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विकास के रास्ते किस युग में जा रहे हैं हम...
भारतीय फिल्मों में सुपरस्टार युग की शुरुआत करने वाले राजेश खन्ना की एक फिल्म थी -‘हाथी मेरे साथी’। इस फिल्म में लोगों की क्रूरता का शिकार हाथी हो गया था। उसकी शवयात्रा के साथ राजेश खन्ना सिल्वर स्क्रीन पर गाना गाते गुजर रहे थे। उसमें एक बहुत प्रासंगिक सवाल उठाया था- उन्होंने जानना चाहा था जानवर जब किसी को मारता है तो उसे वहशी कहते है, लेकिन जब आदमी ने जब मिलकर जानवर की जान ली है तो क्या कहेंगे? आज जब केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के परंपरिक साडों के खेल जल्लीकुट्टू को चार साल बाद अनुमति दे दी है तब हाथी मेरे साथी फिल्म में जानवरो के साथ बढ़ती जा रही ज्यादती को लेकर उठाए गए सवालों में कई और सवाल जुड़ गए हैं।
आदिम युग में कभी संभव है जानवर आदमी के लिए क्रीड़ा का सबब रहे हो। मनोरंजन का माध्यम रहे हों पर धीरे-धीरे मनुष्य ने विकास के सोपान तय किए तब जानवर उसकी सुविधा का जरिया बन गये। कभी खेती के लिए कभी भोजन के लिए कभी यातायात के लिए और कभी सुरक्षा-संरक्षा तथा प्रेम के प्रकटीकरण के लिए। लेकिन आज जब हम सभ्य होने के दावे पर इतरा रहे हैं तब भी जानवरों से खेलने का खेल परंपरा के नाम पर जारी रखना चाहते हैं तो साफ होता है कि हमारे विकास के दावे झूठे है, बेमानी हैं या हम निरे ‘हिपोक्रेट’ हैं। अब जब जल्लीकट्टू परंपरा के शुरु होते ही पूरे तमिलनाडू में जश्न सा माहौल हो तो ऐसे आरोपों से कैसे बचा जा सकता है।
देश में बहुत सी ऐसी परंपराएं थी और हैं जिनका होना समाज के लिए, विकसित समाज के लिए, सभ्य समाज के लिए कलंक कहा जा सकता है। समय-समय पर इन कलंकों को धोने के लिए हमारे समाज सुधारक और सरकारें आगे आईं। अगर ऐसा नहीं होता तो हम आज भी बालविवाह, सती प्रथा, विधवा उत्पीडन सरीखी तमाम कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हो पाते। यही नहीं इनसे बचने के लिए ही इन्हें कुरीतियों का नाम दिया गया। अंधविश्वास और कुरीतियों सरीखे शब्दों के मार्फत इनसे बच निकलने का मार्ग बनाया गया लेकिन इन सबको दरकिनार करते हुए साडों के खेल जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के पोंगल पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उपहार मानकर जिस तरह वहां की मुख्यमंत्री जयललिता आभार प्रकट कर रही हैं और दक्षिण तमिलनाडु में पटाखे छुड़ाकर मिठाई बांटी जा रही है उससे यह पता चलता है कि हम फिर उसी मार्ग पर लौट रहे हैं जहां जाने की मनाही सिर्फ पशु प्रेमी ही नहीं कर रहे थे बल्कि सर्वोच्च अदालत ने वर्ष 2014 में अपनी सहमति भी जता दी थी।
