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सावधान.....जल ही जादू है
कभी रहीम दास ने कहा था- बिन पानी सब सून..।
पानी के महत्व के नाते ही उसे इज्जत से जोड़ने के कई मुहावरे चलन है। इस बात की हिदायत किंवदंतियों और मुहावरों में है कि जिंदगी का पानी नहीं उतरना चाहिए। अमेरिका के विज्ञान लेखक लोरान आईजली ने तो यहां तक कहा है कि हमारी पृथ्वीपर कोई जादू है तो वह सिर्फ जल में है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज जैसे जैसे लोगों की प्यास बढ़ती जा रही है, समाज और जीवन से जरुरत का पानी निरंतर कम होता जा रहा है। जिस देश में तलाब खुदवाना, कुएं खुदवाना धार्मिक चलन था। बाकयदा कुएं का विवाह कराया जाता था। जहां चुल्लू भर पानी पीना और पिलाना धार्मिक कर्म था जहा कोई भी धार्मिक संकल्प बिना पानी के पूरा नहीं होता। जहां देवी देवताओं की पूजा के लिए अर्ध्य देने के लिए पानी ही इस्तेमाल होता है। पूरे एक पितृपक्ष पुरखों को जल दिया जाता है उस देश में पानी की दिक्कत के चलते लोग पलायन कर रहे हों। महाराष्ट्र में पानी को लेकर जाने ट्रेन का पानी ठीक से बंट सके इसके लिए धारा 144 लगानी पड़ रही हो। जहां मीलों पानी के लिए सफर करना पड़ रहा हो। इस सबसे यह तो साबित हो रहा ही है कि अगर किसी ने यह कहा हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा तो हम उसी ओर बढ रहे हैं।
जल हमारे जीवन का समाज का आधार रहा है। इसका गरीबी उन्मूलन, आर्थिक विकास और सुरक्षित पर्यावरण में खासा योगदान है। विकास की बुनियाद बिना पानी के संभव नहीं है। बावजूद इसके हम निरंतर पानी की उपेक्षा कर रहे हैं उसमें हमें बूंद-बूंद पानी को तरसने को विवश कर दिया है। पिछले दिनों अपने गांव जाना हुआ तो देखा गांव के छोटे छोटे घरों में बीस लीटर वाला कैन का पानी लोग गटक रहे हैं। विकासवादी इसे गांव के समृद्धि की दास्तान के साथ जोड़ सकते हैं पर मैं एक ऐसे संस्कृति के विलुप्त होने की इसमें कहानी देख रहा हूं जो समाज के सभी लोगों के लिए सर्वसुलभ है।
चार साल पहले इसी महीने में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पानी के क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश का रास्ता खोला था तब किसी को अंदाजा नहीं था कि हम जा किस ओर रहे हैं। दुनिया की 17 फीसदी आबादी भारत में रहती है। जबकि उसके पास सिर्फ चार फीसदी भूभाग है। वर्ष 1951 में एक आदमी के लिए 5177 घन मीटर पानी उपलब्ध था जो अब तकरीबन 1100 घन मीटर रह गया है। बीते 60 साल में प्रति पानी की खपत में 70 फीसदी कटौती हुई है। एक अऩुमान केमुताबिक 2018 में बोतलबंद पानी का व्यापार 160 अरब रुपये का हो जाएगा। जो आज तकरीबन 100 का है। इसके बाजार में 40-50 फीसदी सालाना का इजाफा हो रहा है। देश के 614 जिलों में से 302 जिले पानी का संकट झेल रहे हैं। तकरीबन 2 अरब नौकरियां पानी से जुडी हैं। भारत और अफ्रीका के 40 फीसदी बच्चे साफ पानी नहीं पाने की वजह से अविकसित रह जाते हैं। ऐसा महज इसलिए हो रहा है क्योंकि हमने पानी के सवाल को बाजार और तकनीकी के हवाले कर दिया है। आजादी के समय देश में 24 लाख तलाब थे।
बुंदेलखंड के राजाओं ने पानी को सहेजने के लिए तालाब खुदवाने का चलन शुरु किया था। लेकिन आज तालाब 70 हजार ही रह गये हैं। इनमें भी तकरीबन 10 हजार बेकार पड़े हैं और बाकी में जो पानी है वह किसी काम का नहीं है। ऐसा इसलिए हआ क्योंकि सरकार ने अपनी भाषा में तालाब को जल संसाधन ही नहीं माना। तालाब को कहीं हमने राजस्व के महकमे के हवाले छोडा, कहीं पंचायत के हवाले कर दिया, कहीं नगरपालिका के हवाले, नतीजतन जालशयों को लेकर हमारी नैतिक जिम्मेदारी थी उससे हम हट गये।
