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जुमलों की जकड़ ने बदली यूपी के सियासत की चाल
साहित्य में किसी भी वाक्य को समझने के लिए प्रसंग और संदर्भ खासा महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रसंग और संदर्भ से कटने के बाद अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती। निसंदेह यही गलती भाजपा नेता रहे दयाशंकर सिंह और बसपा सुप्रीमो मायावती समेत उनके समर्थकों ने भी की। हालांकि मायावती और उनके समर्थकों की गलती प्रसंग और संदर्भ से अलग कुछ नये और असहनीय वाक्य जोड़ देने सरीखी भी है। देश में तमाम नेता सिर्फ अपने बयानों की वजह से जाने जाते हैं। नेताओं में बढ़चढ़ बोलने, अभद्र बोलने, अमर्यादित बोलने, अनाप-शनाप प्रतीक और बिंब गढ़ने के साथ ही साथ आधारहीन चारित्रिक लांछन लगाने के लिए कई नेताओं की छवि रुढ़ हो गयी है।
कभी कोई किसी को मौत का सौदागर कह देता है तो कभी कोई किसी को भूरा बाल साफ करो कहता है तो कभी किसी ने नारा दिया कि तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार। कभी मनुवाद के नाम पर घृणास्पद विचार ही नहीं शब्द भी हथियार बनाये जाते हैं। कभी जातियों को कोसकर सियासत चमकाई जाती है। कभी थू-थू रैली कर दी जाती, तो कभी धिक्कार दिवस मना लिया जाता है। हालांकि यह शब्द उस लोकतांत्रिक परंपरा के ठीक उलट हैं जिसका बीजारोपण डा. भीमराव अंबेडकर ने अपने साथियों के साथ संविधान निर्माण करते समय स्वस्थ लोकतंत्र के लिए किया था। यह भी कम दिलचस्प नहीं है चुनाव के आसपास बयान देकर अपना चेहरा और सियासत चमकाने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं हुई। शायद यही वजह है कि बयान के मार्फत चमकने और चमकाने का खेल चुनाव के आगे-पीछे भी होने लगा है।
भाजपा के नेता रहे दयाशंकर ने बसपा प्रमुख मायावती के पैसा लेकर टिकट बांटने के चलन को बयान करते समय जो उपमा चुनी उसकी निंदा और उसके लिए क्षमा बेहद औपचारिक कहे जाने चाहिए। इसके लिए बड़े दंड़ का प्रावधान होना चाहिए क्योंकि मायावती सिर्फ नेता नहीं है वह तमाम उन लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व भी करती हैं जो कभी उनके साथ खड़े होकर अल्पमत की और कभी बहुमत की सरकार बनवा देते हैं। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने दयाशंकर सिंह के बयान पर जो कार्रवाई की उसमें छह वर्ष के लिए पार्टी के लिए प्रथम दृष्टया थोड़ा भारी-भरकम फैसला लग रहा था। लेकिन जिस तरह बसपा सुप्रीमो ने राज्यसभा में और उनके समर्थको ने देशभर खासतौर पर उत्तर प्रदेश की सड़कों पर उतर कर दयाशंकर की बेटी, पत्नी और मां के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया वह धत्कर्म से भी नीचे का काम है।
यह और दुखद है कि मायावती के सिपहसालार नसीमुद्दीन सिद्दीकी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि उनके साथ सड़क उतरने वाले लोग बेटी पेश करो के जो नारे लगा रहे थे उसका मतलब उन्हें नहीं पता था। नसीमुद्दीन सिद्दीकी यह कहकर अपनी आंख बंद कर किसी अबूझ दिगंबर सच्चाई को देखने से भले बच जाएं पर इससे उनका पाप कम नहीं होता। एक ऐसे समय जब गुजरात के उना में दलितों के साथ हुए अत्याचार का सवाल प्रमुखता से उठना चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक दलित के साथ अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों की बारात न उठने देने की निरंतर घटनाओं के खिलाफ खडा होना चाहिए तब मायावती के लोग अपनी बहन जी की अस्मिता के लिए सड़क पर उतरे यह इसलिए ठीक है क्योंकि वह उनके लिए जिंदा देवी है। लेकिन उन्होंने दयाशंकर के परिवार की महिलाओँ के लिए जो कुछ अपशब्द कहे वे बताते हैं कि महिला और महिला की विभाजक रेखा की उनके मन की खाई में कितनी कुत्सित भावनाएं भरी हैं। वह भी तब जब भारत में सभी शक्तियां नहीं देवताओं के नहीं देवियों के हाथ है। यानी हर महिला देवी है। खुद पर हुए हर हमले को मायावती दलित अस्मिता से कुछ इस तरह जोड़ती है जैसे कुछ अल्पसंख्यक नेता खुद पर हुए हमले और अपने निजी स्वार्थों को इस्लाम पर खतरे और उसकी बेहतरी से जोड़ देते हैं।
