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जनादेश के मायने, जो समझे वही सुजान........
राजनीतिक दल अपने बचाव के लिए आमतौर पर इस जुमले का प्रयोग करते हैं कि हर राज्यों के चुनाव नतीजों के संदेश अलग-अलग होते हैं। किसी एक राज्य के जनादेश के संदेश दूसरे राज्यों में नहीं पढ़े जाने चाहिए। पर हकीकत यह है कि यह सिर्फ ढाल है, सच्चाई यह है कि हर राज्य के जनादेश के संदेश तकरीबन सार्वभौम होते हैं। यह सार्वभौमिकता कम से कम देश के स्तर पर तो होती ही है। अगर ऐसा नहीं होता तो 2014 से शुरु हुआ कांग्रेसमुक्त भारत का अभियान बदस्तूर जारी नहीं रहता। यह बाद दीगर है कि कांग्रेस के निपटने का लाभ अलग अलग समय पर अलग-अलग लोंगों या दलों को मिला हो।
यही नहीं, अगर संदेश सार्वभौम नहीं होते तो अल्पमत की सरकारों के दिन लदने के बाद बहुमत की सरकारों का सिलसिला जारी नहीं रहता।असम, तमिलनाडु, केरल, पुदुच्चेरी, पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे इन जीत हार हासिल करने वालों के लिए तो संदेश हैं ही पर संदेश की सार्वभौमिकता के नाते ही दूसरे राज्यों के लिए तमाम संदेश इस जनादेश में निहित है।
यूपी में सरकार चला रहे अखिलेश यादव के लिए यह संदेश है कि अगर अच्छा काम किया होगा तो लौटकर आएंगे। उनके विकास के दावे इस जनादेश के संदेश की खराद पर होंगे। जातीय राजनीति से ऊपर उठकर विकास को भी अपने एजेंडे का हिस्सा बनाने में कितनी कामयाब हुई है यह संदेश इस जनादेश में अखिलेश यादव और मायावती दोनों के लिए है। सिर्फ जातीय समीकरण नहीं चलेंगे यह भी संदेश इस जनादेश में निहित है।
जनादेश त्रिशंकु विधानसभा में अपनी हाथ कुछ लग जाने वाले लोगों को यह जता देता है कि जनता ने 2007 से ही स्पष्ट बहुमत बनाने का ट्रेंड जो शुरू किया है उस पर फिलहाल पलीता नहीं लगने वाला। क्योंकि तमिलनाडु में एम.करुणानिधि ज़िंदगी की अपनी अंतिम ख़्वाहिश के लिए अरदास कर रहे थे फिर भी वहां की जनता ने जयललिता को स्पष्ट बहुमत थमाया। असम में 34 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बाद भी भाजपा ने अपने बूते पर न केवल बहुमत जुटाया बल्कि 48 फीसदी वोट हासिल कर बहुमत की एक नई लकीर खींच दी। इन चुनाव के बाद तकरीबन 36 फीसदी मतदाताओँ की पसंद वाली पार्टी भाजपा बन गयी है। असम के नतीजे उत्तर प्रदेश के नेताओं को यह संदेश देते हैं कि अगर तुष्टीकरण की सियासत हुई तो भाजपा की जमीन यहां और मजबूत होगी। क्योंकि यहां अल्पसंख्यक मतदाताओँ की संख्या का प्रतिशत असम से आधा भी नहीं है।
मायावती के लिए इस जनादेश में यह संदेश है कि उन्हें अपने सियासत का चाल, चरित्र और चेहरा बदलना होगा। ड्रांइगरुम-पालिटिक्स और कास्ट-केमिस्ट्री के दिन लद गये हैं क्योंकि जिन जयललिता और ममता बनर्जी को दोबारा जनादेश मिला है वह जमीन पर सियासत करने वाली नेताओं में शुमार हैं।
कांग्रेस के लिए यह संदेश है कि उसकी राजनीति स्टाइल के दिन लद रहे हैं। उसे नए एजेंडे नये मुद्दे, नई राजनीतिक शैली और नए नेता के साथ जनता के सामने आना होगा। उसे राज्यों में बैठे अपने नेताओं की हैसियत समझनी होगी। कुछ कुछ दिनों में उन्हें हिलाकर यह नहीं देखना होगा कि उनकी जड़ें कितनी गहरी हैं। क्योंकि वह ऐसा नहीं करती तो शायद ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में हाथ का साथ दे रही होतीं, उन्हें अलग पार्टी नहीं बनानी पड़ती। यही नहीं , कांग्रेस को अपने साथी तलाशने के तौर-तरीके और मापदंड भी बदलने होंगे। यह भी जनादेश का संदेश है।
नीतीश कुमार को जनादेश का संदेश यह है कि किसी राज्य में दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री का सपना नहीं देखना चाहिए। क्योंकि पिछले चुनाव के मुकाबले ममता बनर्जी को 32 सीटों का फायदा हुआ है। वहीं उनका वोट प्रतिशत 8 फीसदी बढ़कर 39 फीसदी हो गया है। फिर भी यह कह रही हैं कि प्रधानमंत्री के लिए मेरा कद छोटा है, मैं पीएम पद के बारे में नहीं सोचती। वामपंथ के लिए संदेश यह है कि एक बार फिर एक होने का समय है। यदि नहीं हो पाए तो मिटने का वक्त आ चुका है।
