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ऐसा क्या बदल गया कि सब परेशान हैं ...
मई, 2014 में भारत में सिर्फ एक परिवर्तन हुआ था। वह लोकतांत्रिक था। वह यह कि तकरीबन तीन दशक बाद एक ऐसी पार्टी ने स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई जिसे लेकर सियासत करने वाले अपने-अपने ढंग की तमाम प्रतिबद्धताएं रखते थे वह भी तब जबकि आपातकाल के बाद में चुनाव में देश का समूचा वामपंथ इसी दल के साथ सियासी डगर पर चल रहा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में धुर वामपंथ और धुर दक्षिणपंथ की विचारधाराएं एक साथ सियासत कर रही थीं। जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री रहे थे। जनता परिवार की एकजुटता में आज की भारतीय जनता पार्टी भी शामिल थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस नेता वसंत साठे के मार्फत राजीव गांधी का खत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय पहुंचा था। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लेने का मौका दिया था।
आखिर क्या हुआ कि मई 2014 के बाद अचानक देश में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दीवारें खड़ी की जाने लगीं। यह साबित किया जाने लगा कि राजनीतिक रुप से एक अस्पृश्य व्यक्ति देश की सत्ता पर बैठ गया है। यह वैसे ही था जैसे किसी जमाने में अस्पृश्यता की ओट में एक जाति विशेष को निरंतर उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था। जातीय स्तर पर यह उपेक्षा का भाव जरुर बहुत हद तक खत्म हुआ पर सियासी हलकों में यह निरंतर बढ़ता गया। सियासी सामंतों इस ना-काबिले बर्दाश्त मानने की प्रवृत्ति भी इसके साथ लगातार बढ़ती गयी। लोकतंत्र के लिए जनता निर्णायक होती है। देश के लिए संविधान सर्वोपरि होता है। कानून देश को संचालित करने के टूल होते हैं। नरेंद्र मोदी ने देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद न कानून बदले, न संविधान बदला फिर भी इस आशंका को हवा देना कि नरेंद्र मोदी के आने से धर्मनिरपेक्षता आहत हुई है। वैसे तो धर्मनिरपेक्षता शब्द स्वयं ही विवाद का सबब है। पंथ निरपेक्षता की बात होती है। नरेंद्र मोदी को देश की जनता 31.34 फीसदी वोट दिए थे। भारतीय लोकतंत्र के लिए यही बहुमत है। हालांकि बहुमत का आंकडा 51 फीसदी कहा जा सकता है लेकिन आजादी के बाद से सिर्फ एक बार एमरजेंसी के बाद सिर्फ जनता सरकार के समूचे विपक्ष ने जब चुनाव मिलकर इंदिरा गांधी के विरुद्ध लड़ा था तभी उसे 51.89 फीसदी वोट मिले थे। यानी अब तक किसी एक दल ने अपने दम पर इस तरह के बहुमत का आंकडा नहीं छुआ है।
फिर हायतौबा क्यों। यह हायतौबा तब जायज होती जब नरेंद्र मोदी भारत के राजनैतिक शीर्ष पर लोकतंत्र और जनता के आलावा किसी और रास्ते से काबिज होते। यह नहीं हुआ। ऐसे में मई 2014 के बाद से अब तक की हायतौबा पर नज़र डालना जरुरी हो जाता है। वह भी तब जबकि गोमांस खाने के आरोप में एक आदमी को अपनी जान गंवानी पड़ी हो। उस समय देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतें इसे नरेंद्र मोदी के आविर्भाव और स्थापना से जोड़कर देख रही थी। जबकि मामला उत्तर प्रदेश से जुड़ा था जहां मोदी की सरकार नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने सियासी