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माल्या प्रवृति के बहाने...
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते समय यह तर्क दिया था कि बैंक देश के बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ का औजार बने हुए हैं। लेकिन आज शराब व्यवसाय के बादशाह कहे जाने वाले विजय माल्या के संदर्भ में बैंकों के हालात-कर्ज वसूली, नान परफार्मिंग एसेट (एनपीए), नफे-नुकसान पर नज़र डाली जाय तो आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि जिस उद्देश्य को लेकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था वे उद्देश्य़ जाने कब के तिरोहित हो गये।
तकरीबन सभी बैंकों के शेयर पहली बार बुक वैल्यू से नीचे कारोबार कर रहे हैं। एनपीए पिछले वित्तीय वर्ष में 2.67 लाख करोड़ हो चुका है, जो 2014 के 2.16 लाख करोड़ रुपये से 5.43 फीसदी ज्यादा है। चिंताजनक बात यह भी है कि यह आंकडा उससे पिछले साल 4.72 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ा था। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि बीते 13 साल में कारपोरेट समूह को दिए गये कर्ज के 1 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालने पडे। हद तो यह है कि 50 प्रमुख कर्जदारों के 40528 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये वही बैंक हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के दौरान किसानों के 60 हजार करोड़ के कर्ज माफी पर इतना हायतौबा मचाया था कि सरकार को उसकी क्षतिपूर्ति करनी पड़ी थी।
पिछले वित्तीय वर्ष में 236600 करोड़ रुपये के डूबे ऋण में सिर्फ 30590 करोड़ रुपये ही बैंक अब तक वसूले जा सके हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर की माने तो अगर सिर्फ पिछले पांच साल के डूबे ऋण को वसूल लिया जाय तो इस रकम से 15 लाख सबसे गरीब बच्चों को देश के सबसे अमीर प्राइवेट विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा दिलाई जा सकती है। बैंकों ने रिलायंस एडीजी को 1.14 लाख करोड़, एस्सार ग्रुप को 1.01 लाख करोड़, मेदांता ग्रुप को 79433 करोड़, अडानी ग्रुप को 74900 करोड़, जे पी समूह को 61285 करोड़, जेएसडब्ल्यू ग्रुप को 56000 करोड़, विडियोकान समूह को 45000 करोड़, लैंको समूह को 40000 करोड़ बतौर कर्ज दे रखा है। इनमें दो तीन औद्योगिक समूहों को छोड़ दें तो सबकी हालत ऐसी है कि ये लोग चार्वक के दर्शन के तहत- यावत जिवेत सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतम पिवेत- की फिलासफी पर अमल करते हुए न केवल अपना औद्योगिक घराना बढ़ा रहे हैं बल्कि एशो आराम की जिंदगी भी बसर कर रहे है। इसकी पुष्टि विजय माल्या की लाइफ स्टाइल से की जा सकती है। आम भारतीयों में उनकी पहचान करीब-करीब दिगंबर कैलंडरों के निर्माता के तौर पर ही है।
न्यूड कलाकारी की जीती जागती मिसाल पेश करने वाले विजय माल्या 9 हजार करोड़ रुपये से अधिक की चपत लगाकर देश छोडने में कामयाब हो गये। विजय माल्या के देश छोडने के तौर-तरीके, उनको सेफ पैसेज देने की सीबीआई की रीति-नीति और उन्हें माननीय बनाने की राजनैतिक दलों की कारगुजारियां यह चुगली करती हैं कि कहावत के मौसरे भाइयों की मिसाल यूं ही नहीं दी जाती।