इसे सरकारी तंत्र की सफलता ही कहा जाएगा ज्यों-ज्यों दिन सेलीब्रेट किए गये वो वो चीजें खत्म होती गयीं। पेरेंट्स डे ने माता-पिता के प्रति हमारी सोच बदल दी। टीचर्स डे के साथ भी यही हुआ।हिंदी भाषा को लेकर मनाए गये सरकारी उत्सवों ने हिंदी को हिंग्लिश बना दिया। पानी के साथ भी हमारे नजरिए में यह बदलाव जल दिवस मनाए जाने के साथ देखा जा सकता है। सरकार की सफलता इसलिए है क्योंकि जो जो चीजें कम होंगी उनको बचाने के लिए सरकारी खर्च की धनराशि में बढोत्तरी होती जाएगी। बावजूद इसके हमने विलुप्त हो रही हर चीज को बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ रखी है।
आज 35 फीसदी भारतीयों के घरो में ही स्वच्छ पेयजल की सुविधा है। तकरीबन 42 फीसदी लोगों को पानी के लिए आधे किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। 22 फीसदी लोग पानी लाने के लिए आधे किलोमीटर से ज्यादा जाते हैं। 2050 तक दुनिया में 10 अरब लोग प्यासे रह जाएंगे। भारत के द्वितीय श्रेणी के 401 में से 203 शहरो में रोज केवल एक आदमी के हिस्से 100 लीटर की कम आपूर्ति हो रही है। राजस्थान के दस शहरो तीन दिन में एक बार पानी आता है। उत्तर प्रदेश के 97134 गांवों में से 6000 गांव का पानी पीने लायक नहीं बचा है। देश के 8 नदी घाटी क्षेत्रो में 20 करोड़ से अधिक लोग जलसंकट से परेशान हैं। पर हम इस विकराल होती समस्या से निपटने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहे हैं।
अगर हम खुद इस समस्या से निपटने के लिए आगे आएं तो शायद इस दिशा में बड़ी पहल कर सकते हैं क्योंकि दिल्ली के 8300 किलोमीटर लंबे पाइप लाइन नेटवर्क से हर रोज 80 करोड़ लीटर पानी रिस जाता है। यही नहीं उपलब्ध पानी का दस फीसदी का हिस्सा घरों में उपयोग होता है। इस दस फीसदी का ही दस फीसदी हिस्सा खाना पकाने और पीने के काम आता है। पांच फीसदी हिस्सा साफ-सफाई में, 65 फीसदी स्नान, शौच अन्य कार्यो मे और 20 फीसदी अन्य कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है। इस पर हम रोक लगा सकते है। आमतौर पर पीने के पानी का ही उपयोग हम अन्य कार्यों में करते हैं। अगर हम इस दिशा में कदम नहीं बढाते तो शत प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोला गया यह मार्ग हमें पानी की गुलामी की ओर ले जाएगा। क्योंकि दुनिया भर के तमाम कंपनियों की नज़र पानी के इस बाजार पर है। वे पानी के निजीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की जुगत लगा रही हैं। 1990 के दशक में विश्व बैंक ने पानी को लेकर एक नीति पत्र जारी किया था जिसमें साफ कहा है – बिक्री योग्य पानी का अधिकार देने के लिए बाजार तैयार किए जाएं।
दुनिया में औसतन 24 लीटर प्रतिवर्ष बोतलबंद पानी का प्रति व्यक्ति इस्तेमाल करता है जबकि भारत में यह आंकडा सिर्फ 5 लीटर का है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसी पांच लीटर के आंकडे को 24 लीटर तक लाना चाहती हैं। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पानी का बाजार पांच सौ अरब यूरो का है। जबकि भारत में 200 अरब अमरीकी डालर के पानी के बाजार की संभावना बहुराष्ट्रीय कंपनियां देख रही हैं। बोतलबंद पानी के निर्माण में इन्टरनेशनल बाटल्ड वाटर एसोसिएशन की माने तो करीब डेढ़ लीटर पानी बेकार होता है। वहीं भारत में बन रहे आरओ वाटर प्लांट्स में बेकार होने वाला पानी करीब 3 लीटर प्रति बोतल तक होता है। पानी यही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र हमारे देश की नदियों पर भी है। कावेरी की सहयोगी नदी भवानी को तमिलनाडु सरकार ने किनले कंपनी को लीज पर दे दिया है। कोका-कोला कंपनी इसी नाम से पानी बनाती है। दुर्ग की शिवनाथ नदी का 23.6 किलोमीटर हिस्सा रेडियस वाटर कंपनी के हवाले किया गया। शर्त के मुताबिक यह कंपनी नदी के पानी को बूट( बनाइए, चलाइए और हस्तांतरण करिए) के तहत आस-पास के इलाके को देगी। महेश योगी अभी भी गंगा के जल का सबसे बड़ा कारोबार करते हैं।