समीकरण को बनाए रखने के लिए यहां तक कहा था कि जो मांस का टुकड़ा जांच के लिए भेजा गया वह अखलाक के घऱ के बाहर से मिला था। किसी की मौत एक बेहद दुख का प्रसंग है। पर उस मौत पर स्यापा पीटकर समाज को बांटने की साजिश रचने वाले लोगों के लिए भी यह स्यापा पीटने का समय है क्योंकि अब उत्तर प्रदेश पुलिस ने प्रतिबंधित गोवंशीय मांस खाने के खिलाफ नोयडा के जारचा थाने में गोहत्या की धाराओं के तहत प्राथमिकी अखलाक के भाई जान मोहम्मद, अखलाक की मां असगरी, अखलाक की पत्नी इकरामन, अखलाक के बेटे दानिश खान, अखलाक की बेटी शाहिस्ता और रिश्तेदार सोनी का नाम शामिल के खिलाफ लिख रही है। उसी समय रोहित वेमुला, केरल में कुली बुर्ला की हत्या हुई। कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें इसे मेरा उन प्रसंगों को समर्थन न माने पर इस सच से आंख मूंदना उचित नहीं होगा कि केरल में भाजपा की सरकार नहीं थी। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा की सरकार नहीं थी।
यह नरेंद्र मोदी का बचाव नहीं है। यह सिर्फ यह बताने की कोशिश है कि नरेद्र मोदी के खिलाफ जिन सवालों को लेकर खड़ा होना चाहिए उनकी जगह समूचा विपक्ष पूरा वामपंथ और कथित-छद्मधर्मनिरपेक्ष ताकतें उन सवालों को लेकर नरेंद्र मोदी को घेर रही हैं जो सवाल समाज में विभाजन की गहरी रेखा खींच रहे है। गहरी खाई गढ़ रहे है। हद तो यह कि कश्मीर में एक आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने पर भी यह ताकतें उसी खाई को और गहरा कर रही हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने तो यहां तक लिखा है जो तटस्थ हैं उन्हें भी इतिहास क्षमा नहीं करेगा। यह लोग तो तटस्थ नहीं आतंक के पक्ष हैं। यह लोग यह बता और जता रहे हैं कि बुरहान वानी की कब्र तमाम नए लड़कों को संदेश देगी। इस मौके पर शहीद भगत सिंह की आत्मा की दुखी करने वाले वाक्य बोल रहे हैं। भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र है जहां समाजहित राष्ट्रहित से ज्यादा ऊपर व्यक्तिगत हित, व्यक्तिहित, जातिहित और विचारधारा हित होता है। इस तरह की मानसिकता वाले लोग विरोध के लिए विरोध करते हैं। इसी के चलते उनके विरोध के स्वर निर्वीर्य हो जाते हैं क्योंकि वह सही सवालों पर सत्ता और सरकार को घेरते नहीं। गलत सवालों पर घेरना बेमानी हो जाता है।
बुरहान वानी के समर्थन में हुई हिंसा और उसके समर्थन मे उठ खडे लोगों और वहां के मंजर देखकर राज्य सरकार और केंद्र सरकार यह सवाल पूछा जाना चाहिए था आखिर पाचं साल में बुरहान वानी इतना बड़ा जनाधार खडा करने में कामयाब कैसे हो गया। सरकार यह अंदेशा क्यों नहीं भांप पाई कि उसकी मौत के बाद क्या क्या हो सकता है। पाकिस्तान कश्मीर में क्या क्या कर रहा है इसका इल्म खुफिया एजेंसियों के मार्फत क्यों नहीं हो पाया। सरकार को घेरने का यह अच्छा मौका इसलिए भी था क्योंकि जम्मू कश्मीर सरकार में केंद्र की भाजपा बराबर की हिस्सेदार है। पर समूचे वामपंथ, कथित-छद्मनिरपेक्ष ताकतों का लक्ष्य राष्ट्रहित नहीं, व्यक्तिहित, व्यक्तिगतहित और विचारधारा हित सर्वोपरि है। तभी तो वे नहीं समझ पा रहे हैं कि बुरहान वानी का समर्थन पाकिस्तान का समर्थन है। आतंकवाद का समर्थन है। पाकिस्तान कश्मीर की जमीन चाहता है। वहां की महिलाओं में है क्योंकि 100 पुरुषों पर 6 महिलाएं कम हैं। हालांकि कश्मीर में भी 100 पुरुषों पर 11 महिलाएँ कम हैं। उसे वहां की जनता नहीं चाहिए। लेकिन भारत की रुचि कश्मीरियत में है। वहां की जनता में है। आतंकवाद की यह लड़ाई जनता बनाम जमीन की है।