250 गाड़ियों की फ्लीट के स्वामी विजय माल्या ने शायद ही अपनी कोई हसरत होगी जो कर्ज के पैसे से पूरी न कर ली हो। वह जितना रुपया बैंकों का गटक कर गये हैं, उसमें 10 हजार रुपये प्रति शौचालय वाले 90 लाख शौचालय तैयार किए जा सकते थे। दो लेन वाली 2000 किलोमीटर सड़क बिछाई जा सकती थी। 200 बिस्तर वाले 45 अस्पताल खोले जा सकते थे। पर बैंकों की धनराशि इस पर काम आने की जगह विजय माल्या के सपनों में रंग भरने में काम आयी। तभी तो वह 750 करोड़ रुपये में मंटो कार्लो द्वीप खरीदने में कामयाब हुए। दक्षिण अफ्रीका में 12000 हेक्टेयर में माबुला गेम लाज खड़ा किया, स्काटलैंड में महल, मैनहट्टन में अकूत संपत्तियां, लंदन में हर्टफोर्डशायर के निकट टाइविन गांव में 30 एकड़ क्षेत्रफल में पसरा लेडी वाक नाम का विशाल फार्म हाउस खरीद लिया। पर इस बेलगाम शाहखर्ची, रंगीन फितरत, चकाचौंध भरी जीवन शैली की चमक ने बैंकों की आंख पर पट्टी बांध दी।
खुद को किसान प्रधानमंत्री कहने वाले एच डी देवगौडा ने अपनी पार्टी के मार्फत उन्हें माननीय बनाया। एक बार कांग्रेस ने भी उन्हें उच्च सदन की कुर्सी पर बिठाया। माल्या की आमद रफ्त भाजपा में भी कम नहीं है। माल्या के जेट में हर राजनैतिक दल के चेहरों को हंसते खिलखिलाते देखा गया है। इसके साथ हद तो यह है कि माल्या ने अपने इसी उधार के पैसे से राजनीति के प्यादे से बादशाह तक की मंजिल तय करने का मन भी बनाया था। माल्या ने वर्ष 2000 में सुब्रह्मणयम् स्वामी को उनकी पार्टी जनता पार्टी जेपी के अध्यक्ष पद से ही अपदस्थ कर ख़ुद ही अध्यक्ष बनने का दुस्साहस कर दिखाया था। जनता दल से अलग होकर बनी इस पार्टी ने कर्नाटक राज्य में विधानसभा की सभी 224 सीटों पर चुनाव भी लड़ा था। इसी उधार के पैसे को उन्होंने अपने राजनैतिक अभियान में पानी की तरह बहाया पर उनकी पार्टी एक भी सीट पर जीत हासिल नही कर सकी और माल्या फिर से बिजनेसमैन के चोले में लौट गए।
लेकिन आज जब विजय माल्या तमाम खुफिया और जांच एजेंसियों को धता बताकर देश छोड़ने मे कामयाब हो गये हैं, तब यह जेरे बहस है कि आखिर उस विजय माल्या के हाथ इतने लंबे कैसे हो गये जो अपने ही जीवन काल में दिल्ली के कनाट प्लेस के एक व्यापारी के यहां क्लीरिंग एजेंट था, हालांकि इनके पिता एक उद्योगपति थे। माल्या के उत्कर्ष की कथा तमाम ऐसे रहस्य खोलती है जिसमें कई चेहरे बेनकाब होते है। शायद यही वजह है कि जो कांग्रेस कभी माल्या की मददगार थी, वह उनके विदेश चले जाने पर नरेंद्र मोदी सरकार को घेरती है। हद तो यह है कि मोदी के कबीना मंत्री विजय माल्या के उडन छू होने को ओटावियो क्वात्रोची और वारेन एंडरसन के देश छोड़कर चले जाने के वाकये से जोड़ते नज़र आते हैं। इस बहाने वह कांग्रेस को यह बता रहे होते है कि विजय माल्या का देश छोड़कर जाना कोई नई और अनहोनी घटना नहीं है। लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को जनता ने कांग्रेस मुक्त भारत इसलिए सौंपा है क्योंकि कांग्रेस के कालखंड की वारदातें दोहराई न जायें। पर, यहां तो अपनी एक आंख गंवाकर दूसरे की दोनों आंख को रोशनी चले जाने के वरदान पर खुश हुआ जा रहा है। क्या एंडरसन और क्वात्रोची ललित मोदी और विजय माल्या की बराबरी कर लेते हैं। क्या जनता को इस सरकार को कांग्रेस की समानता के लिए चुना था।