इन चुनाव के नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों को पंख लगा दिए हैं। उसके लिए सारे संदेश बेहद खुशनुमा हैं। अभी कुछ ही महीनों पहले भाजपा की अरुणाचल प्रदेश में अपनी सरकार के सपने बिखर गए थे। असम ने उससे उपजी हताशा की दिशा बदल देना का काम किया है। भाजपा को यह भी संदेश दिया है कि मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करके ही चुनाव लड़ना होगा। नतीजे यह भी बताते हैं कि अगड़े पिछडे की जगह एक बार फिर भाजपा को सबका साथ सबका की विकास की डगर पर ही चलना होगा। उत्तर प्रदेश मे अगर उसने अगड़ों और पिछड़ों की सियासत की तो सौदा घाटे का होगा क्योंकि यहां पिछड़ों के सर्वमान्य नेता के तौर पर मुलायम सिंह के अलावा जो भी नेता हैं वे बेहद इलाकाई हैं। अगड़े यहां अपनी जगह तलाश रहे हैं। उत्तर प्रदेश में अगड़ों की तादाद करीब 25 फीसदी है। बिना इन्हें साधे स्पष्ट बहुमत की सरकार नहीं बननी है। वर्ष 2007 में जब मायावती ने और जब 2012 में अखिलेश यादव ने स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने मे कामयाबी हासिल की तब यह जमात उनके साथ थी। भाजपा के लिए यह भी संदेश है कि लोकसभा चुनाव का उसका ट्रंपकार्ड अभी चुका नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद हुए उपचुनावों में उसकी पराजय का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। बिलारी और जंगीपुर की सीटों पर हुए उपचुनाव में के नतीजों से भले ही भाजपा यह संदेश जुटा रही है कि कि उसे वोटबैंक तकरीबन 5 गुने का फायदा हुआ है पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इस चुनाव में इन दोनों सीटों पर मायावती मैदान में ही नहीं थी। उसे यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिए कि दलित भाजपा को एकतरफा वोट करेगा। भले ही वह अंबेडकर शरणं गच्छामि हो जाय। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उत्तर प्रदेश का एक चुनाव धुर पश्चिम में था तो दूसरा धुर पूरब में। देखना यह है कि इन जनादेशों के संदेश से कौन नेता क्या और कितना अर्थ जुटाते हुए कितना घटता-बढ़ता है।
यही नहीं, अगर संदेश सार्वभौम नहीं होते तो अल्पमत की सरकारों के दिन लदने के बाद बहुमत की सरकारों का सिलसिला जारी नहीं रहता।असम, तमिलनाडु, केरल, पुदुच्चेरी, पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे इन जीत हार हासिल करने वालों के लिए तो संदेश हैं ही पर संदेश की सार्वभौमिकता के नाते ही दूसरे राज्यों के लिए तमाम संदेश इस जनादेश में निहित है।
यूपी में सरकार चला रहे अखिलेश यादव के लिए यह संदेश है कि अगर अच्छा काम किया होगा तो लौटकर आएंगे। उनके विकास के दावे इस जनादेश के संदेश की खराद पर होंगे। जातीय राजनीति से ऊपर उठकर विकास को भी अपने एजेंडे का हिस्सा बनाने में कितनी कामयाब हुई है यह संदेश इस जनादेश में अखिलेश यादव और मायावती दोनों के लिए है। सिर्फ जातीय समीकरण नहीं चलेंगे यह भी संदेश इस जनादेश में निहित है।
जनादेश त्रिशंकु विधानसभा में अपनी हाथ कुछ लग जाने वाले लोगों को यह जता देता है कि जनता ने 2007 से ही स्पष्ट बहुमत बनाने का ट्रेंड जो शुरू किया है उस पर फिलहाल पलीता नहीं लगने वाला। क्योंकि तमिलनाडु में एम.करुणानिधि ज़िंदगी की अपनी अंतिम ख़्वाहिश के लिए अरदास कर रहे थे फिर भी वहां की जनता ने जयललिता को स्पष्ट बहुमत थमाया। असम में 34 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बाद भी भाजपा ने अपने बूते पर न केवल बहुमत जुटाया बल्कि 48 फीसदी वोट हासिल कर बहुमत की एक नई लकीर खींच दी। इन चुनाव के बाद तकरीबन 36 फीसदी मतदाताओँ की पसंद वाली पार्टी भाजपा बन गयी है। असम के नतीजे उत्तर प्रदेश के नेताओं को यह संदेश देते हैं कि अगर तुष्टीकरण की सियासत हुई तो भाजपा की जमीन यहां और मजबूत होगी। क्योंकि यहां अल्पसंख्यक मतदाताओँ की संख्या का प्रतिशत असम से आधा भी नहीं है।
