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कांग्रेसी लोकतंत्र की बलिहारी...
अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तकरीबन एक सौ तिरपन साल पहले अपने विख्यात गैटिस्बर्ग संबोधन में कहा था लोकतंत्र- जनता द्वारा,जनता के लिए,जनता की सरकार है। लेकिन तकरीबन इतनी ही बुजुर्ग भारतीय कांग्रेस पार्टी के नेताओं को इन दिनों यह बात समझ में आती दिख नहीं रही है। यही वजह है कि जब कांग्रेस पार्टी को सत्तारूढ भाजपा नीत सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहिए तब वह अपने बचाव में उतरने के सिवाय कुछ करती नहीं दिख रही है। यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि देश के इस विपक्ष को अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक मुद्दे इस कदर महत्वपूर्ण दिखने लगे हैं कि उनका लोकतंत्र वहीं तक सिमट कर रह गया है। जब भी उन पर कोई आरोप लगाता है तब लोकतंत्र की मुनादी पीटते हुए उनके नेता संसद के इर्द गिर्द मार्च करते दिखते हैं।
देश पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा है पर संसद में और बाहर विपक्ष का पानी नदारद। उत्तराखंड और अरुणाचल में लोकतंत्र के नाम पर कांग्रेस पार्टी तब जागी जब इटली की एक अदालत ने अगस्ता हेलीकाप्टर डील में भारतीय दलालों की भूमिका को लेकर सवाल उठाया और इसी फैसले में सिग्नोरा गांधी, एपी और दूसरे नौकरशाहों की तरफ इशारा किया। बस क्या था, लोकतंत्र के नाम पर कांग्रेस पार्टी ने एक मार्च निकाल दिया। लोकतंत्र बचाओ इस मार्च के दौरान काग्रेस के कुछ नेताओं के हाथ में राबर्ट वाड्रा के चित्र लगे प्लाईकार्ड्स (तख्तियां ) भी थी यही नही राबर्ड वाड्रा का चित्र सोनिया और राहुल गांधी के बीच लगाया गया था और इसी तख्तियों पर लिखा था लोकतंत्र बचाओ। क्या यही लोकतंत्र है। इसी को बचाना है। इस सौदे में राबर्ट वाड्रा का कहीं नाम ही नहीं उछला फिर इस मुद्रा की जरुरत क्या थी।
थोड़ा और पीछे चलत है। इससे पहले मार्च कांग्रेस ने तब निकाला जब राहुल सोनिया और उनके कोषाध्यक्ष मोतीवाल वोरा का नाम नेशनल हेराल्ड मामले में सांसद सुब्रह्मणयम स्वामी ने घसीटा था। उस समय भी कांग्रेस इतनी आक्रामक थी जितनी अगस्ता मामले में उनके नेताओं के नाम आने के बाद। अगर कांग्रेस के इस विरोध प्रदर्शन को ही आधार मान लें तो यह कहा जा सकता है कि देश में इन नेताओं को परेशान करने के सिवाय सबकुछ ठीक चल रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार अपने कांग्रेस मुक्त भारत अभियान में प्रतिशोध से काम कर रही है। अगर कांग्रेस के मार्च से निष्कर्ष निकाले जाएं तो किसी भी आदमी के हाथ यही तथ्य लगते हैं। पर यह भी सच नहीं है। वैसे सच्चाई यह नहीं है कि देश में स्वर्णकाल आ गया है पर ऐसा भी नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार कुछ ऐसा काम कर रही जो पहले की सरकारों ने नहीं किया हो। नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिन का अपना वादा पूरा करने के लिए कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोडा है। उनकी कुछ योजनाएं उनकी पार्टी के श्लाका पुरुष रहे अटल बिहारी वाजपेयी की योजनाओं का विस्तार है तो कुछ कांग्रेसी योजनाओं को हाइपर मोड पर ड़ालकर उसके नतीजे लेने शुरु कर दिए हैं।
