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न तुम जीते, न हम जीते...
रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय, टूटे पे फिर न जुड़े, जुड़े गांठ परि जाय। भले ही समाजवादी पार्टी में उठा तूफान शांत हो गया हो। भले ही अखिलेश यादव इस लिहाज से विजेता बनकर उभरे हों कि पार्टी का टिकट वह बांटेंगे, युवा संगठन उनके कब्जे में है। पार्टी के ज्यादातर युवा उन्हें ही नेता मानते हैं। वह दो-दो हाथ कर सकते हैं। वह नेता जी की कही सुन भी सकते हैं और नहीं भी सुन सकते हैं। शिवपाल यादव इसलिए विजेता हैं कि मुख्यमंत्री की लाख चाहत के बाद प्रदेश अध्यक्ष का पद उनके हाथ से नहीं गया। हालांकि उनके हाथ वह लोकनिर्माण विभाग नहीं आया जिसके लिए बड़ी मशक्कत कर अनुपूरक बजट में भारी धनराशि आवंटित कराने में उन्होंने सफलता पाई थी ताकि चुनावी वर्ष में सड़कों की शिकायत न रहे। मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल यादव की पार्टी में भूमिका को लेकर जो कुछ कहा उसने मुलायम के मन में और पार्टी के अंदर उन्हें एक नया नायकत्व प्रदान किया।
मुलायम सिंह यादव इसलिए विजेता बनकर उभरे क्योंकि उन्होंने बेटे और भाई की जंग में ऐसे रेफरी की भूमिका निभाई जिसमे वह जो चाहते थे वही हुआ। सबको अपने तलवारें म्यान में रखनी पड़ी। इस जंग का हर योद्धा यह कहता रहा कि जो नेताजी कहेंगे वही माना जाएगा। पर शांत पड़ चुकी जंग और जीत-हार में सचमुच देखा जाय तो सब लोग हारे हैं। कोई नहीं जीता है। पार्टी भी हारी है, मुलायम सिंह यादव भी हारे है। अखिलेश यादव भी हारे हैं। शिवपाल यादव भी हारें हैं। रामगोपाल यादव भी हारें। सबकी हार के अलग-अलग फलक और निहितार्थ हैं। हालांकि यह फलक और यह निहितार्थ उन्हें दिख रहे हैं कि नहीं यह कहना जरुर मुश्किल है। इस लडाई ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर जंग की शांति चिर स्थाई है या एक विशेष कालखंड का हिस्सा।
जिस तरह शिवपाल के लोग और अखिलेश के लोग पार्टी कार्यालय से लेकर सपा सुप्रीमो के घर तक आमने-सामने आए। अखिलेश के लोगों सजंय लाठर, आनंद भदौरिया, सुनील सिंह साजन, बृजेश यादव, गौरव दुबे, मो एबाद, दिग्विजय सिंह के खिलाफ कार्यवाई हुई, उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। जिस तरह एक निजी चैनल के कार्यक्रम में अखिलेश यादव और शिवपाल यादव ने अपने दर्द बयां करते हुए निजी रिश्तों की तमाम पोशीदा परतें खोलीं। जिस तरह पार्टी में पहली बार एक दूसरे के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगे। जिस तरह पार्टी में पहली बार जिस रामगोपाल यादव ने शिवपाल यादव को अध्यक्ष बनाने की चिट्ठी जारी की, उन्ही रामगोपाल यादव ने निजी चैनल पर बातचीत में इस प्रक्रिया को गलत ठहराते हुए यह कहा कि लोग नेताजी की सरलता का फायदा उठाते हैं । यह कहकर उन्होंने मुलायम सिंह यादव की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़े किए हैं। जिस तरह बाहर के व्यक्ति के नाम पर अमर सिंह को निशाने पर लिया गया। मुख्यमंत्री के इस कहने को कि लडाई परिवार की नहीं सरकार की है को जिस तरह बेमानी करार दिया