यही नहीं केंद्र सरकार की जिस अधिसूचना से जल्लीकट्टू और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति मिली उसी अधिसूचना का अंश यह बताता है कि भालू, बंदर, बाघ, चीते आदि को प्रदर्शन पशु (पर्फार्मिंग एनिमल) के तौर पर प्रशिक्षित या प्रदर्शित नही किया जाएगा। हालांकि साडों के खेल और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति देते हुए कई तरह के प्रतिबंध आयद किए गये हैं। मसलन, पंद्रह मीटर की अर्धव्यास की दूरी साड़ों के खेल के लिए और 200 मीटर की दूरी महाराष्ट्र कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, केरल व गुजरात के पारंपरिक बैलगाड़ी दौड़ की सीमा तय की गयी है। पर एक ऐसे देश में जहां कानून तोड़ने के लिए बनते हों। जहां कानून तोड़ना प्रतिष्ठा का सबब हो, जहां कानून का पालन करना ‘पप्पू’ जैसे विशेषण का पर्याय बन गया हो वहां इन सीमाओँ का अतिक्रमण नहीं होगा यह मानना दीवास्वप्न कहा जाना चाहिए। मानव ने विकास के साथ बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत जानवरों का जिस तरह उपयोग किया उसी का नतीजा है कि मात्र 35 वर्षों में कशेरुक प्राणियों की आबादी दुनिया भर में घटकर आधी रह गयी है। 2013 तक सर्कसों मे गजराज यातना के शिकार रहे। पेटा और गैरसरकारी संगठन एनिमल राहत की ओर से 16 सर्कसों की जांच में यह पाया गया कि गजराज के साथ क्रूरता के साथ इनका पंजीकरण रद कर दिया जाना चाहिए। 2008 से 2013 तक के आंकडे यह बताते हैं कि हर साल 29,32,30,13,32,और 42 बाघों की मौत हुई जबकि देश में 47 टाइगर रिजर्व हैं। वहीं वनराज सिंह की मौतों के मामले भी कम चिंताजनक नहीं हैं साल 2009 में 45 सिंहों की मौत हुई, वहीं 2010-11 में यह आकडा करीब-करीब बराबर 44 सिंहों का था, साल 2011-12 में यह कुछ घटकर 37 आया तो 2012-13 में एक दम से बढ़कर 48 पहुंच गया। वर्ष 2013-14 तक तो यह अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। इस साल तो इनसानों ने 53 वनराजों को मौत की नींद सुला दिया। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले जानवर ऊंट में संख्या के लिहाज से भारत सूडान और सोमालिया के बाद तीसरे स्थान पर था पर अब वह दसवें स्थान पर पहुंच गया है। जोधपुर के स्कूल ऑफ डेजर्ड साइंसेज के आंकडे बताते हैं कि रेगिस्तान के जहाज कहे जाने वाले इस जानवर की संख्या में बीते दो दशकों में अकेले राजस्थान में 50 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। देश भर में आज सिर्फ पांच लाख ऊंच बचे हैं। फिरौती दुश्मनी, यौन शोषण के अलावा ऊंट दौड़ के लिए 1999-2014 तक 92 लोगों के अपहरण के मामले प्रकाश में आए है। अकेले गुजरात में 70 महिलाओं का अपहरण ऊंट दौड़ में बर्बर इस्तेमाल के लिए किया है। एक आंकडे के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 55 अरब पशु मारे जाते हैं। साडों की लडाई का खेल तमिलनाडु से लेकर स्पेन के पैमप्लोना तक होता है। सैन फर्निन नाम का खेल 15 वीं शताब्दी से वहां खेला जा सकता है। नए साल की शुरुआत कोई खून-खराबे से नहीं करना चाहेगा, लेकिन कोलंबिया में हर साल नये साल पर मौत का खेल होता है। बुल फाइट में चार दिन के अंदर सैकडों लोग घायल होते है।