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में किसी को भी जनत के जीतने की कामना करनी चाहिए। सत्तापक्ष और विपक्ष, वामपंथ और दक्षिणपंथ, धर्मनिरपेक्ष और कथिक छद्मधर्मनिरपेक्ष सबको मिलकर यह कोशिश होनी चाहिए कि सबको यह समझाए कि लड़ाई जनता बनाम जमीन की है। यह समझाने में कोई आगे नहीं आ रहा है। सरकार को इस सवाल पर घेरा जाना चाहिए कि वह आखिर यह क्यों नहीं समझा पा रही है। जबकि एक समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे जगमोहन ने यह समझाने में कामयाबी हासिल की थी तो, उस दौर में कश्मीर के लोग यह कहते थे कि अगर पाकिस्तान, भारत और जगमोहन तीनों में से किसी एक को चुनना हो तो वे जगमोहन को चुनेंगे। सरकार को इस दिशा में बढ़ना चाहिए। समूचे विपक्ष को, वामपंथ और धर्मनिरपेक्षता की अलम थामने वालों को सरकार को इस दिशा में बढने में मजबूर करना चाहिए। क्योंकि अगर इस लडाई को आतंकवाद को समर्थन देने की दिशा में ला जाया गया। बुराहान वानी सरीखे सिरफिरों को पैदा होने की जमीन दी गयी तो कोई भी दूसरा सिरफिरा सर उठाकर यह कह देगा अगर मजहब के नाम पर कश्मीर हमसे हट रहा है तो उसी मजहब के 14 करोड़ लोग जो हमारे समाज की विविधता में एकता की ताना बाना है, भाईचारे की मिसाल हैं जो भारत की संस्कृति के वाहक हैं उसी समरसता के संचालक है, वे भी महजब के नाम पर अलग हो जाएं। कल्पना कीजिए ऐसे दुखद वाक्य को भी झेलना भारत के लिए हमारे समाज के लिए, हमारी संस्कृति के लिए, हमारी सभ्यता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
बांटो और राज करो तो अंग्रेजों का फार्मूला था। अब इसे क्यों आजमाया जा रहा है यह सवाल है। इस सवाल का जवाब लोकतंत्र और जनता पक्ष विपक्ष दोनों से चाहती है। दुनिया को भी देश मजहब को नहीं मानता फिर मजहब के नाम पर समर्थन और विरोध की रीति-नीति खत्म की जानी चाहिए इसी दिशा में कदम बढना चाहिए।
आखिर क्या हुआ कि मई 2014 के बाद अचानक देश में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की दीवारें खड़ी की जाने लगीं। यह साबित किया जाने लगा कि राजनीतिक रुप से एक अस्पृश्य व्यक्ति देश की सत्ता पर बैठ गया है। यह वैसे ही था जैसे किसी जमाने में अस्पृश्यता की ओट में एक जाति विशेष को निरंतर उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था। जातीय स्तर पर यह उपेक्षा का भाव जरुर बहुत हद तक खत्म हुआ पर सियासी हलकों में यह निरंतर बढ़ता गया। सियासी सामंतों इस ना-काबिले बर्दाश्त मानने की प्रवृत्ति भी इसके साथ लगातार बढ़ती गयी। लोकतंत्र के लिए जनता निर्णायक होती है। देश के लिए संविधान सर्वोपरि होता है। कानून देश को संचालित करने के टूल होते हैं। नरेंद्र मोदी ने देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद न कानून बदले, न संविधान बदला फिर भी इस आशंका को हवा देना कि नरेंद्र मोदी के आने से धर्मनिरपेक्षता आहत हुई है। वैसे तो धर्मनिरपेक्षता शब्द स्वयं ही विवाद का सबब है। पंथ निरपेक्षता की बात होती है। नरेंद्र मोदी को देश की जनता 31.34 फीसदी वोट दिए थे। भारतीय लोकतंत्र के लिए यही बहुमत है। हालांकि बहुमत का आंकडा 51 फीसदी कहा जा सकता है लेकिन आजादी के बाद से सिर्फ एक बार एमरजेंसी के बाद सिर्फ जनता सरकार के समूचे विपक्ष ने जब चुनाव मिलकर इंदिरा गांधी के विरुद्ध लड़ा था तभी उसे 51.89 फीसदी वोट मिले थे। यानी अब तक किसी एक दल ने अपने दम पर इस तरह के बहुमत का आंकडा नहीं छुआ है।
