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अजहर की उलटबांसी
साहित्य समाज का दर्पण होता है। सिनेमा भले ही कला हो पर उसके फलक पर बहुत बड़ा हिस्सा साहित्य का होता है। सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालें तो यह तथ्य सत्य होकर उद्घाटित होता है कि साहित्यिक कृतियां ही सिनेमा का आधार हैं। साहित्य, कला और फिल्म के रिश्तों की वजह से ही तीनों हमेशा परिणिति के स्तर पर सुखांत होते हैं। भले ही फिल्म के तीन घंटो के दौरान रुपहले पर्दे पर खलनायक चाहे जितना भी बड़ा साम्राज्य खड़ा कर ले पर अंतिम क्षण उसे नायक से पराजित होना पड़ता है। पिटना पड़ता है। सत्य की विजय सुखांत का एक बड़ा अंश है। पर हाल में एकता कपूर के बालाजी मोशन्स और सोनी पिक्चर्स नेटवर्क की साझेदारी में बनी अजहर फिल्म इस पूरे मौलिक सिद्धांत को उलट कर रख देती है। रजत अरोड़ा द्वारा लिखित और टोनी डिसूजा के निर्देशन वाली यह फिल्म सिर्फ सत्यमेव को खारिज नहीं करती, सिर्फ सुखांत की परंपरा को उलटकर नहीं रख देती बल्कि नायक की खलनायक पर विजय लंबे समय से चली आ रही परंपरा के खिलाफ एक नई इबारत लिखते हुए दिखती है। फिल्में आमतौर पर तमाम गलत चरित्रों को उजागर करने के लिए भी बनी है पर यह फिल्म गलत चरित्र को स्थापित करती हैं। उसके पक्ष में खड़ी होती दिखती हैं।
जिन भी लोगों का क्रिकेट से थोड़ा भी वास्ता होगा वे लोग इस फिल्म को देखने के बाद जरुर निराश हुए होंगे शायद यही वजह है कि फिल्म पूरी मेहनत मशक्कत के बाद 100 करोड़ के इस दौर में महज 20 करोड़ का ही लाभ पा सकी। वह भी तब फिल्म के केंद्रीय पात्र अजहरुद्दीन भारतीय क्रिकेट टीम के न केवल खिलाड़ी रहे हैं बल्कि कांग्रेस भी सांसद भी रहे हैं। उन्होंने अपने समय में त्रिदेव फिल्म के मार्फत धूम मचा देने वाली संगीता बिजलानी से दूसरा विवाह किया था। इन सब से यह पता चलता है कि अजहरउद्दीन का फैन्स क्लब, उनके राजनैतिक समर्थक और उनकी दूसरी पत्नी के प्रशंसक ही नहीं उनके राजनीतिक दल कांग्रेस के फालोवर मिलकर भी इस फिल्म को सफलता की उस उंचाइयों पर नहीं पहुंचा सके। वजह साफ है कि भले ही सत्य इस फिल्म में पराजित हो गया हो। भले ही इस फिल्म में खलनायक जीत गया हो। भले ही इस फिल्म में अजहरुद्दीन के पक्ष में कसीदे गढ़े गये हो पर फिल्म के बाहर के दृश्यों, आख्यानों और वृतान्तों में अजहर की कहानी ठीक उलट है।
हालांकि फिल्म में भी कहानी को जिस तरह से पिरोया गया है उसमें पटकथा , संवाद, दृश्य सब मैच फिक्सिंग के आरोप से घिरे अजहरुद्दीन की वकालत करते नज़र आते हैं। खुद यह फिल्म बताती है कि अजहररुद्दीन ने एक करोड़ रुपये लिए पर उन्हें महान बनाने के लिए फिल्म में यह दिखाया गया है कि उन्होंने पैसे बुकी से इसलिए लिए क्योंकि वह नहीं लेते तो बुकी किसी और से संपर्क करता। उन्होंने पैसे लेकर तत्कालीन भारतीय टीम और उस समय के क्रिकेट प्रेमियों पर बहुत बड़ा एहसान किया। पर पैसा लेने के बाद भी उन्होंने बुकी के लिए कुछ नहीं किया।