मायावती के लिए इस जनादेश में यह संदेश है कि उन्हें अपने सियासत का चाल, चरित्र और चेहरा बदलना होगा। ड्रांइगरुम-पालिटिक्स और कास्ट-केमिस्ट्री के दिन लद गये हैं क्योंकि जिन जयललिता और ममता बनर्जी को दोबारा जनादेश मिला है वह जमीन पर सियासत करने वाली नेताओं में शुमार हैं।
कांग्रेस के लिए यह संदेश है कि उसकी राजनीति स्टाइल के दिन लद रहे हैं। उसे नए एजेंडे नये मुद्दे, नई राजनीतिक शैली और नए नेता के साथ जनता के सामने आना होगा। उसे राज्यों में बैठे अपने नेताओं की हैसियत समझनी होगी। कुछ कुछ दिनों में उन्हें हिलाकर यह नहीं देखना होगा कि उनकी जड़ें कितनी गहरी हैं। क्योंकि वह ऐसा नहीं करती तो शायद ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में हाथ का साथ दे रही होतीं, उन्हें अलग पार्टी नहीं बनानी पड़ती। यही नहीं , कांग्रेस को अपने साथी तलाशने के तौर-तरीके और मापदंड भी बदलने होंगे। यह भी जनादेश का संदेश है।
नीतीश कुमार को जनादेश का संदेश यह है कि किसी राज्य में दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री का सपना नहीं देखना चाहिए। क्योंकि पिछले चुनाव के मुकाबले ममता बनर्जी को 32 सीटों का फायदा हुआ है। वहीं उनका वोट प्रतिशत 8 फीसदी बढ़कर 39 फीसदी हो गया है। फिर भी यह कह रही हैं कि प्रधानमंत्री के लिए मेरा कद छोटा है, मैं पीएम पद के बारे में नहीं सोचती। वामपंथ के लिए संदेश यह है कि एक बार फिर एक होने का समय है। यदि नहीं हो पाए तो मिटने का वक्त आ चुका है।
इन चुनाव के नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों को पंख लगा दिए हैं। उसके लिए सारे संदेश बेहद खुशनुमा हैं। अभी कुछ ही महीनों पहले भाजपा की अरुणाचल प्रदेश में अपनी सरकार के सपने बिखर गए थे। असम ने उससे उपजी हताशा की दिशा बदल देना का काम किया है। भाजपा को यह भी संदेश दिया है कि मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करके ही चुनाव लड़ना होगा। नतीजे यह भी बताते हैं कि अगड़े पिछडे की जगह एक बार फिर भाजपा को सबका साथ सबका की विकास की डगर पर ही चलना होगा। उत्तर प्रदेश मे अगर उसने अगड़ों और पिछड़ों की सियासत की तो सौदा घाटे का होगा क्योंकि यहां पिछड़ों के सर्वमान्य नेता के तौर पर मुलायम सिंह के अलावा जो भी नेता हैं वे बेहद इलाकाई हैं। अगड़े यहां अपनी जगह तलाश रहे हैं। उत्तर प्रदेश में अगड़ों की तादाद करीब 25 फीसदी है। बिना इन्हें साधे स्पष्ट बहुमत की सरकार नहीं बननी है। वर्ष 2007 में जब मायावती ने और जब 2012 में अखिलेश यादव ने स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने मे कामयाबी हासिल की तब यह जमात उनके साथ थी। भाजपा के लिए यह भी संदेश है कि लोकसभा चुनाव का उसका ट्रंपकार्ड अभी चुका नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद हुए उपचुनावों में उसकी पराजय का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। बिलारी और जंगीपुर की सीटों पर हुए उपचुनाव में के नतीजों से भले ही भाजपा यह संदेश जुटा रही है कि कि उसे वोटबैंक तकरीबन 5 गुने का फायदा हुआ है पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इस चुनाव में इन दोनों सीटों पर मायावती मैदान में ही नहीं थी। उसे यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिए कि दलित भाजपा को एकतरफा वोट करेगा। भले ही वह अंबेडकर शरणं गच्छामि हो जाय। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उत्तर प्रदेश का एक चुनाव धुर पश्चिम में था तो दूसरा धुर पूरब में। देखना यह है कि इन जनादेशों के संदेश से कौन नेता क्या और कितना अर्थ जुटाते हुए कितना घटता-बढ़ता है।
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