देश कई परेशानियों से भी गुजर रहा है। नेपाल भारत से अपना राजदूत वापस बुला देता है। भारत नेपाल रिश्ते खराब चल रहे हैं। मोदी की तमाम कोशिशों के बाद भी चीन का दुश्मनी का मोड कम होने का नाम नहीं ले रहा है। पाकिस्तान की ज्वाइंट इन्वेस्टीगेशन टीम के भारत दौरे के बाद भी पाकिस्तान साफ कह देता है कि पठानकोट हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है। जिस तरह नरेंद्र मोदी अमरीका की सियासत के फंदे में फंसकर ग्लोबल टेररिज्म के विरोध का चेहरा बन रहे हैं उससे इस बात की आशंकाएं बढ़ रही है कि भारत आईएस के निशाने पर जल्दी आ सकता है।
देश की एक तिहाई जनता सूखे की मुसीबत झेल रही है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड का हलक इस कदर सूख गया है कि अब हजारों गैलन पानी भी तपते तवे पर एक बूंद पानी जैसा ही साबित हो रहा है। विदर्भ में भी कमोबेश यही स्थिति है। कच्चे तेल के मूल्य दुनिया मे जमीन छू रहे हैं बावजूद इसके भारत में डीजल और पेट्रोल का दाम कम होने के नाम नहीं ले रहे वह भी तब जबकि इनका मूल्य अब बाजार तय करता है पर अभी भी सरकार ही इनका मूल्य तय कर रही। कश्मीर में हर शुक्रवार को आईएस के झंडे लहराए जाते है। राष्ट्रविरोधी गतिविधियां तेज हो गयी हैं जबकि वहां भाजपा सरकार में है। पर इन सारे मुद्दों पर कांग्रेस का लोकतंत्र आंख बंद किए बैठा है। वह गंधारी और धृतराष्ट्र दोनों की शक्ल में है। उसको खतरा महसूस नहीं होता।
इन दिक्कतों से रुबरू हो रही जनता के लिए आखिर कांग्रेस का लोकतंत्र क्यों नहीं जागता है। कांग्रेस के बड़े नेताओं पर नज़र दौडाई जाय तो यह तथ्य हाथ लगता है कि यह इंदिरा इज इंडिया , इंडिया इज इंदिरा की तर्ज पर आगे बढ़ रहे हैं। सोनिया गांधी ने दस साल इस देश में अपने मनचाहे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार चलाई पर जबजब विकास का कोई सपना उन्हें दिखा तो उनकी आंखों में अमेठी और रायबरेली के आगे की कोई जगह आकार नहीं ले पाई। सोनिया निरंतर अपने संसदीय क्षेत्र में जाती है, लखनऊ से उनके संसदीय क्षेत्र रायबरेली तक का रास्ता खऱाब था। पर उन्होंने अपने इस रास्ते को सुगम बनाने की जब सोची तब भी एयरपोर्ट से लेकर रायबरेली तक का रास्ता सुधरा। वह उत्तर प्रदेश से आती हैं जहां उनकी पार्टी की बहुत साल तक सरकार भी रही है। निःसंदेह वह जानती होंगी कि लखनऊ और इलाहाबाद के बीच उच्चन्यायालय का रिश्ता, रायबरेली और इलाहाबाद का रिश्ता आनंद भवन और उनके संसदीय क्षेत्र का रिश्ता है।