क्या 17 बैंकों मे ऐसे लोग काबिज हैं, जो विजय माल्या की प्रवृति और प्रकृति को हवा देने का काम कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि बैंकिग प्रणाली के बुनियादी तकाजों, एहतियातों को दरकिनार कर ब्रांड वैल्यू के आधार पर बैंक दर बैंक माल्या के लिए अपनी तिजोरी खोलते चले गये। वसूली न्यायाधिकरण, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई विजय माल्या सरीखे कर्जदारों पर शिकंजा कसने की जगह उन्हें सेफ पैसेज देने की भूमिका में नज़र आने लगी, तभी तो पिछले पांच साल में डूबत ऋण में पांच गुना का इजाफा हो गया। वर्ष 2011 में 27 अरब डालर का डूबत ऋण था, जो 2015 में 137 अरब डालर हो गया। बैंकों की मेहरबानी एनपीए के नजरिए से देखी जाय तो सिर्फ यह 2897 लोगों पर ही है। 30 रसूखदार लोगों पर 90 हजार करोड़ रुपये से अधिक डूबत कर्ज है।
भारतीय रिजर्व बैंक की फाइनैंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि 4,43,691 करोड़ की राशि डूबत कर्ज में समा रही है। इसका 70 फीसदी हिस्सा कंपनियों के मद में है। 10 बड़ी कंपनियों के पास बैंकों का 7.32 लाख करोड़ रुपया फंसा हुआ है। बैंक इन स्थितियों से तब तक निजात नहीं पा सकते जब तक उनकी स्वयात्ता वास्तविक नहीं होगी। अभी बैंकों की स्वायत्ता आभासी है। बैंकों के कामकाज में सरकार का दखल उनकी योजनाओं के लिए ऋण बांटने से लेकर उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस कदर है कि राजनेता, व्यावसायिक घरानों और बैंकों का गठजोड़ बन गया है। यही वजह है कि 50-60 हजार का कर्ज न लौटाने वालों के नाम चौराहों पर चस्पा होते हैं और बड़े औद्योगिक घरानों के बकाये की सूची सर्वोच्च अदालत को मांगनी पड़ती है। जब तक यह मनोवृत्ति खत्म नहीं होती तब तक विजय माल्या के बनने और पनपने का सिलसिला जारी रहेगा। क्योंकि माल्या एक व्यक्ति नहीं बल्कि प्रकृति और प्रवृति है।
तकरीबन सभी बैंकों के शेयर पहली बार बुक वैल्यू से नीचे कारोबार कर रहे हैं। एनपीए पिछले वित्तीय वर्ष में 2.67 लाख करोड़ हो चुका है, जो 2014 के 2.16 लाख करोड़ रुपये से 5.43 फीसदी ज्यादा है। चिंताजनक बात यह भी है कि यह आंकडा उससे पिछले साल 4.72 फीसदी की रफ्तार से आगे बढ़ा था। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि बीते 13 साल में कारपोरेट समूह को दिए गये कर्ज के 1 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालने पडे। हद तो यह है कि 50 प्रमुख कर्जदारों के 40528 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डालने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये वही बैंक हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के दौरान किसानों के 60 हजार करोड़ के कर्ज माफी पर इतना हायतौबा मचाया था कि सरकार को उसकी क्षतिपूर्ति करनी पड़ी थी।
