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Aaj Ka Rashifal

हम ही राम, हम ही रावण

Dr. Yogesh mishr
Published on: 15 Oct 2016 10:39 AM IST
पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ में राम-रावण युद्ध, रावण वध एक खास महत्वपूर्ण कथा से जुड़ा है। यह युद्ध और यह वध मानवीय अर्थ में कई संदर्भ समेटे हुए है। यह सिर्फ असत्य पर सत्य की विजय नहीं, अधर्म पर धर्म की विजय नहीं है इसका मानवीय पहलू यह भी है कि कोई भी समस्या हो, उसका एक नाभिक होता है। हर चीज का एक केंद्र होता है। आमतौर पर हम जीवन में करते यह है कि समस्या के छिलके उतारते रहते हैं। समस्या की सतह पर यात्रा करते रहते हैं समस्या का फौरी इलाज करते हैं। मसलन तनाव है तो कर्फ्यू लगा देते है। अगर किसी घटना में कोई काल कवलित हो गया तो सहायता राशि दे देते हैं, संतुष्टीकरण करते हैं, पर हम यह भूल जाते हैं कि हर समस्या का एक केंद्र होता है। हम यह नहीं पता करते कि इन समस्याओँ का केंद्र क्या है। हमारे समाने मुंह बाए खड़ी समस्याएं यह भी बताती हैं कि रावण की नाभि में अमृत है। समस्याएँ रावण हैं।
भारत पाकिस्तान के बीच तनाव है। कश्मीर इस तनाव का हाथ, सिर, आंख, पैर कुछ भी हो सकता है पर समस्या की नाभि में दूसरी चीजें हैं। वह भारत-पाकिस्तान के बनने से पहले से हैं। ‘डायरेक्ट एक्शन’ के ऐलान के समय से है। शायद यही वजह है कि जहां मंदिर है वहीं मस्जिद बनाना जरुरी है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रवाद बांटों और राज करो सरीखे मसलों पर बात करना कठिन हैं। क्योंकि इनके फौरी समाधान ने, तात्कालिक राहत के बाद जिंदा हो जाने की तरह अमरत्व प्राप्त कर लिया है। हमेशा रावण के दस सिर कटने के बाद बार-बार उठकर खड़ी हो जाती है। बडे-बड़े राम इन समस्या की नाभि में तीर चलाने से चूक जाते हैं। रावण सफलता और विफलता दोनों को बताने वाला पात्र है।
रावण का मुकाबला करने के लिए आपको राम बनना होगा। हर साल रावण वध के बाद भी मर नहीं पाता। लंका में राम के हाथ मारे जाने के बाद भी रावण के मरने का प्रसंग हर साल आता है। यह महज इसलिए क्योंकि कोई भी राम नहीं बन पाता। तुलसीदास ने रामचरित मानस के लंका कांड में लिखा है
रावन रथी विरथ रघुवीरा।
देखि विभीषण भयउ अधीरा॥
यानी रावण लड़ने आया तो रथ पर था, राम पैदल थे। अपने आस पास देखें तो लंकाकांड की चौपाई की यह लाइनें एकदम यथार्थ दिखती हैं। रावण हमेशा रथ पर मिलता है। आज भी सत्य का राम पैदल ही होता है। गांधी पैदल थे अंग्रेज रथ पर सवार थे। रथ को केवल वाहन का प्रतीक नहीं माना जाना चाहिए. यह संसाधनों की विषद व्याख्या है। यह विस्तार की अनकही कहानी है। आज सांप्रदायिकता, पूंजीवाद, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, जातीयता, क्षेत्रवाद का रावण रथ पर ही है। पर इसे लेकर परेशान रहने वाले इसकी वजह से जमीन पर हैं। पदैल हैं। रावण यह बताता है कि उसके दस सिर हैं, आम आदमी की पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां होती है। लेकिन इनका वह उचित इस्तेमाल नहीं कर पाता है तो यह किसी काम की नहीं रह जाती हैं। इंद्रियां बोध पैदा करने के लिए होती हैं। बोध पैदा करती हैं। जब आप इंद्रियो के बोध का एहसास करते हैं तो राम की तरह किसी भी रावण का वध कर सकते हैं लेकिन प्रायः लेकिन प्रायः बोध प्रतिशोध में बदल जाता है।