कभी इलाहाबाद अंग्रेजों की राजधानी थी आज लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है। आबकारी, राजस्व परिषद, लोकसेवा आयोग सरीखे तमाम विभागों के लोग इन सड़को से आते जाते हैं पर देश में विकास का दंभ भरने वाली राजनैतिक पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी का विकास लखनऊ से रायबरेली तक की सड़क तक सिमट गया। आप उनके और राहुल गाधी के संसदीय क्षेत्र में जाएं तो बिजली सड़क पानी नदारद है। उद्योग जरुर खुले पर जितने खुले उससे ज्यादा बंद हुए है। राष्ट्रीय स्तर के संस्थान खुले पर यहां पर उत्तर प्रदेश के कम बाहर के ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। इन्हें एम्स बनाने की सूझी तो आपदा ग्रस्त बुंदेलखंड और लंबे समय से इन्सेफलाइटिस झेल रहा पूर्वांचल का भुगोल इनकी आंखो से नदारद हो गया। जहां एम्स खोलना इनका सपना था वहां से पीजीआई की दूरी 100 किमी भी नहीं है। अगर इनके विकास के फलसफे को थोड़ा और विस्तार दिया जाय तो यह तथ्य भी हाथ लगता है कि राहुल गांधी ने जिन जिन दलितों के घर रात्रि प्रवास किए उनके गावों तो छोडिए घर में भी उम्मीद का दिया नहीं जल पाया है।
ऐसे में अगर लोकतंत्र खतरे में तब-तब पड़ता हो जब इनके नेताओं के नाम किसी मामले में आते हों तभी यह मार्च निकालते हों इनसे क्षुब्ध होने की जरुरत नही है। यह इनकी तासीर है। जब भी कोई व्यक्ति जीव, तत्व अथवा पदार्थ अपनी तासीर के मुताबिक काम करता है तो हैरत नहीं होनी चाहिए। हैरत का सबब तब उत्पन्न होता है जब कुछ भी तासीर के खिलाफ हो। जिस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सरकार बनानी हो उस पार्टी के नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी पूरे पांच साल अमेठी-रायबरेली से बाहर कुछ सोच ही न पाते हो। वे जब भी उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर आते हों तो उनके कदम अमेठी-रायबरेली तक जाकर ठिठक जाते हों। सिर्फ चुनाव के दिनों में ये नेता सूबे के दूसरे इलाको में दिखते हों तब इनके भरोसे लोकतंत्र और विकास को छोड़ देना मुफीद नहीं होगा।
बात बात में अपने लिए मोदी, भाजपा और उनकी सरकार को निशाने पर लेने वाले कांग्रेस को सोचना चाहिए कि अगर राबर्ड वाड्रा को राजस्थान हुए भूमि घोटाले में नाम आने के बाद भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार क्लीन चिट दे सकती है तो भाजपा नीति और नियति में वह खोट नहीं है जो बार-बार कांग्रेस की अक्ष पर उभर रहा है।
देश पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा है पर संसद में और बाहर विपक्ष का पानी नदारद। उत्तराखंड और अरुणाचल में लोकतंत्र के नाम पर कांग्रेस पार्टी तब जागी जब इटली की एक अदालत ने अगस्ता हेलीकाप्टर डील में भारतीय दलालों की भूमिका को लेकर सवाल उठाया और इसी फैसले में सिग्नोरा गांधी, एपी और दूसरे नौकरशाहों की तरफ इशारा किया। बस क्या था, लोकतंत्र के नाम पर कांग्रेस पार्टी ने एक मार्च निकाल दिया। लोकतंत्र बचाओ इस मार्च के दौरान काग्रेस के कुछ नेताओं के हाथ में राबर्ट वाड्रा के चित्र लगे प्लाईकार्ड्स (तख्तियां ) भी थी यही नही राबर्ड वाड्रा का चित्र सोनिया और राहुल गांधी के बीच लगाया गया था और इसी तख्तियों पर लिखा था लोकतंत्र बचाओ। क्या यही लोकतंत्र है। इसी को बचाना है। इस सौदे में राबर्ट वाड्रा का कहीं नाम ही नहीं उछला फिर इस मुद्रा की जरुरत क्या थी।