पिछले वित्तीय वर्ष में 236600 करोड़ रुपये के डूबे ऋण में सिर्फ 30590 करोड़ रुपये ही बैंक अब तक वसूले जा सके हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर की माने तो अगर सिर्फ पिछले पांच साल के डूबे ऋण को वसूल लिया जाय तो इस रकम से 15 लाख सबसे गरीब बच्चों को देश के सबसे अमीर प्राइवेट विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा दिलाई जा सकती है। बैंकों ने रिलायंस एडीजी को 1.14 लाख करोड़, एस्सार ग्रुप को 1.01 लाख करोड़, मेदांता ग्रुप को 79433 करोड़, अडानी ग्रुप को 74900 करोड़, जे पी समूह को 61285 करोड़, जेएसडब्ल्यू ग्रुप को 56000 करोड़, विडियोकान समूह को 45000 करोड़, लैंको समूह को 40000 करोड़ बतौर कर्ज दे रखा है। इनमें दो तीन औद्योगिक समूहों को छोड़ दें तो सबकी हालत ऐसी है कि ये लोग चार्वक के दर्शन के तहत- यावत जिवेत सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतम पिवेत- की फिलासफी पर अमल करते हुए न केवल अपना औद्योगिक घराना बढ़ा रहे हैं बल्कि एशो आराम की जिंदगी भी बसर कर रहे है। इसकी पुष्टि विजय माल्या की लाइफ स्टाइल से की जा सकती है। आम भारतीयों में उनकी पहचान करीब-करीब दिगंबर कैलंडरों के निर्माता के तौर पर ही है।
न्यूड कलाकारी की जीती जागती मिसाल पेश करने वाले विजय माल्या 9 हजार करोड़ रुपये से अधिक की चपत लगाकर देश छोडने में कामयाब हो गये। विजय माल्या के देश छोडने के तौर-तरीके, उनको सेफ पैसेज देने की सीबीआई की रीति-नीति और उन्हें माननीय बनाने की राजनैतिक दलों की कारगुजारियां यह चुगली करती हैं कि कहावत के मौसरे भाइयों की मिसाल यूं ही नहीं दी जाती।
250 गाड़ियों की फ्लीट के स्वामी विजय माल्या ने शायद ही अपनी कोई हसरत होगी जो कर्ज के पैसे से पूरी न कर ली हो। वह जितना रुपया बैंकों का गटक कर गये हैं, उसमें 10 हजार रुपये प्रति शौचालय वाले 90 लाख शौचालय तैयार किए जा सकते थे। दो लेन वाली 2000 किलोमीटर सड़क बिछाई जा सकती थी। 200 बिस्तर वाले 45 अस्पताल खोले जा सकते थे। पर बैंकों की धनराशि इस पर काम आने की जगह विजय माल्या के सपनों में रंग भरने में काम आयी। तभी तो वह 750 करोड़ रुपये में मंटो कार्लो द्वीप खरीदने में कामयाब हुए। दक्षिण अफ्रीका में 12000 हेक्टेयर में माबुला गेम लाज खड़ा किया, स्काटलैंड में महल, मैनहट्टन में अकूत संपत्तियां, लंदन में हर्टफोर्डशायर के निकट टाइविन गांव में 30 एकड़ क्षेत्रफल में पसरा लेडी वाक नाम का विशाल फार्म हाउस खरीद लिया। पर इस बेलगाम शाहखर्ची, रंगीन फितरत, चकाचौंध भरी जीवन शैली की चमक ने बैंकों की आंख पर पट्टी बांध दी।
खुद को किसान प्रधानमंत्री कहने वाले एच डी देवगौडा ने अपनी पार्टी के मार्फत उन्हें माननीय बनाया। एक बार कांग्रेस ने भी उन्हें उच्च सदन की कुर्सी पर बिठाया। माल्या की आमद रफ्त भाजपा में भी कम नहीं है। माल्या के जेट में हर राजनैतिक दल के चेहरों को हंसते खिलखिलाते देखा गया है। इसके साथ हद तो यह है कि माल्या ने अपने इसी उधार के पैसे से राजनीति के प्यादे से बादशाह तक की मंजिल तय करने का मन भी बनाया था। माल्या ने वर्ष 2000 में सुब्रह्मणयम् स्वामी को उनकी पार्टी जनता पार्टी जेपी के अध्यक्ष पद से ही अपदस्थ कर ख़ुद ही अध्यक्ष बनने का दुस्साहस कर दिखाया था। जनता दल से अलग होकर बनी इस पार्टी ने कर्नाटक राज्य में विधानसभा की सभी 224 सीटों पर चुनाव भी लड़ा था। इसी उधार के पैसे को उन्होंने अपने राजनैतिक अभियान में पानी की तरह बहाया पर उनकी पार्टी एक भी सीट पर जीत हासिल नही कर सकी और माल्या फिर से बिजनेसमैन के चोले में लौट गए।