मानस से हमें यह सबक लेने चाहिए कि राम ने रावण युद्ध और रावण वध में सीता हरण का प्रतिशोध नहीं लिया था। जबकि रावण ने अपनी बहन शूपर्णखा के नाक काटे जाने के प्रतिशोध मे सीता हरण किया था। वह बोध जो प्रतिशोध में बदल जाता है, रावण बनाता है। बोध करुणा, दया, मदद में बदलता है तो राम बनाता है। राम रावण धर्म और अधर्म की संस्कृति के प्रतीक हैं। राम ने मनुष्य के रुप में हर धर्म का निर्वाह किया था रावण ने सिर्फ स्वधर्म का निर्वाह किया था। राम के धर्म में पुत्र का धर्म, भाई का धर्म, शिष्य का धर्म, राजा का धर्म, पति का धर्म, पिता का धर्म, आपद धर्म आदि इत्यादि सबका निर्वाह किया था। रावण ने इनमें किसी एक धर्म के पालन की पूर्णता नहीं हासिल की थी।
यह रावण का दहन प्रतीकात्मक है। इसे हमने नाटक बना रखा है, तमाशा बना रखा है। जहां नाभि में अमृत है हम वहां हर साल बाण मारने से चूक जाते हैं, यह चूक महज इसलिए होती है क्योंकि हम राम के स्वरुप नहीं, राम के स्वांग में होते हैं। रावण के स्वरुप से राम का स्वांग ज्यादा हानिकारक है। सत्य का स्वांग, असत्य को मजबूत करता है और सत्य् को झुठलाता है। यह स्वीकार और इनकार करने की परंपरा और प्रक्रिया राम के स्वांग को ज्यादा आत्मघाती बना देती है। यही स्वांग समस्याओं के नाभि का बोध नहीं करने देता।
आपने कभी भी किसी भी दशहरे में किसी रावण के पुतला दहन में यह नहीं देखा होगा कि राम के तरकश से निकला कोई तीर कागजी रावण के नाभि तक जा पहुंचता हो। तीर या आग का कोई दूसरा प्रक्षेपित शस्त्र सिर्फ रावण के पुतले को जलाने के काम आता है। अब तो वह रावण के दस शीश भी नहीं काट पाता। अग्नि धीरे-धीरे रावण के दस शीश जलाती है। हमें राम रावण युद्ध, रावण वध में नाभि और केंद्र को खुली आंखों से देखना होगा। वहीं विषमता का विष भरा हुआ है। हालांकि वह हमारी आंखों से ओझल है क्योंकि इस पूरे युद्ध को, इस पूरी कथा हम पारंपरिक और पौराणिक ही मान बैठे हैं। पारंपरिक और पौराणिक मानने की वजह से यथार्थ कम, नाटकीयता, प्रहसन, स्वांग, उत्स और मनोरंजन भर दिया है। यह युद्ध, यह विजय गाथा, यह पराजय महज एक युद्ध नहीं है। महज पौराणिक कथा नहीं है।