भारत की आजादी की 60 सालगिरह पर 8 अगस्त को हरिद्वार के गंगा तट पर इकट्ठा हुए लोगों ने संकल्प लिया था कि हम गंगा मां को बिकने नहीं देंगे। यह भी नदियों के बाजार बनाने की सरकारी नीति के विरोध का एक अध्याय था। प्रख्यात साहित्याकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा है- ‘’भारत में जल को जो मान्यता मिली है, वह भले ही एक निष्प्राण कर्मकांड में ढ़ल गयी हो पर परंतु जल हाथ में लेकर संकल्प लेना, यानी जल को साक्षी माना, जल छिड़क कर अपिवत्रता के निवारण के लिए आश्वस्त होना, जलकलश को मंगल विधाई मानना, किसी के मृत्यु के बाद मिट्टी का जल भरा घड़ा फोड़कर देह-जल (आत्मा) को विराट सृष्टि में विलीन करना, पवित्र नदियो में स्नान, उनकी आरती उतारना आदि मूलतः केवल कर्मकांड नहीं रहे होंगे। वे प्रतीक विधान होंगे, जो जल में प्रिय, पूज्य, मंगल, आस्था, साक्षी, व्रत, आत्मशुद्धि के प्रतीक माध्यम रहे होंगे जो यह संकेत देते रहे होंगे कि जल के इन विशेषणों को बनाए रखना है।” ऐसे में जरुरी हो गया है कि जल की इन मान्यता को अपदस्थ करके जो बड़ा एक संवेदनहीन संसार तैयार किया जा रहा है उसके खिलाफ लड़ने के लिए हम खुद खडे हों, सरकार पर न छोडें और जल उत्पाद नहीं आध्यात्म है, शुद्धि है, पवित्रता है, आस्था है, शरीर का 70 फीसदी हिस्सा जल ही है।
पानी के महत्व के नाते ही उसे इज्जत से जोड़ने के कई मुहावरे चलन है। इस बात की हिदायत किंवदंतियों और मुहावरों में है कि जिंदगी का पानी नहीं उतरना चाहिए। अमेरिका के विज्ञान लेखक लोरान आईजली ने तो यहां तक कहा है कि हमारी पृथ्वीपर कोई जादू है तो वह सिर्फ जल में है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज जैसे जैसे लोगों की प्यास बढ़ती जा रही है, समाज और जीवन से जरुरत का पानी निरंतर कम होता जा रहा है। जिस देश में तलाब खुदवाना, कुएं खुदवाना धार्मिक चलन था। बाकयदा कुएं का विवाह कराया जाता था। जहां चुल्लू भर पानी पीना और पिलाना धार्मिक कर्म था जहा कोई भी धार्मिक संकल्प बिना पानी के पूरा नहीं होता। जहां देवी देवताओं की पूजा के लिए अर्ध्य देने के लिए पानी ही इस्तेमाल होता है। पूरे एक पितृपक्ष पुरखों को जल दिया जाता है उस देश में पानी की दिक्कत के चलते लोग पलायन कर रहे हों। महाराष्ट्र में पानी को लेकर जाने ट्रेन का पानी ठीक से बंट सके इसके लिए धारा 144 लगानी पड़ रही हो। जहां मीलों पानी के लिए सफर करना पड़ रहा हो। इस सबसे यह तो साबित हो रहा ही है कि अगर किसी ने यह कहा हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा तो हम उसी ओर बढ रहे हैं।
जल हमारे जीवन का समाज का आधार रहा है। इसका गरीबी उन्मूलन, आर्थिक विकास और सुरक्षित पर्यावरण में खासा योगदान है। विकास की बुनियाद बिना पानी के संभव नहीं है। बावजूद इसके हम निरंतर पानी की उपेक्षा कर रहे हैं उसमें हमें बूंद-बूंद पानी को तरसने को विवश कर दिया है। पिछले दिनों अपने गांव जाना हुआ तो देखा गांव के छोटे छोटे घरों में बीस लीटर वाला कैन का पानी लोग गटक रहे हैं। विकासवादी इसे गांव के समृद्धि की दास्तान के साथ जोड़ सकते हैं पर मैं एक ऐसे संस्कृति के विलुप्त होने की इसमें कहानी देख रहा हूं जो समाज के सभी लोगों के लिए सर्वसुलभ है।