लेकिन आज जब विजय माल्या तमाम खुफिया और जांच एजेंसियों को धता बताकर देश छोड़ने मे कामयाब हो गये हैं, तब यह जेरे बहस है कि आखिर उस विजय माल्या के हाथ इतने लंबे कैसे हो गये जो अपने ही जीवन काल में दिल्ली के कनाट प्लेस के एक व्यापारी के यहां क्लीरिंग एजेंट था, हालांकि इनके पिता एक उद्योगपति थे। माल्या के उत्कर्ष की कथा तमाम ऐसे रहस्य खोलती है जिसमें कई चेहरे बेनकाब होते है। शायद यही वजह है कि जो कांग्रेस कभी माल्या की मददगार थी, वह उनके विदेश चले जाने पर नरेंद्र मोदी सरकार को घेरती है। हद तो यह है कि मोदी के कबीना मंत्री विजय माल्या के उडन छू होने को ओटावियो क्वात्रोची और वारेन एंडरसन के देश छोड़कर चले जाने के वाकये से जोड़ते नज़र आते हैं। इस बहाने वह कांग्रेस को यह बता रहे होते है कि विजय माल्या का देश छोड़कर जाना कोई नई और अनहोनी घटना नहीं है। लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को जनता ने कांग्रेस मुक्त भारत इसलिए सौंपा है क्योंकि कांग्रेस के कालखंड की वारदातें दोहराई न जायें। पर, यहां तो अपनी एक आंख गंवाकर दूसरे की दोनों आंख को रोशनी चले जाने के वरदान पर खुश हुआ जा रहा है। क्या एंडरसन और क्वात्रोची ललित मोदी और विजय माल्या की बराबरी कर लेते हैं। क्या जनता को इस सरकार को कांग्रेस की समानता के लिए चुना था।
क्या 17 बैंकों मे ऐसे लोग काबिज हैं, जो विजय माल्या की प्रवृति और प्रकृति को हवा देने का काम कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि बैंकिग प्रणाली के बुनियादी तकाजों, एहतियातों को दरकिनार कर ब्रांड वैल्यू के आधार पर बैंक दर बैंक माल्या के लिए अपनी तिजोरी खोलते चले गये। वसूली न्यायाधिकरण, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई विजय माल्या सरीखे कर्जदारों पर शिकंजा कसने की जगह उन्हें सेफ पैसेज देने की भूमिका में नज़र आने लगी, तभी तो पिछले पांच साल में डूबत ऋण में पांच गुना का इजाफा हो गया। वर्ष 2011 में 27 अरब डालर का डूबत ऋण था, जो 2015 में 137 अरब डालर हो गया। बैंकों की मेहरबानी एनपीए के नजरिए से देखी जाय तो सिर्फ यह 2897 लोगों पर ही है। 30 रसूखदार लोगों पर 90 हजार करोड़ रुपये से अधिक डूबत कर्ज है।
भारतीय रिजर्व बैंक की फाइनैंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि 4,43,691 करोड़ की राशि डूबत कर्ज में समा रही है। इसका 70 फीसदी हिस्सा कंपनियों के मद में है। 10 बड़ी कंपनियों के पास बैंकों का 7.32 लाख करोड़ रुपया फंसा हुआ है। बैंक इन स्थितियों से तब तक निजात नहीं पा सकते जब तक उनकी स्वयात्ता वास्तविक नहीं होगी। अभी बैंकों की स्वायत्ता आभासी है। बैंकों के कामकाज में सरकार का दखल उनकी योजनाओं के लिए ऋण बांटने से लेकर उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इस कदर है कि राजनेता, व्यावसायिक घरानों और बैंकों का गठजोड़ बन गया है। यही वजह है कि 50-60 हजार का कर्ज न लौटाने वालों के नाम चौराहों पर चस्पा होते हैं और बड़े औद्योगिक घरानों के बकाये की सूची सर्वोच्च अदालत को मांगनी पड़ती है। जब तक यह मनोवृत्ति खत्म नहीं होती तब तक विजय माल्या के बनने और पनपने का सिलसिला जारी रहेगा। क्योंकि माल्या एक व्यक्ति नहीं बल्कि प्रकृति और प्रवृति है।
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