असत्य पर सत्य की विजय सिर्फ एक परिघटना नहीं है। यह एक परंपरा है जिसे हमें स्थानंतरित करना चाहिए, पर राम बनके। हम समस्याओं के रावण की तरह इसे जुमले के मानिंद याद रखने के लिए स्थानांतरित कर रहे हैं। नतीजतन, इस पौराणिक कथा से इस परंपरा से, इस प्रक्रिया जो संदेश पीढ़ी दर पीढ़ी जाने चाहिए वह नहीं जा पा रहे हैं। शायद नहीं, निश्चित ही हर समस्या का रावणी रूप लेने की वजह ही यही है। अगर भारत के जन्म को आजादी के वर्ष 1947 से मान लिया जाय हालांकि भारत का लिखित इतिहास इससे कई लाख साल पुराना है, रामायण और महाभारत के काल खंड क्रमशः 10 हजार और 5 हजार वर्ष पहले के बताया जाते हैं। छठी शताब्दी ईसवी पूर्व यानी 2600 साल पहले ही भारत गणराज्यों में विकसित था परंतु हम भारत को 1947 में एक पुनर्जन्म लिया हुआ एक देश कुबूल कर लें और अब से तब तक की समस्याओं का सिंहावलोकन करें तो अनंत ऐसे तथ्य हाथ लगते हैं जो बताते हैं कि समस्याओं के सिर निरंतर बढ़ रहे हैं। समस्याएं रोज अमृतपान कर रही। बहुत सी समस्याओं को यह अमृत हम ही मुहैया कर रहे हैं। पर हम इसे भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
हम अभी तक अपनी भूमिका तय नहीं कर पाएं हैं। हम अभी तक इस कथा का कोई एक चरित्र नहीं ओढ़ पाए हैं। हम अपनी सुविधानुसार भूमिकाएं बदलते रहते हैं। हम जब रावण की भूमिका अख्तियार तब उसे एक प्रकांड पंडित बातते हुए फूले नहीं समाते। हम  राम की भूमिका तब ओढते हैं जब अपने ही किए दिये से अपने ही तैयार किए रावण से पराजित होने लगते हैं। पौराणिक कथाएं अथवा परंपराएँ सिर्फ शब्द चित्र नहीं होते। उनमें अनंत अर्थ होते हैं और संदेश भी। हम निरंतर उन्हें स्थूल चित्रों की भांति अख्तियार कर उन्हें मनोरंजन की वस्तु बना लेते हैं।
रामायण के ये दोनों पात्र ही नहीं हर पात्र संदेश है। इसके बाद लिखी गयी रामचरित मानस में जीवन की शायद ही ऐसी कोई दिक्कत अथवा समस्या हो जिसका निदान न हो। जिसका जिक्र न हो। एक बार ट्रेन से मैं यात्रा कर रहा था बस्ती के पास टिनिच स्टेशन पर ट्रेन रुकी, एक नौजवान ट्रेन से खुद उतरा और फिर तबतक ट्रेन चल निकली बाद में डिब्बे से न उतर सकने के कारण उसकी पत्नी चिल्लाने लगी। लोगों ने चेनपुलिंग कर उसकी पत्नी को उतारा। डिब्बे में यात्रा कर रहे मानस के ज्ञानी बुजुर्ग ने सलाह दी कि अगर मानस पढी होती तो यह गलती तुम न करते। मानस में लिखा है- ‘सिय उतार उतरहिं रघुनाथा।‘ राम ने पहले नाव से सीता को उतारा था। अगर तुमने पहले अपनी पत्नी को उतार दिया होता तो ही दिक्कत होती ही नहीं। आदमी के परस्त्री गामी होने पर प्रतिरोधक क्षमता कम होने का जिक्र भी मानस में है। मानस की लोकप्रियता की बड़ी वजह उसकी राम श्लाका चौपाई भी है जो आपकी हर समस्या का जवाब प्रश्न कुंडली की तरह फलित ज्योतिष से देती है।
हर व्यक्ति में राम और रावण दोनों होते हैं राम और रावण दोनों जीते हैं आपको हर पल रावण को मारना है, राम को विजयी बनाना है। राम की यही विजय यात्रा रावण की नाभि देखने का बोध देगी। यह आपको नाभि तक तीर मारने की शक्ति देगी। इसी विजय यात्रा को जारी रखना है तभी राम-रावण युद्ध में रावण के पराजय के अर्थ होंगे। इस पारंपरिक और पौराणिक के मानवीय अर्थ विस्तार पा सकेंगे।

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Dr. Yogesh mishr

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