेवी संगठनों की उस मुहिम को पलीता लगाता है जो उन्हें सुधरने का तर्क देते हैं। जो किशोर अपराधियों के लिए प्रचलित एक मनोवैज्ञानिक विश्वास पर भी कुठाराघात करता है कि किशोर अपराधी ज्यादातर ऐसे परिवारों से होते हैं जिनके माता पिता न हों या मर गए हों | या वह माता पिता अलग-अलग रहते हों लेकिन इन विश्वासों को तोड़ते हुए आंकड़ें बताते हैं कि किशोर अपराध करने वाले 68 % बच्चे अपने माता पिता के साथ रहते थे। निर्भया कांड के आरोपी को भी उसकी मां कुबूल करने को तैयार है।
आमतौर पर बचने बचाने का जितना भी खेल होता है वह उनकी किशोर अपराधियों के साथ होता है जिनके मां-बाप होते हैं। हमने अपने संविधान में बहुत से कानून दूसरे देशों से आयात कर बनाए हैं। पश्चिम देशों को हम मानवाधिकार का आदर्श मानते हैं पर हम ब्रिटेन से यह लेने को तैयार नहीं है इंग्लैंड और वेल्स में किशोर अपराध अधिनियम के अनुसार दंडित करने की न्यूनतम आयु 10 है | वहीं चीनी कानून में सामान्य अपराधों में आरोपित करने की जिम्मेदारी की उच्चतम आयु सीमा 16 वर्ष है | पर जानबूझ कर गंभीर आपराधिक कार्य जैसे नर हत्या , बलात्कार और डकैती करने की आपराधिक ज़िम्मेदारी 14 और 16 आयु वर्ग के किशोरों पर ही मान्य हो जाती है । अमेरिका में तो  बाल अपराध अधिनियम में ज्यादातर राज्यों में निम्नतम उम्र की सीमा घोषित नहीं | यानि की not specified (ns) और उच्चतम आयु सीमा 17 हैं |
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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