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मत बांधिए अंबेडकर को...
एक समय किसी भी महापुरुष को याद करने अथवा उसको श्रद्धांजलि देने का सच्चा मार्ग यह होता था कि हम कुछ साल, कुछ महीने, कुछ दिन, कुछ क्षण ही सही, उसके आदर्शों पर चलें। लेकिन इस बार जिस तरह भारत रत्न डा भीमराव अंबेडकर को उनकी 125 वीं जयंती पर श्रद्धांजलि देने अथवा उन्हें याद करने का चलन दिखा उससे पुरानी प्रचलित मान्यता टूटी। हर सियासी दल अंबेडकर को इस कदर याद कर रहा था मानो सच्चा अंबेडकरवादी वही हो। वही उनका असली उत्तराधिकारी है। प्रशंसा, इस हद तक गई कि हर नेता दूसरे को झूठा कहने लगा। नेताओं की बातों में सच्चाई कम ढोंग ज्यादा नज़र आने लगा। यह भी सवाल उठने लगा कि कहीं अंबेडकर को याद करने की वजह में इसी साल पांच राज्यों के चुनाव तो नहीं हैं।
मतलब साफ है कि हमारे राजनेताओं को अंबेडकर में वोट नज़र आने लगा है। अंबेडकर समर्थक और दलितों के लिए भले ही यह राहत देने वाली बात हो कि चारो तरफ हर सियासी दल में अंबेडकर के सामने नतमस्तक होने का चलन तेज हो चला है पर रंगीन कैलेंडर के दूसरे पार्श्व को देखने वालों के लिए यह उतना सुखद नही है। क्योंकि जो भी राजनेता अंबेडकर को अपने पाले में खड़ा कर रहे थे उनकी अपनी कहीं न कहीं सरकार जरुर रही है। कांग्रेस ने तो तकरीबन 6 दशक राज किया है। बावजूद इसके भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न देने का काम वह नहीं कर पाई। जनता दल के शासनकल में यह कार्य विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया। वह भी तब जब कांग्रेस पार्टी ने इसी ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य गोविंद वल्लभ पंत को 1957 में भी भारत रत्न से नवाज दिया गया था। डा अंबेडकर इसी ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष थे। उनके साथ 8 लोग बतौर सदस्य इस कमेटी के लिए काम कर रहे थे। इतना ही नहीं जब 1952 में अंबेडकर ने पहले लोकसभा चुनाव में बम्बई उत्तरी से अपना पर्चा भरा तो कांग्रेस ने उनके ही सहयोगी रहे नारायण कईरोलकर को उनके सामने उतार दिया। कईरोलकर ने अंबेडकर को 15 हजार वोटों से हरा दिया था।
389 सदस्यों वाली संविधान सभा के निर्वाचित अध्यक्ष डा राजेंद्र प्रसाद थे। लेकिन हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि डा अंबेडकर ने संविधान बनाया था। मेरा आशय डा अंबेडकर के कद या काम को कम करना नहीं है बल्कि यह उद्घाटित करना है कि डा अंबेडकर को लेकर हमारे राजनेताओं का नजरिया कैसा है। क्योंकि उन्हें ड्राफ्ट कमेटी का चेयरमैन कहकर वे सारे श्रेय दिए जा सकते हैं जो उन्हें संविधान सभा का चेयरमैन कहकर दिए जाते हैं। अंबेडकर का योगदान इसके अलावा भारतीय रिजर्व बैंक की कल्पना और वित्त आयोग के गठन में भी अविस्मरणीय रहा है। तिरंगे में अशोक चक्र को रखने, रोजगार दफ्तरों की स्थापना, मजदूरी के घंटे 14 से 8 करने के साथ ही साथ जल और ऊर्जा नीति के अंबेडकर शिल्पकार भी हैं वहीं विदेशी नीति के दूरदृष्टा की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले चीन की स्थाई सदस्यता की नेहरु की नीति का विरोध भी अंबेडकर ने किया था। आज बिजली के पारेषण के लिए सर्वथा उपयोगी ग्रिड का विचार भी अंबेडकर की दूरदर्शिता का ही परिणाम है। लेकिन हमारे नेता अंबेडकर को संविधान से अलग उनकी अन्य प्रतिभाओं को लेकर प्रचारित प्रसारित नहीं करते है। उन्हें खांचे से बाहर आने नहीं देना चाहते।