अगर मायावती जिंदा देवी हैं तो देश की बाकी महिलाएं भी देवियों की कोटि में ही आती हैं। इस सच से कैसे इनकार किया जा सकता है कि पैसे पर बसपा के टिकट की बात आम है। अभी हाल में बसपा से निकले स्वामी प्रसाद मौर्य, दद्दू प्रसाद, जुगलकिशोर और आर के चौधरी इस बात को तस्दीक करते हैं। हालांकि ऐसा करने से इनके पाप कम नहीं होते क्योंकि वे खुद इस पूरी व्यवस्था के , यदि यह सच है, तो भागीदार रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की सियासत में इसी बीमारी ने बिल्डरों, ठेकेदारों और बाहुबलियों,धनबलियों को माननीय बनने का मौका दिया। राजनीति में प्रतिद्वंदी दलों पर तीखा प्रहार करना आम बात है इसके लिए उत्तर प्रदेश में मायावती अगुवा मानी जाती है। उन्होंने कभी राखी का रिश्ता रखने वाले भाई भजपा नेता लालजी टंडन को लालची टंडन भी कह दिया था। संसद के पटल पर उन्होंने जिस तरह दयाशंकर की गलती पर उनके परिवार के बारे में टिप्पणियां की वह इसी परंपरा को आगे बढ़ाता है। इसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बड़े नेता को बडप्पन दिखाना होता है। राजनीति में नेता का आचरण मायने रखता है। धत्कर्म दयाशंकर ने किया था उसकी सजा उसकी नाबालिग बेटी उसकी पत्नी और उसकी मां को क्यों दी जानी चाहिए।
हालांकि मायावती और उनके पक्ष में सड़क पर उतरे समर्थकों की इसी गलती का नतीजा है कि दयाशंकर के बयान के बाद लोगों में सहानुभूति जुटा की पात्र बन चुकी मायावती की सियासत पूरी की पूरी पलट गयी। जिस तरह दयाशंकर स्वाति सिंह ने एकला चलो की तर्ज पर आगे बढ़कर मोर्चा संभाला। मायावती, नसीमुद्दीन और उनके दर्जनों समर्थकों के खिलाफ मुकदमा लिखवाया उसने बसपा को बैकफुट पर ला दिया। दयाशंकर सिंह से पल्ला झाड़ कर खड़ी हो जाने वाली भाजपा के यूपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने बेटी के सम्मान में भाजपा मैदान के मार्फत जिस तरह बसपा को शिकस्त दी है उससे निसंदेह बसपाइयों को अपने बयान और प्रदर्शन बूमरैंग कर जाने का दर्द सता रहा होगा।
दयाशंकर ने जो कुछ मायावती को कहा वह अक्षम्य अपराध है उसकी ओछी टिप्पणियों के खिलाफ जो उनके लोग सड़क पर उतरे उसे नाजायज नहीं ठहराया जा सकता लेकिन उनके नारे भी कम अशोभनीय नहीं थे। वे बता रहे थे कि राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का कितना क्षरण हो गया है। इस पूरे वाकये में कई अहम सवाल उठ खड़े होते हैं। आखिर कब तक मायावती दलित रहेंगी। चार बार मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्हें दलित रहना चाहिए। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव को ओबीसी को किसी ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए क्या। दलितों के जिंदा देवी का आशीर्वचन दलितों के उत्थान मे क्यों नहीं भागीदारी करता है। दलित और गैरदलित की इज्जत का दायरा अलग अलग क्यों किया जाना चाहिए। क्यों नहीं एक ही गलती के लिए जिम्मेदार आदमी को गैर जिम्मेदार आदमी से बड़ी सजा दी जानी चाहिए। ज्यादा जिम्मेदार आदमी को ज्यादा सजा देनी चाहिए। भाजपा ने दयाशंकर की छुट्टी कर दी। पार्टी से बाहर कर दिया पर मायावती आखिर क्यों नसीमुद्दीन और अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाले अपने नेताओं के बचाव में उतर आई हैं।