गया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मार्फत पार्टी में आए मुकेश श्रीवास्तव के पोस्टर पर जिस तरह प्रमुखता से सिर्फ अखिलेश यादव और डिंपल यादव का फोटो होना। गाजियाबाद में हुए हज हाउस के उद्घाटन के होर्डिंग पर मुलायम सिंह यादव का चित्र गायब होना क्या यह नहीं बताता कि सियासी शोले भले ही बाहर से बुझे दिख रहे हों पर जब भी हल्की सी हवा चलेगी इनके दहकने की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि जिस गायत्री प्रजापति को मुख्यमंत्री पसंद नहीं करते चौथी बार मंत्रीपद की शपथ दिलानी पड़ रही है। जिस अमर सिंह को पार्टी में आज़म खान, अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव देखना नहीं चाहते उन्हें मुलायम सिंह यादव ने अपने हस्ताक्षर से महासचिव पद पर नियुक्त कर दिया।
इतने मनभेद और विवाद हैं कि प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर जिन उम्मीदवारों का नाम शिवपाल यादव छाटेंगे उस पर सहमति असहमति के सवाल उठना लाजमी है। असहमति होगी तो शिवपाल यादव को खराब लगेगा सहमति बनी तो मुख्यमंत्री के लिए खराब होगा। अखिलेश ने इस पूरे घटनाक्रम में समाजवादियों का चरित्र बखान करते हुए एक बात कही- ‘ज्यादा दिन समाजवादी एक साथ नहीं रहते हैं।’ इस ‘ज्यादा दिन’ की लक्ष्मण रेखा कब और कौन खींचेंगा यह नहीं कहा जा सकता पर इसका चरितार्थ होना दूर की कौड़ी भी नहीं कही जाएगी क्योंकि अखिलेश यादव के जो लोग सड़क पर उतरे उन्होंने शिवपाल यादव के खिलाफ नारे लगाए। सैफई से लेकर लखनऊ तक शिवपाल समर्थकों ने रामगोपाल के खिलाफ आवाज बुलंद की। रामगोपाल- अखिलेश की नज़र में अमर सिंह बाहरी है तो शिवपाल की नजर में रामगोपाल परिवार के सदस्य नही है। भले ही अखिलेश यादव ने कहा हो कि यह परिवार की नहीं, सरकार की लडाई है यह उलट गया। यह साबित हो गया कि परिवार की लडाई सरकार तो दूर कुर्सी तक आकर सिमट गयी है। तभी तो अखिलेश के सम्मान में, युवा मैदान में का नारा लगाते हए नौजवानों को बताना पड़ा कि शिवपाल की अहमियत क्या है। उन्होंने कहा कि शिवपाल की मानता तो प्रधानमंत्री होता। शिवपाल कह रहे थे कि 2012 के चुनाव के बाद मुझे (मुलायम सिंह यादव) मुख्यमंत्री बनना चाहिए था। अखिलेश को 2014 के बाद मुख्यमंत्री बनाया जाता। मैं ऐसा करता तो लोकसभा में बड़ी कामयाबी मिलती। नेताजी न्याय करो का नारा लगा रहे उत्साही युवाओं को उन्होंने यह भी बताया कि वह मेरा बेटा है तुम उसकी फोटो मुझे दिखा रहे हो। उसका दर्द और उसकी बेहतरी मुझसे ज्यादा चाह रहे हो।
मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह की भी उपयोगिता बताई। उनके कहने पर भले ही अखिलेश यादव ने फौरी तौर पर कई मामलो में यू-टर्न ले लिया हो पर उसे पचाना अखिलेश य़ादव के लिए लंबे समय तक मुश्किल दिख रहा है। हालांकि अखिलेश यादव को यह समझना चाहिए कि राजनीति विरोधों के समुच्चय को लेकर चलने का बड़ा मुकाम है। अखिलेश यादव जिस तरह विधानसभा में जिस तरह टिकट बांटने का हक मांग रहे हैं वह उन्हें मुलायम सिंह यादव ने बहुत पहले दे रखा है। हालांकि उन्हें यह इल्म उसी तरह नहीं है जिस तरह साढ़े चार साल सरकार चलाने के बाद इस विवाद के बाद यह महसूस कर पाए कि सारे युवा संगठनों के सर्वेसर्वा वही है।