थोड़ा और पीछे चलत है। इससे पहले मार्च कांग्रेस ने तब निकाला जब राहुल सोनिया और उनके कोषाध्यक्ष मोतीवाल वोरा का नाम नेशनल हेराल्ड मामले में सांसद सुब्रह्मणयम स्वामी ने घसीटा था। उस समय भी कांग्रेस इतनी आक्रामक थी जितनी अगस्ता मामले में उनके नेताओं के नाम आने के बाद। अगर कांग्रेस के इस विरोध प्रदर्शन को ही आधार मान लें तो यह कहा जा सकता है कि देश में इन नेताओं को परेशान करने के सिवाय सबकुछ ठीक चल रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार अपने कांग्रेस मुक्त भारत अभियान में प्रतिशोध से काम कर रही है। अगर कांग्रेस के मार्च से निष्कर्ष निकाले जाएं तो किसी भी आदमी के हाथ यही तथ्य लगते हैं। पर यह भी सच नहीं है। वैसे सच्चाई यह नहीं है कि देश में स्वर्णकाल आ गया है पर ऐसा भी नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार कुछ ऐसा काम कर रही जो पहले की सरकारों ने नहीं किया हो। नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिन का अपना वादा पूरा करने के लिए कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोडा है। उनकी कुछ योजनाएं उनकी पार्टी के श्लाका पुरुष रहे अटल बिहारी वाजपेयी की योजनाओं का विस्तार है तो कुछ कांग्रेसी योजनाओं को हाइपर मोड पर ड़ालकर उसके नतीजे लेने शुरु कर दिए हैं।
देश कई परेशानियों से भी गुजर रहा है। नेपाल भारत से अपना राजदूत वापस बुला देता है। भारत नेपाल रिश्ते खराब चल रहे हैं। मोदी की तमाम कोशिशों के बाद भी चीन का दुश्मनी का मोड कम होने का नाम नहीं ले रहा है। पाकिस्तान की ज्वाइंट इन्वेस्टीगेशन टीम के भारत दौरे के बाद भी पाकिस्तान साफ कह देता है कि पठानकोट हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है। जिस तरह नरेंद्र मोदी अमरीका की सियासत के फंदे में फंसकर ग्लोबल टेररिज्म के विरोध का चेहरा बन रहे हैं उससे इस बात की आशंकाएं बढ़ रही है कि भारत आईएस के निशाने पर जल्दी आ सकता है।
देश की एक तिहाई जनता सूखे की मुसीबत झेल रही है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड का हलक इस कदर सूख गया है कि अब हजारों गैलन पानी भी तपते तवे पर एक बूंद पानी जैसा ही साबित हो रहा है। विदर्भ में भी कमोबेश यही स्थिति है। कच्चे तेल के मूल्य दुनिया मे जमीन छू रहे हैं बावजूद इसके भारत में डीजल और पेट्रोल का दाम कम होने के नाम नहीं ले रहे वह भी तब जबकि इनका मूल्य अब बाजार तय करता है पर अभी भी सरकार ही इनका मूल्य तय कर रही। कश्मीर में हर शुक्रवार को आईएस के झंडे लहराए जाते है। राष्ट्रविरोधी गतिविधियां तेज हो गयी हैं जबकि वहां भाजपा सरकार में है। पर इन सारे मुद्दों पर कांग्रेस का लोकतंत्र आंख बंद किए बैठा है। वह गंधारी और धृतराष्ट्र दोनों की शक्ल में है। उसको खतरा महसूस नहीं होता।
इन दिक्कतों से रुबरू हो रही जनता के लिए आखिर कांग्रेस का लोकतंत्र क्यों नहीं जागता है। कांग्रेस के बड़े नेताओं पर नज़र दौडाई जाय तो यह तथ्य हाथ लगता है कि यह इंदिरा इज इंडिया , इंडिया इज इंदिरा की तर्ज पर आगे बढ़ रहे हैं। सोनिया गांधी ने दस साल इस देश में अपने मनचाहे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार चलाई पर जबजब विकास का कोई सपना उन्हें दिखा तो उनकी आंखों में अमेठी और रायबरेली