गाय जैसी जानवर सियासत की खराद पर चढी हुई है। लोकसभा चुनाव में गुलाबी क्रांति जेरे बहस थी। वरह गाय धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की लडाई का हथियार बन गयी है जिसके बारे में पैगंबरे इस्लाम की मशहूर राय है कि अकरमल बकर का इलाहा सैय्यदुल बाहइम, यानी गाय का आदर करो क्योंकि वह चौपायों की सरदार है। भारत के इस्लामिक सेंटर के सदस्य मौलान मुश्ताक ने 14 फरवरी, 2012 को लखनऊ के प्रेस क्लब में कहा था कि नबी ने गोमूत्र पीने की सलाह दी थी, इससे बीमार ठीक हो गया था। अमरीका वैज्ञानिक मैक फार्सत ने 2002 में गोमूत्र का पेटेंट औषधि के रुप में करा लिया था। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक मैरिट क्रम्स्की का शोध यह बताता है कि गाय के दूध को फेंट कर बने क्रीम से एचआईवी से सुरक्षा होती है। 1947 में गाय की संख्या 1 अरब 21 करोड़ थी जो आज घटकर महज 10 करोड़ रह गयी है। जानवरों के अवैध कारोबार, सैक्स संबंधी दवाओं में उपयोग, सजावट और ऋंगार के समान बनाने और नज़रिये में बदलाव ने यह संकट उत्पन्न किया है।
यह संकट तब तक दूर नहीं हो सकता, जब तक हम परंपराओं का लबादा उतार कर फेंकेगे नहीं। क्योंकि परंपराएं हमें कहीं साडों से खेलने का मौका देती हैं, कहीं शेर की छाल पर बैठकर धर्म और आध्यात्म की यात्रा का सबब सिखाती है, कहीं मृगछाला के मार्फत पवित्रता का पैगाम देती हैं कहीं पशुबलि के मार्फत के देवी-देवता के खुश होने की परंपरा परवान चढती दिखती है। इलाकाई, कबीलाई संस्कृति में भले ही पशु-पक्षियो और वनस्पतियों को देवी देवता माना गया हो हमारी संस्कृति में भी हर देवता के साथ एक पशु, पक्षी अथवा वनस्पति जुडी है। वह इसलिए नहीं कि हम उन्हें परंपरा की वेदी पर चढा दें बल्कि इसलिए कि हम उन्हें बचाए रखने के लिए कितना और किस तरह का उत्सर्ग करने को तैयार हैं। आज जब हमने अपने मनोरंजन के अनगिनत साधन विकसित कर लिए हैं। मनुष्य खुद मनुष्य के लिए तमाम जगहों और अवसरों पर मनोरंजन का साधन बन गया है तब तो हमें इन निरीह और बेजुबान जानवरों का इस्तेमाल मनोरंजन और परंपरा के नाम पर करना बंद कर देना चाहिए।
आदिम युग में कभी संभव है जानवर आदमी के लिए क्रीड़ा का सबब रहे हो। मनोरंजन का माध्यम रहे हों पर धीरे-धीरे मनुष्य ने विकास के सोपान तय किए तब जानवर उसकी सुविधा का जरिया बन गये। कभी खेती के लिए कभी भोजन के लिए कभी यातायात के लिए और कभी सुरक्षा-संरक्षा तथा प्रेम के प्रकटीकरण के लिए। लेकिन आज जब हम सभ्य होने के दावे पर इतरा रहे हैं तब भी जानवरों से खेलने का खेल परंपरा के नाम पर जारी रखना चाहते हैं तो साफ होता है कि हमारे विकास के दावे झूठे है, बेमानी हैं या हम निरे ‘हिपोक्रेट’ हैं। अब जब जल्लीकट्टू परंपरा के शुरु होते ही पूरे तमिलनाडू में जश्न सा माहौल हो तो ऐसे आरोपों से कैसे बचा जा सकता है।