अखिलेश यादव को मुख्य़मंत्री बनाकर मुलायम सिंह यादव ने परिवार और पार्टी में अपनी विरासत तय कर दी थी। सपा का कोई ऐसा पम्पलेट, लिफलेट और होर्डिंग दस्तावेज नहीं हो सकता जो अखिलेश यदाव के चित्र के बिना पूर हो। शिवपाल भले ही मुलायम के अंग-संग रहे हों पर पिछली बार मुलायम सिंह यादव ने रथ-यात्रा निकालने का अवसर अखिलेश यादव को दिया। सपा का कोई कोरम अखिलेश के बिना पूरा नहीं हो सकता तो टिकट बंटवारा अखिलेश के बिना संभव कैसे है। विधान परिषद चुनाव में तो अखिलेश यादव की ही चली थी। फिर उन्हें अपने न चलने का इल्म क्यों हो रहा है।
अखिलेश यादव ने काम चाहे जितना किया हो। घोषणा पत्र पूरा करने में कामयाब रहे हों पर जिस देश में विकास ही सिर्फ चुनाव का एजेंडा न हो वहां यह बेमानी है। यहां जातीय समीकरण भी गांठने पड़ते है। कानून व्यवस्था देखनी पड़ती है। तीन-तेरह भी करना पड़ता है। तेरह-तीन भी करना पड़ता है। यह सब करने में अखिलेश यादव कितने कामयाब हुए है यह तो जनता बताएगी। पर यह तो जरुर है कि एकजुट होकर जनता के बीच जाने के दावे अब पानी में खींची हुई लकीर की तरह लगने लगी है। क्योंकि नेता भले ही एकजुट हो जाएँ पर जिस तरह पार्टी के कार्यकर्ता बंटे हैं इनका एक होना संभव नहीं दिखता है।
समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के लोग, रामगोपाल के लोग , शिवपाल के लोग और अखिलेश के लोग में बंटी नज़र आ रही है।यह बंटवारा शिद्दत से तैयार किए गये माई(मुस्लिम-यादव) समीकरण में सेंध ना लगाए। इसे चुनाव तक सहेज कर रखने की जरुरत है। चुनाव तक शिवपाल यादव ने जो अच्छे काम किए, अखिलेश यादव ने जो अच्छे काम किए। और भी मंत्रियों ने जो काम किए उन सबको पतवार बनाने की जररुत है। जो इस घटना में बोले गये वाक्यों, प्रकट की गयी सहानुभूति और संवेदनाओं, पैचअप कराई गयी प्रक्रिया के बावजूद नहीं दिखती है, क्योंकि लडाई कुर्सी की है महत्वाकांक्षाओं की है। राजनीति में महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित या अनुशासित रखना जटिल काम है।
मुलायम सिंह यादव इसलिए विजेता बनकर उभरे क्योंकि उन्होंने बेटे और भाई की जंग में ऐसे रेफरी की भूमिका निभाई जिसमे वह जो चाहते थे वही हुआ। सबको अपने तलवारें म्यान में रखनी पड़ी। इस जंग का हर योद्धा यह कहता रहा कि जो नेताजी कहेंगे वही माना जाएगा। पर शांत पड़ चुकी जंग और जीत-हार में सचमुच देखा जाय तो सब लोग हारे हैं। कोई नहीं जीता है। पार्टी भी हारी है, मुलायम सिंह यादव भी हारे है। अखिलेश यादव भी हारे हैं। शिवपाल यादव भी हारें हैं। रामगोपाल यादव भी हारें। सबकी हार के अलग-अलग फलक और निहितार्थ हैं। हालांकि यह फलक और यह निहितार्थ उन्हें दिख रहे हैं कि नहीं यह कहना जरुर मुश्किल है। इस लडाई ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि आखिर जंग की शांति चिर स्थाई है या एक विशेष कालखंड का हिस्सा।