के आगे की कोई जगह आकार नहीं ले पाई। सोनिया निरंतर अपने संसदीय क्षेत्र में जाती है, लखनऊ से उनके संसदीय क्षेत्र रायबरेली तक का रास्ता खऱाब था। पर उन्होंने अपने इस रास्ते को सुगम बनाने की जब सोची तब भी एयरपोर्ट से लेकर रायबरेली तक का रास्ता सुधरा। वह उत्तर प्रदेश से आती हैं जहां उनकी पार्टी की बहुत साल तक सरकार भी रही है। निःसंदेह वह जानती होंगी कि लखनऊ और इलाहाबाद के बीच उच्चन्यायालय का रिश्ता, रायबरेली और इलाहाबाद का रिश्ता आनंद भवन और उनके संसदीय क्षेत्र का रिश्ता है।
कभी इलाहाबाद अंग्रेजों की राजधानी थी आज लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है। आबकारी, राजस्व परिषद, लोकसेवा आयोग सरीखे तमाम विभागों के लोग इन सड़को से आते जाते हैं पर देश में विकास का दंभ भरने वाली राजनैतिक पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी का विकास लखनऊ से रायबरेली तक की सड़क तक सिमट गया। आप उनके और राहुल गाधी के संसदीय क्षेत्र में जाएं तो बिजली सड़क पानी नदारद है। उद्योग जरुर खुले पर जितने खुले उससे ज्यादा बंद हुए है। राष्ट्रीय स्तर के संस्थान खुले पर यहां पर उत्तर प्रदेश के कम बाहर के ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। इन्हें एम्स बनाने की सूझी तो आपदा ग्रस्त बुंदेलखंड और लंबे समय से इन्सेफलाइटिस झेल रहा पूर्वांचल का भुगोल इनकी आंखो से नदारद हो गया। जहां एम्स खोलना इनका सपना था वहां से पीजीआई की दूरी 100 किमी भी नहीं है। अगर इनके विकास के फलसफे को थोड़ा और विस्तार दिया जाय तो यह तथ्य भी हाथ लगता है कि राहुल गांधी ने जिन जिन दलितों के घर रात्रि प्रवास किए उनके गावों तो छोडिए घर में भी उम्मीद का दिया नहीं जल पाया है।
ऐसे में अगर लोकतंत्र खतरे में तब-तब पड़ता हो जब इनके नेताओं के नाम किसी मामले में आते हों तभी यह मार्च निकालते हों इनसे क्षुब्ध होने की जरुरत नही है। यह इनकी तासीर है। जब भी कोई व्यक्ति जीव, तत्व अथवा पदार्थ अपनी तासीर के मुताबिक काम करता है तो हैरत नहीं होनी चाहिए। हैरत का सबब तब उत्पन्न होता है जब कुछ भी तासीर के खिलाफ हो। जिस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सरकार बनानी हो उस पार्टी के नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी पूरे पांच साल अमेठी-रायबरेली से बाहर कुछ सोच ही न पाते हो। वे जब भी उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर आते हों तो उनके कदम अमेठी-रायबरेली तक जाकर ठिठक जाते हों। सिर्फ चुनाव के दिनों में ये नेता सूबे के दूसरे इलाको में दिखते हों तब इनके भरोसे लोकतंत्र और विकास को छोड़ देना मुफीद नहीं होगा।
बात बात में अपने लिए मोदी, भाजपा और उनकी सरकार को निशाने पर लेने वाले कांग्रेस को सोचना चाहिए कि अगर राबर्ड वाड्रा को राजस्थान हुए भूमि घोटाले में नाम आने के बाद भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार क्लीन चिट दे सकती है तो भाजपा नीति और नियति में वह खोट नहीं है जो बार-बार कांग्रेस की अक्ष पर उभर रहा है।
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