फिर हायतौबा क्यों। यह हायतौबा तब जायज होती जब नरेंद्र मोदी भारत के राजनैतिक शीर्ष पर लोकतंत्र और जनता के आलावा किसी और रास्ते से काबिज होते। यह नहीं हुआ। ऐसे में मई 2014 के बाद से अब तक की हायतौबा पर नज़र डालना जरुरी हो जाता है। वह भी तब जबकि गोमांस खाने के आरोप में एक आदमी को अपनी जान गंवानी पड़ी हो। उस समय देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतें इसे नरेंद्र मोदी के आविर्भाव और स्थापना से जोड़कर देख रही थी। जबकि मामला उत्तर प्रदेश से जुड़ा था जहां मोदी की सरकार नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने सियासी समीकरण को बनाए रखने के लिए यहां तक कहा था कि जो मांस का टुकड़ा जांच के लिए भेजा गया वह अखलाक के घऱ के बाहर से मिला था। किसी की मौत एक बेहद दुख का प्रसंग है। पर उस मौत पर स्यापा पीटकर समाज को बांटने की साजिश रचने वाले लोगों के लिए भी यह स्यापा पीटने का समय है क्योंकि अब उत्तर प्रदेश पुलिस ने प्रतिबंधित गोवंशीय मांस खाने के खिलाफ नोयडा के जारचा थाने में गोहत्या की धाराओं के तहत प्राथमिकी अखलाक के भाई जान मोहम्मद, अखलाक की मां असगरी, अखलाक की पत्नी इकरामन, अखलाक के बेटे दानिश खान, अखलाक की बेटी शाहिस्ता और रिश्तेदार सोनी का नाम शामिल के खिलाफ लिख रही है। उसी समय रोहित वेमुला, केरल में कुली बुर्ला की हत्या हुई। कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें इसे मेरा उन प्रसंगों को समर्थन न माने पर इस सच से आंख मूंदना उचित नहीं होगा कि केरल में भाजपा की सरकार नहीं थी। आंध्र प्रदेश में भी भाजपा की सरकार नहीं थी।
यह नरेंद्र मोदी का बचाव नहीं है। यह सिर्फ यह बताने की कोशिश है कि नरेद्र मोदी के खिलाफ जिन सवालों को लेकर खड़ा होना चाहिए उनकी जगह समूचा विपक्ष पूरा वामपंथ और कथित-छद्मधर्मनिरपेक्ष ताकतें उन सवालों को लेकर नरेंद्र मोदी को घेर रही हैं जो सवाल समाज में विभाजन की गहरी रेखा खींच रहे है। गहरी खाई गढ़ रहे है। हद तो यह कि कश्मीर में एक आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने पर भी यह ताकतें उसी खाई को और गहरा कर रही हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने तो यहां तक लिखा है जो तटस्थ हैं उन्हें भी इतिहास क्षमा नहीं करेगा। यह लोग तो तटस्थ नहीं आतंक के पक्ष हैं। यह लोग यह बता और जता रहे हैं कि बुरहान वानी की कब्र तमाम नए लड़कों को संदेश देगी। इस मौके पर शहीद भगत सिंह की आत्मा की दुखी करने वाले वाक्य बोल रहे हैं। भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र है जहां समाजहित राष्ट्रहित से ज्यादा ऊपर व्यक्तिगत हित, व्यक्तिहित, जातिहित और विचारधारा हित होता है। इस तरह की मानसिकता वाले लोग विरोध के लिए विरोध करते हैं। इसी के चलते उनके विरोध के स्वर निर्वीर्य हो जाते हैं क्योंकि वह सही सवालों पर सत्ता और सरकार को घेरते नहीं। गलत सवालों पर घेरना बेमानी हो जाता है।