जिस तरह शिवपाल के लोग और अखिलेश के लोग पार्टी कार्यालय से लेकर सपा सुप्रीमो के घर तक आमने-सामने आए। अखिलेश के लोगों सजंय लाठर, आनंद भदौरिया, सुनील सिंह साजन, बृजेश यादव, गौरव दुबे, मो एबाद, दिग्विजय सिंह के खिलाफ कार्यवाई हुई, उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। जिस तरह एक निजी चैनल के कार्यक्रम में अखिलेश यादव और शिवपाल यादव ने अपने दर्द बयां करते हुए निजी रिश्तों की तमाम पोशीदा परतें खोलीं। जिस तरह पार्टी में पहली बार एक दूसरे के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगे। जिस तरह पार्टी में पहली बार जिस रामगोपाल यादव ने शिवपाल यादव को अध्यक्ष बनाने की चिट्ठी जारी की, उन्ही रामगोपाल यादव ने निजी चैनल पर बातचीत में इस प्रक्रिया को गलत ठहराते हुए यह कहा कि लोग नेताजी की सरलता का फायदा उठाते हैं । यह कहकर उन्होंने मुलायम सिंह यादव की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़े किए हैं। जिस तरह बाहर के व्यक्ति के नाम पर अमर सिंह को निशाने पर लिया गया। मुख्यमंत्री के इस कहने को कि लडाई परिवार की नहीं सरकार की है को जिस तरह बेमानी करार दिया गया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मार्फत पार्टी में आए मुकेश श्रीवास्तव के पोस्टर पर जिस तरह प्रमुखता से सिर्फ अखिलेश यादव और डिंपल यादव का फोटो होना। गाजियाबाद में हुए हज हाउस के उद्घाटन के होर्डिंग पर मुलायम सिंह यादव का चित्र गायब होना क्या यह नहीं बताता कि सियासी शोले भले ही बाहर से बुझे दिख रहे हों पर जब भी हल्की सी हवा चलेगी इनके दहकने की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि जिस गायत्री प्रजापति को मुख्यमंत्री पसंद नहीं करते चौथी बार मंत्रीपद की शपथ दिलानी पड़ रही है। जिस अमर सिंह को पार्टी में आज़म खान, अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव देखना नहीं चाहते उन्हें मुलायम सिंह यादव ने अपने हस्ताक्षर से महासचिव पद पर नियुक्त कर दिया।
इतने मनभेद और विवाद हैं कि प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर जिन उम्मीदवारों का नाम शिवपाल यादव छाटेंगे उस पर सहमति असहमति के सवाल उठना लाजमी है। असहमति होगी तो शिवपाल यादव को खराब लगेगा सहमति बनी तो मुख्यमंत्री के लिए खराब होगा। अखिलेश ने इस पूरे घटनाक्रम में समाजवादियों का चरित्र बखान करते हुए एक बात कही- ‘ज्यादा दिन समाजवादी एक साथ नहीं रहते हैं।’ इस ‘ज्यादा दिन’ की लक्ष्मण रेखा कब और कौन खींचेंगा यह नहीं कहा जा सकता पर इसका चरितार्थ होना दूर की कौड़ी भी नहीं कही जाएगी क्योंकि अखिलेश यादव के जो लोग सड़क पर उतरे उन्होंने शिवपाल यादव के खिलाफ नारे लगाए। सैफई से लेकर लखनऊ तक शिवपाल समर्थकों ने रामगोपाल के खिलाफ आवाज बुलंद की। रामगोपाल- अखिलेश की नज़र में अमर सिंह बाहरी है तो शिवपाल की नजर में रामगोपाल परिवार के सदस्य नही है। भले ही अखिलेश यादव ने कहा हो कि यह परिवार की नहीं, सरकार की लडाई है यह उलट गया। यह साबित हो गया कि परिवार की लडाई सरकार तो दूर कुर्सी तक आकर सिमट गयी है। तभी तो अखिलेश के सम्मान में, युवा मैदान में का नारा लगाते हए नौजवानों को बताना पड़ा कि शिवपाल की अहमियत क्या है। उन्होंने कहा कि शिवपाल की मानता तो प्रधानमंत्री होता। शिवपाल कह रहे थे कि 2012 के चुनाव के बाद मुझे (मुलायम सिंह यादव) मुख्यमंत्री बनना चाहिए था। अखिलेश को 2014 के बाद मुख्यमंत्री बनाया जाता। मैं ऐसा करता तो लोकसभा में बड़ी कामयाबी मिलती। नेताजी न्याय करो का नारा लगा रहे उत्साही युवाओं को उन्होंने यह भी बताया कि वह मेरा बेटा है तुम उसकी फोटो मुझे दिखा रहे हो। उसका दर्द और उसकी बेहतरी मुझसे ज्यादा चाह रहे हो।
