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बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 14 Feb 2016 10:59 AM IST
मुख़ालफ़त से मेरे शख्सियत संवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एतहराम करता हूं
बशीर बद्र ने जब ये चंद लाइनें लिखी होंगी तो निःसंदेह उनके सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं रहे होंगे। आज स्वयंसेवक से प्रधानमंत्री तक की यात्रा में नरेंद्र मोदी देश के शीर्ष राजनैतिक मुकाम पर पहुंच गये हैं। मुंबई पर हुए आतंकी हमले का मास्टरमाइंड डेविड कोलमैन हेडली की गवाही में एक खुलासा हुआ है। खुलासा कि वर्ष 2004 में गुजरात पुलिस की मुठभेड़ का शिकार हुई इशरत जहां लश्कर ए तय्यबा की आत्मघाती हमलावर थी। ऐसे में बशीर बद्र की ये लाइनें नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द घूमती दिखती हैं।
15 जून, 2004 को अहमदाबाद में मारी गई इशरत के साथ जावेद गुलाम शेख उर्फ प्रणेश पिल्लई, अमजद अली राणा और जीशान जौहार भी थे। अमजद अली राणा और जीशान जौहार पाकिस्तानी नागरिक थे। उस समय 19 साल की इशरत जहां को नीतीश कुमार ने बिहार की बेटी कहा था। कांग्रेस और धर्मनिरपेक्षता की कथित अलमबरदार ताकतों ने इस पूरी पुलिसिया मुठभेड को फर्जी करार देते हुए इसे बेगुनाहों की हत्या का लबादा ओढ़ा दिया था। वह भी तब जबकि लश्कर ने मुठभेड के बाद लाहौर के अपने मुखपत्र गजवा टाइम्स में इशरत को अपना सदस्य बताया था।
गुजरात पुलिस की कहानी के मुताबिक इशरत अपने साथियों के साथ नरेंद्र मोदी और अक्षरधाम पर आतंकी हमले की माड्यूल थी। नरेंद्र मोदी की हर बात में खोट तलाशने वाले विपक्ष ने गुजरात पुलिस की इस कहानी को बेसिर पैर का करार दिया था। इस मामले की जांच एसआईटी और सीबीआई ने भी की थी। देश की सबसे बड़ी खुफिया एजेंसी इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) ने 2013 में प्रधानमंत्री कार्यालय को इत्तिला दी थी कि उसके पास इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि इशरत लश्कर की आतंकी थी। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि गुजरात पुलिस को इशरत की गतिविधियों की सूचना केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने ही मुहैया कराई थी, पर मोदी की बात का बतंगड़ बनाने वालों ने तफ्तीश के ऐसे मकड़जाल में इसे फंसाया कि सीबीआई और आईबी दोनों आमने-सामने आ गये।
एसआईटी और सीबीआई पाला बदलते दिखने लगे। जब आतंकी हेडली ने भी वकील उज्जवल निकम के सवाल के जवाब में इशरत को लश्कर का आत्मघाती हमलावर बताया तब भी कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें इसे सियासी रंग देने से बाज नहीं आ रही हैं। वह भी तब जब हेडली को 26/11 के आतंकी हमलों की साजिश रचने और आतंकियों को मदद पहुंचाने के आरोप में अमरीका की संघीय अदालत ने 24 जनवरी, 2013 को 35 साल की सजा सुनाते हुए जेल के सीकचों में डाल दिया है। भारत में विशेष न्यायाधीश जी. ए. सानप के सामने हेडली यह कुबूल कर रहा हो कि वह आईएसआई के लिए काम कर रहा है। आईएसआई के कर्नल शाह, लेफ्टिनेंट कर्नल हमजा और मेजर समीर अली के साथ ही सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी अब्दुल रहमान पाशा से भी इस पूरे अभियान में कई बार मिलने की बात स्वीकारी। आतंकी संगठन लश्कर-ए-तय्यबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन को वित्तीय, सैन्य और नैतिक समर्थन  देने के पाकिस्तानी सेना के कई खुलासे किए हों।
हेडली ने खुलासा किया है कि लश्कर-ए-तय्यबा भारत में आतंकी हमलों के लिए जिम्मेदार है। उसके खुलासे से यह तथ्य हाथ लगा कि आईएसआई , पाकिस्तानी सेना  और आतंकियों के बीच नाभि-नाल का रिश्ता है। मुंबई हमले की रणनीति पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और लश्कर ने मिलकर बनाई थी। वर्ष 2007 में मुजफ्फराबाद की एक बैठक में मुंबई, दिल्ली और बंगलुरु पर आतंकी हमले करने की साजिश रची गई। उसमें हेडली का आका साजिद मीर, आईएसआई के अधिकारी और पाकिस्तानी सेना के ब्रिगेडियर भी मौजूद थे।
पाक मूल के अमरीकी आतंकी दाऊद सईद गिलानी से डेविड कोलमैन हेडली बने इस आतंकी ने लश्कर के ट्रेनिंग कैंप में कई महीने गुजारे हैं। गिलानी ने अपनी शुरुआती पढ़ाई पाकिस्तान के हस्सन अब्दल कैडेट कालेज में की थी। मुंबई हमले के समय तक उसके कई सहपाठी पाकिस्तानी सेना में ब्रिगेडियर और जनरल के पदों तक पहुंच गए थे। उसका सौतेला भाई डेनियल गिलानी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी का प्रवक्ता था। उसके पिता प्रसिद्ध राजनयिक और ब्राडकस्टर थे। हेडली की पृष्ठभूमि, अमरीका के संघीय अदालत में दिए गए उसके बयान और वादामाफी गवाह बनने के बाद वीडियो कांफ्रेंसिंग से किए गए उसके कुबूलनामे इस बात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते कि हेडली को ‘वेल-कनेक्ट’ आतंकी न माना जाए। उसे आतंकी संगठनों के लिए काम करने वाला न माना जाए। बावजूद इसके जब हेडली इशरत जहां को फिदायीन बताता है तब भी कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसके खिलाफ खड़ी होने की साजिश करने लगती हैं।