बुरहान वानी के समर्थन में हुई हिंसा और उसके समर्थन मे उठ खडे लोगों और वहां के मंजर देखकर राज्य सरकार और केंद्र सरकार यह सवाल पूछा जाना चाहिए था आखिर पाचं साल में बुरहान वानी इतना बड़ा जनाधार खडा करने में कामयाब कैसे हो गया। सरकार यह अंदेशा क्यों नहीं भांप पाई कि उसकी मौत के बाद क्या क्या हो सकता है। पाकिस्तान कश्मीर में क्या क्या कर रहा है इसका इल्म खुफिया एजेंसियों के मार्फत क्यों नहीं हो पाया। सरकार को घेरने का यह अच्छा मौका इसलिए भी था क्योंकि जम्मू कश्मीर सरकार में केंद्र की भाजपा बराबर की हिस्सेदार है। पर समूचे वामपंथ, कथित-छद्मनिरपेक्ष ताकतों का लक्ष्य राष्ट्रहित नहीं, व्यक्तिहित, व्यक्तिगतहित और विचारधारा हित सर्वोपरि है। तभी तो वे नहीं समझ पा रहे हैं कि बुरहान वानी का समर्थन पाकिस्तान का समर्थन है। आतंकवाद का समर्थन है। पाकिस्तान कश्मीर की जमीन चाहता है। वहां की महिलाओं में है क्योंकि 100 पुरुषों पर 6 महिलाएं कम हैं। हालांकि कश्मीर में भी 100 पुरुषों पर 11 महिलाएँ कम हैं। उसे वहां की जनता नहीं चाहिए। लेकिन भारत की रुचि कश्मीरियत में है। वहां की जनता में है। आतंकवाद की यह लड़ाई जनता बनाम जमीन की है।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में किसी को भी जनत के जीतने की कामना करनी चाहिए। सत्तापक्ष और विपक्ष, वामपंथ और दक्षिणपंथ, धर्मनिरपेक्ष और कथिक छद्मधर्मनिरपेक्ष सबको मिलकर यह कोशिश होनी चाहिए कि सबको यह समझाए कि लड़ाई जनता बनाम जमीन की है। यह समझाने में कोई आगे नहीं आ रहा है। सरकार को इस सवाल पर घेरा जाना चाहिए कि वह आखिर यह क्यों नहीं समझा पा रही है। जबकि एक समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे जगमोहन ने यह समझाने में कामयाबी हासिल की थी तो, उस दौर में कश्मीर के लोग यह कहते थे कि अगर पाकिस्तान, भारत और जगमोहन तीनों में से किसी एक को चुनना हो तो वे जगमोहन को चुनेंगे। सरकार को इस दिशा में बढ़ना चाहिए। समूचे विपक्ष को, वामपंथ और धर्मनिरपेक्षता की अलम थामने वालों को सरकार को इस दिशा में बढने में मजबूर करना चाहिए। क्योंकि अगर इस लडाई को आतंकवाद को समर्थन देने की दिशा में ला जाया गया। बुराहान वानी सरीखे सिरफिरों को पैदा होने की जमीन दी गयी तो कोई भी दूसरा सिरफिरा सर उठाकर यह कह देगा अगर मजहब के नाम पर कश्मीर हमसे हट रहा है तो उसी मजहब के 14 करोड़ लोग जो हमारे समाज की विविधता में एकता की ताना बाना है, भाईचारे की मिसाल हैं जो भारत की संस्कृति के वाहक हैं उसी समरसता के संचालक है, वे भी महजब के नाम पर अलग हो जाएं। कल्पना कीजिए ऐसे दुखद वाक्य को भी झेलना भारत के लिए हमारे समाज के लिए, हमारी संस्कृति के लिए, हमारी सभ्यता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
बांटो और राज करो तो अंग्रेजों का फार्मूला था। अब इसे क्यों आजमाया जा रहा है यह सवाल है। इस सवाल का जवाब लोकतंत्र और जनता पक्ष विपक्ष दोनों से चाहती है। दुनिया को भी देश मजहब को नहीं मानता फिर मजहब के नाम पर समर्थन और विरोध की रीति-नीति खत्म की जानी चाहिए इसी दिशा में कदम बढना चाहिए।
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