इस सच्चाई से आंख नहीं मूंदी जा सकती कि 2 साल 11 महीने 18 दिन में तैयार भारतीय संविधान मं संसदीय प्रणाली इंग्लैंड से, नीति-निर्देशक तत्व आयरिश संविधान से, संघीय व्यवस्था कनाडा से, समवर्ती सूची ऑस्ट्रेलिया से, मौलिक कर्तव्य रुस के संविधान से, ‘कानून के समक्ष समान संरक्षण’ वाक्य और सर्वोच्च न्यायालय की व्यस्था संयुक्त राज्य अमेरिका से, भारीतय संविधान की संशोधन प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से, भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ जर्मनी के वीमार संविधान से, संविधान में ‘कानून द्वारा स्थापित’ शब्दावली संयुक्त राज्य अमेरिका से और यहां तक कि प्रस्तावना की भाषा भी ऑस्ट्रेलिया से ली गयी है। इस संविधान में अब तक 100 संशोधन किए जा चुके हैं। ऐसे में सिर्फ संविधान निर्माण तक अंबेडकर को बांधते हुए उनके आगे नतमस्तक होना सियासी साजिश है।
डा अंबेडकर का प्रतीक के रुप में हर राजनैतिक दल के लिए अपनाने की अनिवार्यता को दलित सत्ता के शक्तिशाली होने से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। कांग्रेस कभी भी दलित प्रतीक के रुप जगजीवन राम से नीचे नहीं उतर पाई। उन्हें उनकी आईएफएस बेटी मीराकुमार में दलित नज़र आता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह रामविलास पासवान में दलित प्रतीक ढ़ूंढते रहे। भाजपा को दलित प्रतीक के लिए सहभोज से शुरुआत कर बंगारू लक्ष्मण को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की यात्रा तय करनी पड़ी। हालांकि बाद में खुद को और दलित हितैषी बताने के लिए अंबेडकर के कभी राजनैतिक हमसफर रहे संघप्रिय गौतम को लेकर आये।
कांशीराम ने भले ही पंजाब से दलितों की सियासत की यात्रा शुरु की हो पर उसे खाद पानी उत्तर प्रदेश में मिला। लेकिन यहां उन्होंने जो अपना उत्तराधिकारी मायावती के रुप में दिया उनके चार मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में दलितों की दशा और दिशा में जमीनी स्तर पर कोई सुधार नहीं हुआ। मुलायम सिंह यादव ने यादवों की सममाजिक,राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में ऐसा बदलाव किया है कि अगर कोई भी व्यक्ति छोटे से बड़े आयोजन करे तो उसे सेलेब्रिटी की सूची में किसी न किसी यादव का नाम डालना ही पडेगा। जबकि दलितों के सवाल पर मायावती यह करने में कामयाब नहीं हुईं।
मायावती ही क्यों दलितों की सियासत करने वाले राजनेताओं ने अपनी जाति के लोगों से राजनीति के अलावा हर क्षेत्र में एक दूरी बनाकर रखी। समाजिक रीति रिवाज में भी यह अपनी बिरादरी के अस्पृश्य, उपेक्षित और गरीब लोगों से बराबरी से नहीं मिले। जब भी मिले तो मतलब से मिले। यही वजह है कि दलितों की दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ। दलित हमेशा सियासती चौसर की गोटियां बनकर रह गये। यही वजह है कि अंबेडकर के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए कोई नहीं आ रहा है। अंबेडकर को रास्ता बनाकर सत्ता प्राप्ति की कोशिश की जा रही है। अंबेडकरवादी इसे गांधी और अंबेडकर के बीच संघर्ष के मार्फत करते हैं तो गैर-अंबेडकरवादी अंबेडकर के प्रति समयानुकूल श्रद्धाभाव के मार्फत करते हैं।