वर्ष 1999 से 2000 के दौरान फिक्सिंग की यह कहानी अपने चरम पर पहुंची थी। मामला साउथ अफ्रीका सिरीज का था। साउथ अफ्रीका की 11वीं महान शख्सियत का ओहदा पाए क्रिकेट कप्तान हैंसी क्रोनिए ने भी फिक्सिंग को लेकर गठित किंग्स कमीशन के सामने यह कुबूल किया था कि 1996 में कानपुर के तीसरे टेस्ट मैच में मुकेश गुप्ता नाम के बुकी से भारत के तत्कालीन कप्तान अजहरुद्दीन ने उनका परिचय कराया था। गुप्ता ने साउथ अफ्रीका के सारे विकेट खो देने और मैच हार जाने पर उन्हें 30 हजार डालर देने की बात की थी। दक्षिण अफ्रीका को 460 रन बनाने थे। जब क्रोनिए बुकी मुकेश गुप्ता से यह बात कर रहे थे तो उनकी टीम 127 रन पर पांच विकेट खो चुका था। क्रोनिए ने कमीशन के सामने कहा कि वह खुद आउट हो चुके थे उन्होने किसी खिलाड़ी से कुछ नहीं कहा, वो मैच हार गए। उन्हें ‘कुछ न करने के लिए ’ पैसे मिल गए थे। लेकिन इसके बाद भी क्रोनिए खुद पर लगे आजीवन प्रतिबंध को हटाने के लिए अपने देश की अदालत में गए तो सितंबर 2001 में दाखिल उनकी अर्जी को एक महीने कुछ दिन बाद 17 अक्टूबर 2001 को अदालत ने खारिज कर दिया। लेकिन दिलचस्प यह है कि भारत की अदालत ने अजहरुद्दीन को मेरिट पर नहीं वकालत के जोड़ जुगत के दम पर और तकनीकी तौर पर उन पर लगे क्रिकेट खेलने को लेकर लगे प्रतिबंध को हटाते हुए राहत दे दी।
क्रोनिए और अजहरुद्दीन के मामले में कोई अंतर नहीं था पर कानून की अपनी व्याख्या के चलते भारतीय अदालत ने अजहरुद्दीन पर निगाहे करम कर दी। यह भी कम निराश करने वाला तथ्य नहीं है कि फिक्सिंग के आरोप से घिरे अजहर को काग्रेंस पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद से अपना लोकसभा का उम्मीदवार बनाया। अजहर जीत भी गए। आरोपों के कटघरे में खड़े रहने के दौरान ही उनके हाथ देश का कानून बनाने बदलने की ताकत आ गयी। वह माननीय हो गए। सीबीआई ने जांच के बाद उन्हे यह कहते हुए राहत दे दी थी कि उसके पास कोई कानून इस अभियोग में अजहर और दूसरे खिलाडियों के खिलाफ कार्यवाही करने के लायक ही नहीं है। जबकि इस मामले की जांच कर चुके उत्तराखंड के वरिष्ठ आईपीएस अफसर एम ए गणपति दावा करते हैं कि अजहर के खिलाफ जांच में पुख्ता सबूत थे। उनका दावा तो यह भी है कि जांच के दौरान अजहर और अबू सलेम की मैच फिक्सिंग को लेकर की गयी बातचीत का टेप भी मिला था जिसके बाद अजहर ने बाकायदा सबकुछ कुबूल कर उगल दिया था। उन्होंने खुद ही अजहरुद्दीन पर बनी अजहर फिल्म की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं जब वो दावा करते हैं कि फिल्म से जुडे किसी ने भी सीबीआई में इस जांच के लेकर किसी तरह की कोई खोजबीन नहीं की।
गणपति का सवाल हर उस फिल्म देखने वाले का सवाल है, हर क्रिकेट प्रेमी का सवाल है, हर खेल भावना वाले व्यक्ति का सवाल है, हर राष्ट्र के प्रति सोचने वाले व्यक्ति का सवाल है, इन सभी सवालों का जवाब यह फिल्म नहीं देती। फिल्म कहीं यह नहीं दिखाती कि अजहरुद्दीन जब मैच फिक्सिंग के विवाद में फंसे तो उन्होंने पूरे देश को यह कहकर शर्मसार कर दिया था कि वो अल्पसंख्यक हैं और इसी वजह से उन्हें फंसाया जा रहा। यह सोचे बिना कि इसी देश के लोगों ने उन्हें क्रिकेट कप्तान के तौर पर सिर माथे बिठाया था और इन्हीं लोगों ने उनकी पहली तीन पारियों में लगातार शतक लगाने पर बेमौसम होली-दिवाली और ईद मनाई थी।
फिल्म निर्माता, निर्देशक और उसकी टीम के सर यह पाप जाता है उन्होंने अजहरुद्दीन का एक ऐसा चरित्र पेश किया है जो आज सहज स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने तकनीकी तौर पर अजहर को मिली राहत को उनके व्यक्तित्व का ऐसा अविभाज्य हिस्सा बनाया है जिसमें एक करोड़ रुपये लेकर भी वह गंगाजल की तरह पवित्र हैं। जबकि हैंसी क्रोनिए बिलकुल उसी तरह के आरोपों और अभियोंगों के चलते ताउम्र इस पाप को नहीं धुल पाते हैं। यह फिल्म सिनेमा जगत में एक ऐसी स्थापना करती है जिसमें