मुलायम सिंह यादव ने अमर सिंह की भी उपयोगिता बताई। उनके कहने पर भले ही अखिलेश यादव ने फौरी तौर पर कई मामलो में यू-टर्न ले लिया हो पर उसे पचाना अखिलेश य़ादव के लिए लंबे समय तक मुश्किल दिख रहा है। हालांकि अखिलेश यादव को यह समझना चाहिए कि राजनीति विरोधों के समुच्चय को लेकर चलने का बड़ा मुकाम है। अखिलेश यादव जिस तरह विधानसभा में जिस तरह टिकट बांटने का हक मांग रहे हैं वह उन्हें मुलायम सिंह यादव ने बहुत पहले दे रखा है। हालांकि उन्हें यह इल्म उसी तरह नहीं है जिस तरह साढ़े चार साल सरकार चलाने के बाद इस विवाद के बाद यह महसूस कर पाए कि सारे युवा संगठनों के सर्वेसर्वा वही है।
अखिलेश यादव को मुख्य़मंत्री बनाकर मुलायम सिंह यादव ने परिवार और पार्टी में अपनी विरासत तय कर दी थी। सपा का कोई ऐसा पम्पलेट, लिफलेट और होर्डिंग दस्तावेज नहीं हो सकता जो अखिलेश यदाव के चित्र के बिना पूर हो। शिवपाल भले ही मुलायम के अंग-संग रहे हों पर पिछली बार मुलायम सिंह यादव ने रथ-यात्रा निकालने का अवसर अखिलेश यादव को दिया। सपा का कोई कोरम अखिलेश के बिना पूरा नहीं हो सकता तो टिकट बंटवारा अखिलेश के बिना संभव कैसे है। विधान परिषद चुनाव में तो अखिलेश यादव की ही चली थी। फिर उन्हें अपने न चलने का इल्म क्यों हो रहा है।
अखिलेश यादव ने काम चाहे जितना किया हो। घोषणा पत्र पूरा करने में कामयाब रहे हों पर जिस देश में विकास ही सिर्फ चुनाव का एजेंडा न हो वहां यह बेमानी है। यहां जातीय समीकरण भी गांठने पड़ते है। कानून व्यवस्था देखनी पड़ती है। तीन-तेरह भी करना पड़ता है। तेरह-तीन भी करना पड़ता है। यह सब करने में अखिलेश यादव कितने कामयाब हुए है यह तो जनता बताएगी। पर यह तो जरुर है कि एकजुट होकर जनता के बीच जाने के दावे अब पानी में खींची हुई लकीर की तरह लगने लगी है। क्योंकि नेता भले ही एकजुट हो जाएँ पर जिस तरह पार्टी के कार्यकर्ता बंटे हैं इनका एक होना संभव नहीं दिखता है।
समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह के लोग, रामगोपाल के लोग , शिवपाल के लोग और अखिलेश के लोग में बंटी नज़र आ रही है।यह बंटवारा शिद्दत से तैयार किए गये माई(मुस्लिम-यादव) समीकरण में सेंध ना लगाए। इसे चुनाव तक सहेज कर रखने की जरुरत है। चुनाव तक शिवपाल यादव ने जो अच्छे काम किए, अखिलेश यादव ने जो अच्छे काम किए। और भी मंत्रियों ने जो काम किए उन सबको पतवार बनाने की जररुत है। जो इस घटना में बोले गये वाक्यों, प्रकट की गयी सहानुभूति और संवेदनाओं, पैचअप कराई गयी प्रक्रिया के बावजूद नहीं दिखती है, क्योंकि लडाई कुर्सी की है महत्वाकांक्षाओं की है। राजनीति में महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित या अनुशासित रखना जटिल काम है।
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