हकीकत यह है कि अंबेडकर की प्रतिभा को महात्मा गांधी ने ही पहचाना था। उन्होंने ही उन्हें संविधान सभा में लेने के लिए कहा था, गांधी की सलाह पर ही वह नेहरू के मंत्रिमंडल में विधिमंत्री बनाए गये थे। बम्बई उत्तरी से जब वे लोकसभा चुनाव हार गये तो उन्हें मनोनीत कर राज्यसभा भेजा गया था। मोहम्मद अली जिन्ना और डा अंबेडकर ही ऐसे दो लोग थे जो मोहनदास करमचंद गांधी को मिस्टर गांधी कहकर पुकारते थे। गांधी ने जिन्ना पर खूब हमले किए लेकिन अंबेडकर को लेकर उनका नज़रिया वैसा नहीं था। अंबेडकर की सलाह पर ही गांधी ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता के लिए यह शर्त अनिवार्य की थी कि हर कांग्रेसी को यह शपथ लेना पड़ता था कि वह किसी को अछूत नहीं समझेगा। गांधी और अंबेडकर के बीच विवाद का सबब यह था कि अंबेडकर जाति प्रथा और अस्पृश्यता के सवाल को आजादी से पहले हल करना चाहते थे जबकि गांधी नहीं।
अंबेडकरवादियों ने गांधी और अंबेडकर को आमने सामने खडा कर लिया है। गैर अंबेडकरवादियों ने अब अंबेडकर को अपने सामने खड़ा कर लिया है जिससे दलित वोट बैंक को उनके चेहरे पर अंबेडकर का मुखौटा नज़र आए। अंबेडकर के प्रति श्रद्धा प्रदर्शन की यह होड़ असली दलित मुद्दों से दूर कर रही है। दलितों की दशा और दिशा में इसीलिए कोई सुधार नहीं हो रहा है। दलितों का आरक्षण सिर्फ 4 फीसदी सम्पन्न दलितों तक सिमट कर रह गया है। जब कोई इसके विस्तार की बात करता है तो चार फीसदी लोग इसे दलित अस्मिता का सवाल बना देते हैं। दलित हितों पर चर्चा अब वैसे ही फैशन बन गयी है जैसे पांच सितारा होटल में बोतलबंद पानी सजाकर पानी के संकट पर चर्चा की जाती है।
अंबेडकर के संदेशों को छोड़कर अंबेडकर को अपनाने की होड़ इसी का विस्तार है। इस विस्तार से बचने की जरुरत है। अंबेडकरवादियों को भी , गैर अंबेडकरवादियों को भी। डॉ अंबेडकर की बात करने वालों को अपने गिरेबां मे झांककर यह देखना होगा कि पिछले सालों में उन्होंने कितने दलितों को गले लगाया, कितने दलितों को दशा सुधारी, उनकी सरकार रहते दलितों का कितना भला हुआ। दलित मतलब 29 राज्यों में फैली 1108 अनुसूचित जातियां हैं या फिर मुट्ठी भर लोग और चेहरे
मतलब साफ है कि हमारे राजनेताओं को अंबेडकर में वोट नज़र आने लगा है। अंबेडकर समर्थक और दलितों के लिए भले ही यह राहत देने वाली बात हो कि चारो तरफ हर सियासी दल में अंबेडकर के सामने नतमस्तक होने का चलन तेज हो चला है पर रंगीन कैलेंडर के दूसरे पार्श्व को देखने वालों के लिए यह उतना सुखद नही है। क्योंकि जो भी राजनेता अंबेडकर को अपने पाले में खड़ा कर रहे थे उनकी अपनी कहीं न कहीं सरकार जरुर रही है। कांग्रेस ने तो तकरीबन 6 दशक राज किया है। बावजूद इसके भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न देने का काम वह नहीं कर पाई। जनता दल के शासनकल में यह कार्य विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया। वह भी तब जब कांग्रेस पार्टी ने इसी ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य गोविंद वल्लभ पंत को 1957 में भी भारत रत्न से नवाज दिया गया था। डा अंबेडकर इसी ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष थे। उनके साथ 8 लोग बतौर सदस्य इस कमेटी के लिए काम कर रहे थे। इतना ही नहीं जब 1952 में अंबेडकर ने पहले लोकसभा चुनाव में बम्बई उत्तरी से अपना पर्चा भरा तो कांग्रेस ने उनके ही सहयोगी रहे नारायण कईरोलकर को उनके सामने उतार दिया। कईरोलकर ने अंबेडकर को 15 हजार वोटों से हरा दिया था।