चार साल पहले इसी महीने में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पानी के क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश का रास्ता खोला था तब किसी को अंदाजा नहीं था कि हम जा किस ओर रहे हैं। दुनिया की 17 फीसदी आबादी भारत में रहती है। जबकि उसके पास सिर्फ चार फीसदी भूभाग है। वर्ष 1951 में एक आदमी के लिए 5177 घन मीटर पानी उपलब्ध था जो अब तकरीबन 1100 घन मीटर रह गया है। बीते 60 साल में प्रति पानी की खपत में 70 फीसदी कटौती हुई है। एक अऩुमान केमुताबिक 2018 में बोतलबंद पानी का व्यापार 160 अरब रुपये का हो जाएगा। जो आज तकरीबन 100 का है। इसके बाजार में 40-50 फीसदी सालाना का इजाफा हो रहा है। देश के 614 जिलों में से 302 जिले पानी का संकट झेल रहे हैं। तकरीबन 2 अरब नौकरियां पानी से जुडी हैं। भारत और अफ्रीका के 40 फीसदी बच्चे साफ पानी नहीं पाने की वजह से अविकसित रह जाते हैं। ऐसा महज इसलिए हो रहा है क्योंकि हमने पानी के सवाल को बाजार और तकनीकी के हवाले कर दिया है। आजादी के समय देश में 24 लाख तलाब थे।
बुंदेलखंड के राजाओं ने पानी को सहेजने के लिए तालाब खुदवाने का चलन शुरु किया था। लेकिन आज तालाब 70 हजार ही रह गये हैं। इनमें भी तकरीबन 10 हजार बेकार पड़े हैं और बाकी में जो पानी है वह किसी काम का नहीं है। ऐसा इसलिए हआ क्योंकि सरकार ने अपनी भाषा में तालाब को जल संसाधन ही नहीं माना। तालाब को कहीं हमने राजस्व के महकमे के हवाले छोडा, कहीं पंचायत के हवाले कर दिया, कहीं नगरपालिका के हवाले, नतीजतन जालशयों को लेकर हमारी नैतिक जिम्मेदारी थी उससे हम हट गये।
इसे सरकारी तंत्र की सफलता ही कहा जाएगा ज्यों-ज्यों दिन सेलीब्रेट किए गये वो वो चीजें खत्म होती गयीं। पेरेंट्स डे ने माता-पिता के प्रति हमारी सोच बदल दी। टीचर्स डे के साथ भी यही हुआ।हिंदी भाषा को लेकर मनाए गये सरकारी उत्सवों ने हिंदी को हिंग्लिश बना दिया। पानी के साथ भी हमारे नजरिए में यह बदलाव जल दिवस मनाए जाने के साथ देखा जा सकता है। सरकार की सफलता इसलिए है क्योंकि जो जो चीजें कम होंगी उनको बचाने के लिए सरकारी खर्च की धनराशि में बढोत्तरी होती जाएगी। बावजूद इसके हमने विलुप्त हो रही हर चीज को बचाने की जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ रखी है।
आज 35 फीसदी भारतीयों के घरो में ही स्वच्छ पेयजल की सुविधा है। तकरीबन 42 फीसदी लोगों को पानी के लिए आधे किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। 22 फीसदी लोग पानी लाने के लिए आधे किलोमीटर से ज्यादा जाते हैं। 2050 तक दुनिया में 10 अरब लोग प्यासे रह जाएंगे। भारत के द्वितीय श्रेणी के 401 में से 203 शहरो में रोज केवल एक आदमी के हिस्से 100 लीटर की कम आपूर्ति हो रही है। राजस्थान के दस शहरो तीन दिन में एक बार पानी आता है। उत्तर प्रदेश के 97134 गांवों में से 6000 गांव का पानी पीने लायक नहीं बचा है। देश के 8 नदी घाटी क्षेत्रो में 20 करोड़ से अधिक लोग जलसंकट से परेशान हैं। पर हम इस विकराल होती समस्या से निपटने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रहे हैं।