देश में बहुत सी ऐसी परंपराएं थी और हैं जिनका होना समाज के लिए, विकसित समाज के लिए, सभ्य समाज के लिए कलंक कहा जा सकता है। समय-समय पर इन कलंकों को धोने के लिए हमारे समाज सुधारक और सरकारें आगे आईं। अगर ऐसा नहीं होता तो हम आज भी बालविवाह, सती प्रथा, विधवा उत्पीडन सरीखी तमाम कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हो पाते। यही नहीं इनसे बचने के लिए ही इन्हें कुरीतियों का नाम दिया गया। अंधविश्वास और कुरीतियों सरीखे शब्दों के मार्फत इनसे बच निकलने का मार्ग बनाया गया लेकिन इन सबको दरकिनार करते हुए साडों के खेल जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के पोंगल पर्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उपहार मानकर जिस तरह वहां की मुख्यमंत्री जयललिता आभार प्रकट कर रही हैं और दक्षिण तमिलनाडु में पटाखे छुड़ाकर मिठाई बांटी जा रही है उससे यह पता चलता है कि हम फिर उसी मार्ग पर लौट रहे हैं जहां जाने की मनाही सिर्फ पशु प्रेमी ही नहीं कर रहे थे बल्कि सर्वोच्च अदालत ने वर्ष 2014 में अपनी सहमति भी जता दी थी।
यही नहीं केंद्र सरकार की जिस अधिसूचना से जल्लीकट्टू और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति मिली उसी अधिसूचना का अंश यह बताता है कि भालू, बंदर, बाघ, चीते आदि को प्रदर्शन पशु (पर्फार्मिंग एनिमल) के तौर पर प्रशिक्षित या प्रदर्शित नही किया जाएगा। हालांकि साडों के खेल और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति देते हुए कई तरह के प्रतिबंध आयद किए गये हैं। मसलन, पंद्रह मीटर की अर्धव्यास की दूरी साड़ों के खेल के लिए और 200 मीटर की दूरी महाराष्ट्र कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, केरल व गुजरात के पारंपरिक बैलगाड़ी दौड़ की सीमा तय की गयी है। पर एक ऐसे देश में जहां कानून तोड़ने के लिए बनते हों। जहां कानून तोड़ना प्रतिष्ठा का सबब हो, जहां कानून का पालन करना ‘पप्पू’ जैसे विशेषण का पर्याय बन गया हो वहां इन सीमाओँ का अतिक्रमण नहीं होगा यह मानना दीवास्वप्न कहा जाना चाहिए। मानव ने विकास के साथ बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत जानवरों का जिस तरह उपयोग किया उसी का नतीजा है कि मात्र 35 वर्षों में कशेरुक प्राणियों की आबादी दुनिया भर में घटकर आधी रह गयी है। 2013 तक सर्कसों मे गजराज यातना के शिकार रहे। पेटा और गैरसरकारी संगठन एनिमल राहत की ओर से 16 सर्कसों की जांच में यह पाया गया कि गजराज के साथ क्रूरता के साथ इनका पंजीकरण रद कर दिया जाना चाहिए। 2008 से 2013 तक के आंकडे यह बताते हैं कि हर साल 29,32,30,13,32,और 42 बाघों की मौत हुई जबकि देश में 47 टाइगर रिजर्व हैं। वहीं वनराज सिंह की मौतों के मामले भी कम चिंताजनक नहीं हैं साल 2009 में 45 सिंहों की मौत हुई, वहीं 2010-11 में यह आकडा करीब-करीब बराबर 44 सिंहों का था, साल 2011-12 में यह कुछ घटकर 37 आया तो 2012-13 में एक दम से बढ़कर 48 पहुंच गया। वर्ष 2013-14 तक तो यह अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। इस साल तो इनसानों ने 53 वनराजों को मौत की नींद सुला दिया। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले जानवर ऊंट में संख्या के लिहाज से भारत सूडान और सोमालिया के बाद तीसरे स्थान पर था पर अब वह दसवें स्थान पर पहुंच गया है। जोधपुर के स्कूल ऑफ डेजर्ड साइंसेज के आंकडे बताते हैं कि रेगिस्तान के जहाज कहे जाने वाले इस जानवर की संख्या में बीते दो दशकों में अकेले राजस्थान में 50 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। देश भर में आज सिर्फ पांच लाख ऊंच बचे हैं। फिरौती दुश्मनी, यौन शोषण के अलावा ऊंट दौड़ के लिए 1999-2014 तक 92 लोगों के अपहरण के मामले प्रकाश में आए है। अकेले गुजरात में 70 महिलाओं का अपहरण ऊंट दौड़ में बर्बर इस्तेमाल के लिए किया है। एक आंकडे के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 55 अरब पशु मारे जाते हैं। साडों की लडाई का खेल तमिलनाडु से लेकर स्पेन के पैमप्लोना तक होता है। सैन फर्निन नाम का खेल 15 वीं शताब्दी से वहां खेला जा सकता है। नए साल की शुरुआत कोई खून-खराबे से नहीं करना चाहेगा, लेकिन कोलंबिया में हर साल नये साल पर मौत का खेल होता है। बुल फाइट में चार दिन के अंदर सैकडों लोग घायल होते है।
गाय जैसी जानवर सियासत की खराद पर चढी हुई है। लोकसभा चुनाव में गुलाबी क्रांति जेरे बहस थी। वरह गाय धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की लडाई का हथियार बन गयी है जिसके बारे में पैगंबरे इस्लाम की मशहूर राय है कि अकरमल बकर का इलाहा सैय्यदुल बाहइम, यानी गाय का आदर करो क्योंकि वह चौपायों की सरदार है। भारत के इस्लामिक सेंटर के सदस्य मौलान मुश्ताक ने 14 फरवरी, 2012 को लखनऊ के प्रेस क्लब में कहा था कि नबी ने गोमूत्र पीने की सलाह दी थी, इससे बीमार ठीक हो गया था। अमरीका वैज्ञानिक मैक फार्सत ने 2002 में गोमूत्र का पेटेंट औषधि के रुप में करा लिया था। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक मैरिट क्रम्स्की का शोध यह बताता है कि गाय के दूध को फेंट कर बने क्रीम से एचआईवी से सुरक्षा होती है। 1947 में गाय की संख्या 1 अरब 21 करोड़ थी जो आज घटकर महज 10 करोड़ रह गयी है। जानवरों के अवैध कारोबार, सैक्स संबंधी दवाओं में उपयोग, सजावट और ऋंगार के समान बनाने और नज़रिये में बदलाव ने यह संकट उत्पन्न किया है।
यह संकट तब तक दूर नहीं हो सकता, जब तक हम परंपराओं का लबादा उतार कर फेंकेगे नहीं। क्योंकि परंपराएं हमें कहीं साडों से खेलने का मौका देती हैं, कहीं शेर की छाल पर बैठकर धर्म और आध्यात्म की यात्रा का सबब सिखाती है, कहीं मृगछाला के मार्फत पवित्रता का पैगाम देती हैं कहीं पशुबलि के मार्फत के देवी-देवता के खुश होने की परंपरा परवान चढती दिखती है। इलाकाई, कबीलाई संस्कृति में भले ही पशु-पक्षियो और वनस्पतियों को देवी देवता माना गया हो हमारी संस्कृति में भी हर देवता के साथ एक पशु, पक्षी अथवा वनस्पति जुडी है। वह इसलिए नहीं कि हम उन्हें परंपरा की वेदी पर चढा दें बल्कि इसलिए कि हम उन्हें बचाए रखने के लिए कितना और किस तरह का उत्सर्ग करने को तैयार हैं। आज जब हमने अपने मनोरंजन के अनगिनत साधन विकसित कर लिए हैं। मनुष्य खुद मनुष्य के लिए तमाम जगहों और अवसरों पर मनोरंजन का साधन बन गया है तब तो हमें इन निरीह और बेजुबान जानवरों का इस्तेमाल मनोरंजन और परंपरा के नाम पर करना बंद कर देना चाहिए।
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