389 सदस्यों वाली संविधान सभा के निर्वाचित अध्यक्ष डा राजेंद्र प्रसाद थे। लेकिन हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि डा अंबेडकर ने संविधान बनाया था। मेरा आशय डा अंबेडकर के कद या काम को कम करना नहीं है बल्कि यह उद्घाटित करना है कि डा अंबेडकर को लेकर हमारे राजनेताओं का नजरिया कैसा है। क्योंकि उन्हें ड्राफ्ट कमेटी का चेयरमैन कहकर वे सारे श्रेय दिए जा सकते हैं जो उन्हें संविधान सभा का चेयरमैन कहकर दिए जाते हैं। अंबेडकर का योगदान इसके अलावा भारतीय रिजर्व बैंक की कल्पना और वित्त आयोग के गठन में भी अविस्मरणीय रहा है। तिरंगे में अशोक चक्र को रखने, रोजगार दफ्तरों की स्थापना, मजदूरी के घंटे 14 से 8 करने के साथ ही साथ जल और ऊर्जा नीति के अंबेडकर शिल्पकार भी हैं वहीं विदेशी नीति के दूरदृष्टा की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले चीन की स्थाई सदस्यता की नेहरु की नीति का विरोध भी अंबेडकर ने किया था। आज बिजली के पारेषण के लिए सर्वथा उपयोगी ग्रिड का विचार भी अंबेडकर की दूरदर्शिता का ही परिणाम है। लेकिन हमारे नेता अंबेडकर को संविधान से अलग उनकी अन्य प्रतिभाओं को लेकर प्रचारित प्रसारित नहीं करते है। उन्हें खांचे से बाहर आने नहीं देना चाहते।
इस सच्चाई से आंख नहीं मूंदी जा सकती कि 2 साल 11 महीने 18 दिन में तैयार भारतीय संविधान मं संसदीय प्रणाली इंग्लैंड से, नीति-निर्देशक तत्व आयरिश संविधान से, संघीय व्यवस्था कनाडा से, समवर्ती सूची ऑस्ट्रेलिया से, मौलिक कर्तव्य रुस के संविधान से, ‘कानून के समक्ष समान संरक्षण’ वाक्य और सर्वोच्च न्यायालय की व्यस्था संयुक्त राज्य अमेरिका से, भारीतय संविधान की संशोधन प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से, भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ जर्मनी के वीमार संविधान से, संविधान में ‘कानून द्वारा स्थापित’ शब्दावली संयुक्त राज्य अमेरिका से और यहां तक कि प्रस्तावना की भाषा भी ऑस्ट्रेलिया से ली गयी है। इस संविधान में अब तक 100 संशोधन किए जा चुके हैं। ऐसे में सिर्फ संविधान निर्माण तक अंबेडकर को बांधते हुए उनके आगे नतमस्तक होना सियासी साजिश है।
डा अंबेडकर का प्रतीक के रुप में हर राजनैतिक दल के लिए अपनाने की अनिवार्यता को दलित सत्ता के शक्तिशाली होने से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। कांग्रेस कभी भी दलित प्रतीक के रुप जगजीवन राम से नीचे नहीं उतर पाई। उन्हें उनकी आईएफएस बेटी मीराकुमार में दलित नज़र आता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह रामविलास पासवान में दलित प्रतीक ढ़ूंढते रहे। भाजपा को दलित प्रतीक के लिए सहभोज से शुरुआत कर बंगारू लक्ष्मण को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की यात्रा तय करनी पड़ी। हालांकि बाद में खुद को और दलित हितैषी बताने के लिए अंबेडकर के कभी राजनैतिक हमसफर रहे संघप्रिय गौतम को लेकर आये।
कांशीराम ने भले ही पंजाब से दलितों की सियासत की यात्रा शुरु की हो पर उसे खाद पानी उत्तर प्रदेश में मिला। लेकिन यहां उन्होंने जो अपना उत्तराधिकारी मायावती के रुप में दिया उनके चार मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में दलितों की दशा और दिशा में जमीनी स्तर पर कोई सुधार नहीं हुआ। मुलायम सिंह यादव ने यादवों की सममाजिक,राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में ऐसा बदलाव किया है कि अगर कोई भी व्यक्ति छोटे से बड़े आयोजन करे तो उसे सेलेब्रिटी की सूची में किसी न किसी यादव का नाम डालना ही पडेगा। जबकि दलितों के सवाल पर मायावती यह करने में कामयाब नहीं हुईं।