क्यों मायावती पर की गयी कोई भी टिप्पणी सियासत का सबब हो उठती है। बसपा के अधिकांश धरना प्रदर्शन मायावती की अस्मिता को लेकर ही हुए हैं। शायद यह पहला राजनीतिक दल है जो जनसमस्याओं के लिए अपनी नेता मायावती जी के लिए ही सड़कों पर उतरता है। यह सब इसलिए है कि लोकतांत्रिक क्षरण का बड़ा शिकार यह दल है। इसमें कोई प्रकोष्ठ कोई प्रशिक्षण अब नहीं होता। बसपा के कांशीराम जी ने कभी कहा था कि वोट, टिकट और बेटी बेचे नहीं जाते किसी लायक आदमी को दिए जाते हैं। कांशीराम के इसी कहे पर अमल ना करने की वजह है कि सभी राजनैतिक दलों के कंधों पर सवार होकर अपनी सियासी पारी खेलने वाली बसपा को स्कूटी पर चलने वाली आम गृहणी शिकस्त देने में कामयाब हुई है।
कभी कोई किसी को मौत का सौदागर कह देता है तो कभी कोई किसी को भूरा बाल साफ करो कहता है तो कभी किसी ने नारा दिया कि तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार। कभी मनुवाद के नाम पर घृणास्पद विचार ही नहीं शब्द भी हथियार बनाये जाते हैं। कभी जातियों को कोसकर सियासत चमकाई जाती है। कभी थू-थू रैली कर दी जाती, तो कभी धिक्कार दिवस मना लिया जाता है। हालांकि यह शब्द उस लोकतांत्रिक परंपरा के ठीक उलट हैं जिसका बीजारोपण डा. भीमराव अंबेडकर ने अपने साथियों के साथ संविधान निर्माण करते समय स्वस्थ लोकतंत्र के लिए किया था। यह भी कम दिलचस्प नहीं है चुनाव के आसपास बयान देकर अपना चेहरा और सियासत चमकाने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं हुई। शायद यही वजह है कि बयान के मार्फत चमकने और चमकाने का खेल चुनाव के आगे-पीछे भी होने लगा है।
भाजपा के नेता रहे दयाशंकर ने बसपा प्रमुख मायावती के पैसा लेकर टिकट बांटने के चलन को बयान करते समय जो उपमा चुनी उसकी निंदा और उसके लिए क्षमा बेहद औपचारिक कहे जाने चाहिए। इसके लिए बड़े दंड़ का प्रावधान होना चाहिए क्योंकि मायावती सिर्फ नेता नहीं है वह तमाम उन लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व भी करती हैं जो कभी उनके साथ खड़े होकर अल्पमत की और कभी बहुमत की सरकार बनवा देते हैं। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने दयाशंकर सिंह के बयान पर जो कार्रवाई की उसमें छह वर्ष के लिए पार्टी के लिए प्रथम दृष्टया थोड़ा भारी-भरकम फैसला लग रहा था। लेकिन जिस तरह बसपा सुप्रीमो ने राज्यसभा में और उनके समर्थको ने देशभर खासतौर पर उत्तर प्रदेश की सड़कों पर उतर कर दयाशंकर की बेटी, पत्नी और मां के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया वह धत्कर्म से भी नीचे का काम है।
यह और दुखद है कि मायावती के सिपहसालार नसीमुद्दीन सिद्दीकी यह कहते नहीं थक रहे हैं कि उनके साथ सड़क उतरने वाले लोग बेटी पेश करो के जो नारे लगा रहे थे उसका मतलब उन्हें नहीं पता था। नसीमुद्दीन सिद्दीकी यह कहकर अपनी आंख बंद कर किसी अबूझ दिगंबर सच्चाई को देखने से भले बच जाएं पर इससे उनका पाप कम नहीं होता। एक ऐसे समय जब गुजरात के उना में दलितों के साथ हुए अत्याचार का सवाल प्रमुखता से उठना चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक दलित के साथ अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों की बारात न उठने देने की निरंतर घटनाओं के खिलाफ खडा होना चाहिए तब मायावती के लोग अपनी बहन जी की अस्मिता के लिए सड़क पर उतरे यह इसलिए ठीक है क्योंकि वह उनके लिए जिंदा देवी है। लेकिन उन्होंने दयाशंकर के परिवार की महिलाओँ के लिए जो कुछ अपशब्द कहे वे बताते हैं कि महिला और महिला की विभाजक रेखा की उनके मन की खाई में कितनी कुत्सित भावनाएं भरी हैं। वह भी तब जब भारत में सभी शक्तियां नहीं देवताओं के नहीं देवियों के हाथ है। यानी हर महिला देवी है। खुद पर हुए हर हमले को मायावती दलित अस्मिता से कुछ इस तरह जोड़ती है जैसे कुछ अल्पसंख्यक नेता खुद पर हुए हमले और अपने निजी स्वार्थों को इस्लाम पर खतरे और उसकी बेहतरी से जोड़ देते हैं।