खलनायक की विजय गाथा लिखने का दौर शुरु हो सकता है। जिसमें किसी भी बड़े आरोपी को पाकसाफ साबित करने के लिए उसकी मदद से एक नई फिल्म बनाने का चलन चल निकल सकता है। अगर यह मनोवृति अजहर फिल्म से आगे चली तो साहित्य समाज का दर्पण होता है यह उक्ति अब अर्थ खो देगी। फिल्म के कला होने का मतलब खत्म हो जाएगा। कल्पना कीजिए अगर यह चलन फिल्म जगत में चल निकला तो फिल्में समाज के लिए बनती हैं इस वाक्य अर्थ तलाशना मुश्किल होगा। अजहरुद्दीन अजहर फिल्म में बेदाग हो सकते हैं। उन पर से प्रतिबंध हट सकता है। जनता के दिलों पर राज करने का उनका हक था वो खत्म हो गया है।
जिन भी लोगों का क्रिकेट से थोड़ा भी वास्ता होगा वे लोग इस फिल्म को देखने के बाद जरुर निराश हुए होंगे शायद यही वजह है कि फिल्म पूरी मेहनत मशक्कत के बाद 100 करोड़ के इस दौर में महज 20 करोड़ का ही लाभ पा सकी। वह भी तब फिल्म के केंद्रीय पात्र अजहरुद्दीन भारतीय क्रिकेट टीम के न केवल खिलाड़ी रहे हैं बल्कि कांग्रेस भी सांसद भी रहे हैं। उन्होंने अपने समय में त्रिदेव फिल्म के मार्फत धूम मचा देने वाली संगीता बिजलानी से दूसरा विवाह किया था। इन सब से यह पता चलता है कि अजहरउद्दीन का फैन्स क्लब, उनके राजनैतिक समर्थक और उनकी दूसरी पत्नी के प्रशंसक ही नहीं उनके राजनीतिक दल कांग्रेस के फालोवर मिलकर भी इस फिल्म को सफलता की उस उंचाइयों पर नहीं पहुंचा सके। वजह साफ है कि भले ही सत्य इस फिल्म में पराजित हो गया हो। भले ही इस फिल्म में खलनायक जीत गया हो। भले ही इस फिल्म में अजहरुद्दीन के पक्ष में कसीदे गढ़े गये हो पर फिल्म के बाहर के दृश्यों, आख्यानों और वृतान्तों में अजहर की कहानी ठीक उलट है।
हालांकि फिल्म में भी कहानी को जिस तरह से पिरोया गया है उसमें पटकथा , संवाद, दृश्य सब मैच फिक्सिंग के आरोप से घिरे अजहरुद्दीन की वकालत करते नज़र आते हैं। खुद यह फिल्म बताती है कि अजहररुद्दीन ने एक करोड़ रुपये लिए पर उन्हें महान बनाने के लिए फिल्म में यह दिखाया गया है कि उन्होंने पैसे बुकी से इसलिए लिए क्योंकि वह नहीं लेते तो बुकी किसी और से संपर्क करता। उन्होंने पैसे लेकर तत्कालीन भारतीय टीम और उस समय के क्रिकेट प्रेमियों पर बहुत बड़ा एहसान किया। पर पैसा लेने के बाद भी उन्होंने बुकी के लिए कुछ नहीं किया।
वर्ष 1999 से 2000 के दौरान फिक्सिंग की यह कहानी अपने चरम पर पहुंची थी। मामला साउथ अफ्रीका सिरीज का था। साउथ अफ्रीका की 11वीं महान शख्सियत का ओहदा पाए क्रिकेट कप्तान हैंसी क्रोनिए ने भी फिक्सिंग को लेकर गठित किंग्स कमीशन के सामने यह कुबूल किया था कि 1996 में कानपुर के तीसरे टेस्ट मैच में मुकेश गुप्ता नाम के बुकी से भारत के तत्कालीन कप्तान अजहरुद्दीन ने उनका परिचय कराया था। गुप्ता ने साउथ अफ्रीका के सारे विकेट खो देने और मैच हार जाने पर उन्हें 30 हजार डालर देने की बात की थी। दक्षिण अफ्रीका को 460 रन बनाने थे। जब क्रोनिए बुकी मुकेश गुप्ता से यह बात कर रहे थे तो उनकी टीम 127 रन पर पांच विकेट खो चुका था। क्रोनिए ने कमीशन के सामने कहा कि वह खुद आउट हो चुके थे उन्होने किसी खिलाड़ी से कुछ नहीं कहा, वो मैच हार गए। उन्हें ‘कुछ न करने के लिए ’ पैसे मिल गए थे। लेकिन इसके बाद भी क्रोनिए खुद पर लगे आजीवन प्रतिबंध को हटाने के लिए अपने देश की अदालत में गए तो सितंबर 2001 में दाखिल उनकी अर्जी को एक महीने कुछ दिन बाद 17 अक्टूबर 2001 को अदालत ने खारिज कर दिया। लेकिन दिलचस्प यह है कि भारत की अदालत ने अजहरुद्दीन को मेरिट पर नहीं वकालत के जोड़ जुगत के दम पर और तकनीकी तौर पर उन पर लगे क्रिकेट खेलने को लेकर लगे प्रतिबंध को हटाते हुए राहत दे दी।