यह साजिश कितनी गहरी है कि इशरत जहां मुठभेड़ की जांच कर रही सीबीआई को दो पेनड्राइव थमाई गईं। इनमें 267 आडियो क्लिप्स थे जिनकी प्रमाणिकता संदिग्ध थी। एक पेनड्राइव में तो जी एस सिंघल और गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह के बीच अगस्त-सितंबर 2009 के मध्य हुई टेलीफोनिक बातचीत की आवाज थी। दूसरी पेनड्राइव में गुजरात के वरिष्ठ अधिकारियों की एक गुप्त बैठक की रिकार्डिंग थी। दो पोर्टलों ने इसे जारी कर सनसनी तो फैला दी पर गिरिश सिंघल और डी.जी. बंजारा सरीखे तमाम अफसरों को जेल की हवा खानी पड़ी। 3 सितंबर, 2013 को बंजारा के नाम एक संदिग्ध पत्र भी मीडिया के पास पहुंचाया गया जिसमें इसका ताना बाना बुना गया कि बंजारा भी गिरीश सिंघल की राह पर चलते हुए वायदा माफ गवाह बन सकते हैं। 4 जुलाई 2013, को लोकसभा चुनाव के ऐन पहले, मुठभेड के 9 साल बाद सीबीआई ने 2500 पेजों का एक आरोप पत्र दाखिल कर दिया।
6 अगस्त, 2009 को अपने पहले हलफनामे में केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इशरत और उसके सभी साथियों को आतंकी बताते हुए मुठभेड़ की सीबीआई जांच का विरोध किया था। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदंबरम के दबाव में हलफनामा बदल दिया गया और 30 सिंतबर, 2009 को गुजरात उच्च न्यायालय को सौंपे अपने दूसरे हलफनामे में इशरत और उसके साथियों के आतंकी होने के पुख्ता सबूत न होने का दावा कर दिया गया। इसी दावे के आधार पर अदालत ने सीबीआई जांच की हरी झंडी दिखा दी। हद तो यह हुई कि सीबीआई ने आईबी के तीन अफसरों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर दी थी। इशरत की मां शमीमा कौसर ने इस मामले की जांच सीबीआई अफसर सतीश वर्मा से कराने की मांग की। आईबी के पूर्व संयुक्त निदेशक राजेंद्र कुमार और सतीश वर्मा के बीच खराब रिश्तों की जानकारी शमीमा कौसर तक निस्संदेह किसी सरकारी अलमबरदार ने ही पहुंचाई होगी।
हालांकि विरोध के बाद सतीश वर्मा को जांच से हटाना पड़ा। इतनी सियासत और जांच एजेंसियों को आमने-सामने खड़ा करके राजनीति कर रही कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने जो गलती इस मुठभेड़ की तफ्तीश के दौरान की थी, वह और उसके पैरोकार आज फिर हेडली के कबूलनामे के बावजूद इशरत को आतंकी नहीं मानकर वही गलती कर रहे हैं। हालांकि अब इशरत का प्रश्न नेपथ्य में है। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर हेडली के कहे पर इशरत को फिदायीन नही माना जाय तो उसके कुबूलनामे से उजागर हुए तथ्य, जो निःसदेह भारत सरकार नए डोजियर के रुप में पाकिस्तान को मुहैया कराएगी, को वह क्यों कुबूल करेगा। पाकिस्तान के पास इस डोजियर के तथ्यों को खारिज करने के हथियार के तौर पर आंतरिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सियासत करने वालों के बेमानी तर्क होंगे। क्योंकि हेडली का कुबूलनामा इस तथ्य को सत्य साबित करता है कि पाकिस्तान को सरकार नहीं आर्मी और आतंकी संचालित करते हैं। आतंकवादी और पाकिस्तानी सेना के बीच नाभि-नाल का रिश्ता है। जब तक यह रिश्ता नहीं खत्म होगा तब तक भारत में आतंकवाद के खात्मे की उम्मीद करना बेमानी होगा। यह तब तक खत्म नहीं होगा जब तक आतंकवाद को धर्म से जोड़कर देखा जाएगा। निःसंदेह आतंक का धर्म नही होता, धर्म हो भी नहीं सकता। लेकिन हमारे देश में तमाम लोग राजनैतिक रोटी सेकने और अपने क्षणिक ख्याति के लिए आतंक को धर्म से जोड़ रहे हैं। डेविड के कुबूल नामे ने ऐसे लोगों को बेपर्दा कर दिया है। बावजूद इसके वे अपनी लत छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि उन्हें धर्म में सियासत की फसल वैसी ही लहलहाती हुई दिखती है जैसे संतों-महंतो को धर्म में अर्थ की फसल। पर धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की जंग में आतंकवाद का समर्थन करने वालों का यह तो सोचना ही चाहिए कि उनका विरोध मोदी को और मजबूत करता है। बशीर बद्र की लाइऩें नरेंद्र मोदी के और करीब चली जाती हैं।


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Dr. Yogesh mishr

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