अगर मायावती जिंदा देवी हैं तो देश की बाकी महिलाएं भी देवियों की कोटि में ही आती हैं। इस सच से कैसे इनकार किया जा सकता है कि पैसे पर बसपा के टिकट की बात आम है। अभी हाल में बसपा से निकले स्वामी प्रसाद मौर्य, दद्दू प्रसाद, जुगलकिशोर और आर के चौधरी इस बात को तस्दीक करते हैं। हालांकि ऐसा करने से इनके पाप कम नहीं होते क्योंकि वे खुद इस पूरी व्यवस्था के , यदि यह सच है, तो भागीदार रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की सियासत में इसी बीमारी ने बिल्डरों, ठेकेदारों और बाहुबलियों,धनबलियों को माननीय बनने का मौका दिया। राजनीति में प्रतिद्वंदी दलों पर तीखा प्रहार करना आम बात है इसके लिए उत्तर प्रदेश में मायावती अगुवा मानी जाती है। उन्होंने कभी राखी का रिश्ता रखने वाले भाई भजपा नेता लालजी टंडन को लालची टंडन भी कह दिया था। संसद के पटल पर उन्होंने जिस तरह दयाशंकर की गलती पर उनके परिवार के बारे में टिप्पणियां की वह इसी परंपरा को आगे बढ़ाता है। इसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। बड़े नेता को बडप्पन दिखाना होता है। राजनीति में नेता का आचरण मायने रखता है। धत्कर्म दयाशंकर ने किया था उसकी सजा उसकी नाबालिग बेटी उसकी पत्नी और उसकी मां को क्यों दी जानी चाहिए।
हालांकि मायावती और उनके पक्ष में सड़क पर उतरे समर्थकों की इसी गलती का नतीजा है कि दयाशंकर के बयान के बाद लोगों में सहानुभूति जुटा की पात्र बन चुकी मायावती की सियासत पूरी की पूरी पलट गयी। जिस तरह दयाशंकर स्वाति सिंह ने एकला चलो की तर्ज पर आगे बढ़कर मोर्चा संभाला। मायावती, नसीमुद्दीन और उनके दर्जनों समर्थकों के खिलाफ मुकदमा लिखवाया उसने बसपा को बैकफुट पर ला दिया। दयाशंकर सिंह से पल्ला झाड़ कर खड़ी हो जाने वाली भाजपा के यूपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने बेटी के सम्मान में भाजपा मैदान के मार्फत जिस तरह बसपा को शिकस्त दी है उससे निसंदेह बसपाइयों को अपने बयान और प्रदर्शन बूमरैंग कर जाने का दर्द सता रहा होगा।
दयाशंकर ने जो कुछ मायावती को कहा वह अक्षम्य अपराध है उसकी ओछी टिप्पणियों के खिलाफ जो उनके लोग सड़क पर उतरे उसे नाजायज नहीं ठहराया जा सकता लेकिन उनके नारे भी कम अशोभनीय नहीं थे। वे बता रहे थे कि राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का कितना क्षरण हो गया है। इस पूरे वाकये में कई अहम सवाल उठ खड़े होते हैं। आखिर कब तक मायावती दलित रहेंगी। चार बार मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्हें दलित रहना चाहिए। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव को ओबीसी को किसी ढाल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए क्या। दलितों के जिंदा देवी का आशीर्वचन दलितों के उत्थान मे क्यों नहीं भागीदारी करता है। दलित और गैरदलित की इज्जत का दायरा अलग अलग क्यों किया जाना चाहिए। क्यों नहीं एक ही गलती के लिए जिम्मेदार आदमी को गैर जिम्मेदार आदमी से बड़ी सजा दी जानी चाहिए। ज्यादा जिम्मेदार आदमी को ज्यादा सजा देनी चाहिए। भाजपा ने दयाशंकर की छुट्टी कर दी। पार्टी से बाहर कर दिया पर मायावती आखिर क्यों नसीमुद्दीन और अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाले अपने नेताओं के बचाव में उतर आई हैं।
क्यों मायावती पर की गयी कोई भी टिप्पणी सियासत का सबब हो उठती है। बसपा के अधिकांश धरना प्रदर्शन मायावती की अस्मिता को लेकर ही हुए हैं। शायद यह पहला राजनीतिक दल है जो जनसमस्याओं के लिए अपनी नेता मायावती जी के लिए ही सड़कों पर उतरता है। यह सब इसलिए है कि लोकतांत्रिक क्षरण का बड़ा शिकार यह दल है। इसमें कोई प्रकोष्ठ कोई प्रशिक्षण अब नहीं होता। बसपा के कांशीराम जी ने कभी कहा था कि वोट, टिकट और बेटी बेचे नहीं जाते किसी लायक आदमी को दिए जाते हैं। कांशीराम के इसी कहे पर अमल ना करने की वजह है कि सभी राजनैतिक दलों के कंधों पर सवार होकर अपनी सियासी पारी खेलने वाली बसपा को स्कूटी पर चलने वाली आम गृहणी शिकस्त देने में कामयाब हुई है।
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