क्रोनिए और अजहरुद्दीन के मामले में कोई अंतर नहीं था पर कानून की अपनी व्याख्या के चलते भारतीय अदालत ने अजहरुद्दीन पर निगाहे करम कर दी। यह भी कम निराश करने वाला तथ्य नहीं है कि फिक्सिंग के आरोप से घिरे अजहर को काग्रेंस पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद से अपना लोकसभा का उम्मीदवार बनाया। अजहर जीत भी गए। आरोपों के कटघरे में खड़े रहने के दौरान ही उनके हाथ देश का कानून बनाने बदलने की ताकत आ गयी। वह माननीय हो गए। सीबीआई ने जांच के बाद उन्हे यह कहते हुए राहत दे दी थी कि उसके पास कोई कानून इस अभियोग में अजहर और दूसरे खिलाडियों के खिलाफ कार्यवाही करने के लायक ही नहीं है। जबकि इस मामले की जांच कर चुके उत्तराखंड के वरिष्ठ आईपीएस अफसर एम ए गणपति दावा करते हैं कि अजहर के खिलाफ जांच में पुख्ता सबूत थे। उनका दावा तो यह भी है कि जांच के दौरान अजहर और अबू सलेम की मैच फिक्सिंग को लेकर की गयी बातचीत का टेप भी मिला था जिसके बाद अजहर ने बाकायदा सबकुछ कुबूल कर उगल दिया था। उन्होंने खुद ही अजहरुद्दीन पर बनी अजहर फिल्म की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं जब वो दावा करते हैं कि फिल्म से जुडे किसी ने भी सीबीआई में इस जांच के लेकर किसी तरह की कोई खोजबीन नहीं की।
गणपति का सवाल हर उस फिल्म देखने वाले का सवाल है, हर क्रिकेट प्रेमी का सवाल है, हर खेल भावना वाले व्यक्ति का सवाल है, हर राष्ट्र के प्रति सोचने वाले व्यक्ति का सवाल है, इन सभी सवालों का जवाब यह फिल्म नहीं देती। फिल्म कहीं यह नहीं दिखाती कि अजहरुद्दीन जब मैच फिक्सिंग के विवाद में फंसे तो उन्होंने पूरे देश को यह कहकर शर्मसार कर दिया था कि वो अल्पसंख्यक हैं और इसी वजह से उन्हें फंसाया जा रहा। यह सोचे बिना कि इसी देश के लोगों ने उन्हें क्रिकेट कप्तान के तौर पर सिर माथे बिठाया था और इन्हीं लोगों ने उनकी पहली तीन पारियों में लगातार शतक लगाने पर बेमौसम होली-दिवाली और ईद मनाई थी।
फिल्म निर्माता, निर्देशक और उसकी टीम के सर यह पाप जाता है उन्होंने अजहरुद्दीन का एक ऐसा चरित्र पेश किया है जो आज सहज स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने तकनीकी तौर पर अजहर को मिली राहत को उनके व्यक्तित्व का ऐसा अविभाज्य हिस्सा बनाया है जिसमें एक करोड़ रुपये लेकर भी वह गंगाजल की तरह पवित्र हैं। जबकि हैंसी क्रोनिए बिलकुल उसी तरह के आरोपों और अभियोंगों के चलते ताउम्र इस पाप को नहीं धुल पाते हैं। यह फिल्म सिनेमा जगत में एक ऐसी स्थापना करती है जिसमें खलनायक की विजय गाथा लिखने का दौर शुरु हो सकता है। जिसमें किसी भी बड़े आरोपी को पाकसाफ साबित करने के लिए उसकी मदद से एक नई फिल्म बनाने का चलन चल निकल सकता है। अगर यह मनोवृति अजहर फिल्म से आगे चली तो साहित्य समाज का दर्पण होता है यह उक्ति अब अर्थ खो देगी। फिल्म के कला होने का मतलब खत्म हो जाएगा। कल्पना कीजिए अगर यह चलन फिल्म जगत में चल निकला तो फिल्में समाज के लिए बनती हैं इस वाक्य अर्थ तलाशना मुश्किल होगा। अजहरुद्दीन अजहर फिल्म में बेदाग हो सकते हैं। उन पर से प्रतिबंध हट सकता है। जनता के दिलों पर राज करने का उनका हक था वो खत्म हो गया है।
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