मायावती ही क्यों दलितों की सियासत करने वाले राजनेताओं ने अपनी जाति के लोगों से राजनीति के अलावा हर क्षेत्र में एक दूरी बनाकर रखी। समाजिक रीति रिवाज में भी यह अपनी बिरादरी के अस्पृश्य, उपेक्षित और गरीब लोगों से बराबरी से नहीं मिले। जब भी मिले तो मतलब से मिले। यही वजह है कि दलितों की दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ। दलित हमेशा सियासती चौसर की गोटियां बनकर रह गये। यही वजह है कि अंबेडकर के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए कोई नहीं आ रहा है। अंबेडकर को रास्ता बनाकर सत्ता प्राप्ति की कोशिश की जा रही है। अंबेडकरवादी इसे गांधी और अंबेडकर के बीच संघर्ष के मार्फत करते हैं तो गैर-अंबेडकरवादी अंबेडकर के प्रति समयानुकूल श्रद्धाभाव के मार्फत करते हैं।
हकीकत यह है कि अंबेडकर की प्रतिभा को महात्मा गांधी ने ही पहचाना था। उन्होंने ही उन्हें संविधान सभा में लेने के लिए कहा था, गांधी की सलाह पर ही वह नेहरू के मंत्रिमंडल में विधिमंत्री बनाए गये थे। बम्बई उत्तरी से जब वे लोकसभा चुनाव हार गये तो उन्हें मनोनीत कर राज्यसभा भेजा गया था। मोहम्मद अली जिन्ना और डा अंबेडकर ही ऐसे दो लोग थे जो मोहनदास करमचंद गांधी को मिस्टर गांधी कहकर पुकारते थे। गांधी ने जिन्ना पर खूब हमले किए लेकिन अंबेडकर को लेकर उनका नज़रिया वैसा नहीं था। अंबेडकर की सलाह पर ही गांधी ने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता के लिए यह शर्त अनिवार्य की थी कि हर कांग्रेसी को यह शपथ लेना पड़ता था कि वह किसी को अछूत नहीं समझेगा। गांधी और अंबेडकर के बीच विवाद का सबब यह था कि अंबेडकर जाति प्रथा और अस्पृश्यता के सवाल को आजादी से पहले हल करना चाहते थे जबकि गांधी नहीं।
अंबेडकरवादियों ने गांधी और अंबेडकर को आमने सामने खडा कर लिया है। गैर अंबेडकरवादियों ने अब अंबेडकर को अपने सामने खड़ा कर लिया है जिससे दलित वोट बैंक को उनके चेहरे पर अंबेडकर का मुखौटा नज़र आए। अंबेडकर के प्रति श्रद्धा प्रदर्शन की यह होड़ असली दलित मुद्दों से दूर कर रही है। दलितों की दशा और दिशा में इसीलिए कोई सुधार नहीं हो रहा है। दलितों का आरक्षण सिर्फ 4 फीसदी सम्पन्न दलितों तक सिमट कर रह गया है। जब कोई इसके विस्तार की बात करता है तो चार फीसदी लोग इसे दलित अस्मिता का सवाल बना देते हैं। दलित हितों पर चर्चा अब वैसे ही फैशन बन गयी है जैसे पांच सितारा होटल में बोतलबंद पानी सजाकर पानी के संकट पर चर्चा की जाती है।
अंबेडकर के संदेशों को छोड़कर अंबेडकर को अपनाने की होड़ इसी का विस्तार है। इस विस्तार से बचने की जरुरत है। अंबेडकरवादियों को भी , गैर अंबेडकरवादियों को भी। डॉ अंबेडकर की बात करने वालों को अपने गिरेबां मे झांककर यह देखना होगा कि पिछले सालों में उन्होंने कितने दलितों को गले लगाया, कितने दलितों को दशा सुधारी, उनकी सरकार रहते दलितों का कितना भला हुआ। दलित मतलब 29 राज्यों में फैली 1108 अनुसूचित जातियां हैं या फिर मुट्ठी भर लोग और चेहरे
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