अगर हम खुद इस समस्या से निपटने के लिए आगे आएं तो शायद इस दिशा में बड़ी पहल कर सकते हैं क्योंकि दिल्ली के 8300 किलोमीटर लंबे पाइप लाइन नेटवर्क से हर रोज 80 करोड़ लीटर पानी रिस जाता है। यही नहीं उपलब्ध पानी का दस फीसदी का हिस्सा घरों में उपयोग होता है। इस दस फीसदी का ही दस फीसदी हिस्सा खाना पकाने और पीने के काम आता है। पांच फीसदी हिस्सा साफ-सफाई में, 65 फीसदी स्नान, शौच अन्य कार्यो मे और 20 फीसदी अन्य कार्यों में इस्तेमाल कर सकता है। इस पर हम रोक लगा सकते है। आमतौर पर पीने के पानी का ही उपयोग हम अन्य कार्यों में करते हैं। अगर हम इस दिशा में कदम नहीं बढाते तो शत प्रतिशत विदेशी निवेश के लिए खोला गया यह मार्ग हमें पानी की गुलामी की ओर ले जाएगा। क्योंकि दुनिया भर के तमाम कंपनियों की नज़र पानी के इस बाजार पर है। वे पानी के निजीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की जुगत लगा रही हैं। 1990 के दशक में विश्व बैंक ने पानी को लेकर एक नीति पत्र जारी किया था जिसमें साफ कहा है – बिक्री योग्य पानी का अधिकार देने के लिए बाजार तैयार किए जाएं।
दुनिया में औसतन 24 लीटर प्रतिवर्ष बोतलबंद पानी का प्रति व्यक्ति इस्तेमाल करता है जबकि भारत में यह आंकडा सिर्फ 5 लीटर का है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसी पांच लीटर के आंकडे को 24 लीटर तक लाना चाहती हैं। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पानी का बाजार पांच सौ अरब यूरो का है। जबकि भारत में 200 अरब अमरीकी डालर के पानी के बाजार की संभावना बहुराष्ट्रीय कंपनियां देख रही हैं। बोतलबंद पानी के निर्माण में इन्टरनेशनल बाटल्ड वाटर एसोसिएशन की माने तो करीब डेढ़ लीटर पानी बेकार होता है। वहीं भारत में बन रहे आरओ वाटर प्लांट्स में बेकार होने वाला पानी करीब 3 लीटर प्रति बोतल तक होता है। पानी यही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र हमारे देश की नदियों पर भी है। कावेरी की सहयोगी नदी भवानी को तमिलनाडु सरकार ने किनले कंपनी को लीज पर दे दिया है। कोका-कोला कंपनी इसी नाम से पानी बनाती है। दुर्ग की शिवनाथ नदी का 23.6 किलोमीटर हिस्सा रेडियस वाटर कंपनी के हवाले किया गया। शर्त के मुताबिक यह कंपनी नदी के पानी को बूट( बनाइए, चलाइए और हस्तांतरण करिए) के तहत आस-पास के इलाके को देगी। महेश योगी अभी भी गंगा के जल का सबसे बड़ा कारोबार करते हैं।
भारत की आजादी की 60 सालगिरह पर 8 अगस्त को हरिद्वार के गंगा तट पर इकट्ठा हुए लोगों ने संकल्प लिया था कि हम गंगा मां को बिकने नहीं देंगे। यह भी नदियों के बाजार बनाने की सरकारी नीति के विरोध का एक अध्याय था। प्रख्यात साहित्याकार प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा है- ‘’भारत में जल को जो मान्यता मिली है, वह भले ही एक निष्प्राण कर्मकांड में ढ़ल गयी हो पर परंतु जल हाथ में लेकर संकल्प लेना, यानी जल को साक्षी माना, जल छिड़क कर अपिवत्रता के निवारण के लिए आश्वस्त होना, जलकलश को मंगल विधाई मानना, किसी के मृत्यु के बाद मिट्टी का जल भरा घड़ा फोड़कर देह-जल (आत्मा) को विराट सृष्टि में विलीन करना, पवित्र नदियो में स्नान, उनकी आरती उतारना आदि मूलतः केवल कर्मकांड नहीं रहे होंगे। वे प्रतीक विधान होंगे, जो जल में प्रिय, पूज्य, मंगल, आस्था, साक्षी, व्रत, आत्मशुद्धि के प्रतीक माध्यम रहे होंगे जो यह संकेत देते रहे होंगे कि जल के इन विशेषणों को बनाए रखना है।” ऐसे में जरुरी हो गया है कि जल की इन मान्यता को अपदस्थ करके जो बड़ा एक संवेदनहीन संसार तैयार किया जा रहा है उसके खिलाफ लड़ने के लिए हम खुद खडे हों, सरकार पर न छोडें और जल उत्पाद नहीं आध्यात्म है, शुद्धि है, पवित्रता है, आस्था है, शरीर का 70 फीसदी हिस्सा जल ही है।
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