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तकरार-ए-तीन तलाक
गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में कहा है -
धरम सनेह उभय मति घेरी। भइ गति साँप छछूंदर केरी।
राखउ सुतहिं करउं अनुरोधू। धरम जाइ अरु बन्धु विरोघू।।''
तलाक-तलाक-तलाक को लेकर समूचा विपक्ष इन दिनों यही स्थिति जी रहा है। विधि आयोग द्वारा जारी किए गये सोलह प्रश्न यह चुगली करते हैं कि सरकार समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढा रही है। हालांकि सरकार का पक्ष रखते हुए अरुण जेटली ने अपने ब्लाग और वैंकैया नायडू इसे मुस्लिम महिलाओँ के अन्य धर्म की महिलाओँ के बराबर के हक की लडाई बता रहे हैं।
लखनऊ के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ तौर पर संदेश दिया था कि बौद्ध, जैन, सिख, हिन्दू अथवा किसी और संप्रदाय की महिला के अधिकारों में अंतर नहीं होना चाहिए। मोदी के इस नजरिए को समर्थन भी मिला। यह महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि एक तरफ केंद्र सरकार अदालत में जेरे-बहस तीन तलाक के मुद्दे पर अपना पक्ष रखती हो, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री सभी महिलाओँ की बराबरी की जरुरत पर बल देते हों। तीन तलाक से आजादी और तीन तलाक संविधान और बराबरी के हक के खिलाफ है यह स्वर मुस्लिम महिलाओं की ओर से भी बुलंद होने लगे हैं। टेलीफोन पर तलाक, व्हास्टएप पर तलाक, नशे में तलाक, मदहोशी में तलाक, बदहवासी तलाक कुछ ऐसा हो गया था जिसने मुस्लिम महिलाओं के सामने सचमुच कई सवाल खड़े कर दिए थे। तलाक के बाद गुजारे भत्ते के लिए मुस्लिम महिलाओं की जद्दोजेहद इतनी पेचीदगी भरी रहती है कि उनके हौसलों का टूट जाना आम चलन है।
उत्तर प्रदेश की मुख्य पारिवारिक अदालतों के आंकडे बताते हैं कि 16 फीसदी आबादी वाले इस जमात के तकरीबन 30 फीसदी मुकदमे पारिवारिक अदालतो में है। इनमें तलाक नहीं, अधिकांश गुजारा भत्ता के मामले हैं क्योंकि मुस्लिम पुरुष के पास तलाक का सर्वाधिकार सुरक्षित है। भारत में उसे एक साथ तीन तलाक बोलकर अपनी पत्नी से छुट्टी पाने का हक हासिल है। जबकि शरई तौर पर एक बार तलाक बोलने का दो माह का और फिर दूसरी बार के बाद एक माह का अंतर होना चाहिए।
पाकिस्तान समेत ज्यादातर मुस्लिम देशो में तलाक का भारतीय चलन स्वीकार्य नहीं है। तलाक के शरीयत के चलन को तमाम मुस्लिम देशों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, टर्की, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरोक्को, ईरान, मिस्त्र और साइप्रस समेत कई देशो में तीन तलाक कहकर पति-पत्नी को अलग होने का मौका नहीं मिल सकता है। ट्यूनिशिया, अलजीरिया व मलेशिया में अदालत के बाहर किसी तलाक को वैध नहीं माना जाता है। श्रीलंका में मुस्लिम ऐक्ट में ऐसे संशोधन किए गये हैं ताकि सीधे तलाक नहीं दिया जा सके। अल्जीरिया में 90 दिन का समय अनिवार्य है। पाकिस्तान में 1961 के मुस्लिम फैमली ला आर्डिनेंस के मुताबिक तलाक लेने वाले को स्थानीय सरकारी काउंसिल के चेयरमैन को और बीवी को नोटिस देनी होती है। 90 दिन का समय जरुरी होता है। ऐसा न करने पर एक साल की जेल और 5 हजार का जुर्माना है। मोरोक्को में पहली पत्नी की रजामंदी और जज की इजाजत के बिना दूसरा निकाह नहीं हो सकता। इंडोनेशिया में दूसरे निकाह और तलाक के लिए धार्मिक अदालत से इजाजत जरुरी होती है। अल्जीरिया में पुरुष द्वारा तलाक देने के एकतरफा अधिकार को खत्म किया जा चुका है। वहां तलाक अदालतों के मार्फत होते हैं। अफगानिस्तान में एक साथ तीन तलाक कहकर तलाक लेना गैरकानूनी है।
पाकिस्तान में 1961 से, बांग्लादेश में 1971 से, मिस्त्र में 1929 से, सूडान में 1935 से, सीरिया में 1953 से तीन तलाक पूरी तरह प्रतिबंधित है। लेकिन भारत में अभी भी तीन तलाक मुस्लिम पुरुषों का सबसे बड़ा हथियार है। इसके खिलाफ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड अब तीन तलाक के पक्ष में खडा हो गया है। ऐसे में यह जानना हो गया गया कि आखिर मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को तलाक और इससे जुड़े गुजारा भत्ते के सवाल पर बोलने का हक कैसे हासिल है। यह एक गैर सरकारी संगठन है जिसका गठन साल 1973 में हुआ। कुछ साल पहले तक इस बोर्ड में महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती थी। हाल-फिलहाल इस लिहाज से इस बोर्ड के लोग कुछ उदार हुए है। पर अभी भी महिलाओँ का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। इस बोर्ड के निर्देश और नियम अहमदिया मुसलमानों पर लागू नहीं होते हैं। यहां तक कि अहमदिया मुस्लिम इस पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य भी नहीं है। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के तमाम फैसलों पर न केवल सवाल उठे हैं बल्कि क्षुब्ध होकर शियाओं ने अपना और महिलाओँ ने अपना आल इंडिया मुस्लिम महिला ला बोर्ड बना लिया है। मुसलमानों का एक तबका इसे अपना प्रतिनिधि संगठन नहीं मानता है और इनके अपनी जमात की तरफ से बोलने के हक पर सवाल खड़ा करता रहा है।
दिलचस्प यह है कि फिर भी पर्सनल ला बोर्ड ऐसी वकालत कर रहा है जिसका वह इसलिए हकदार नहीं है क्योंकि एक अलग आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल ला बोर्ड भी वजूद में है। इस पूरे मामले में सरकार की उपस्थिति मुस्लिम महिला आदोलन की पहल पर हुए केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगे जाने पर सिर्फ अपनी राय देने से शुरु होती है। हालांकि पर्सनल ला बोर्ड सरकार के इस स्टैंड को समान नागरिक संहिता में सरकारी हस्तक्षेप की प्रचारित करते हुए इसे धार्मिक सियासी रंग दे रहा है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानों को उसके वकील पति मोहम्मद खान द्वारा वर्ष 1978 में तलाक देने के बाद सात साल तक गुजारा भत्ता पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लडाई लडनी पड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया। उसी समय शाहबुद्दीन और दूसरी मुस्लिम नेताओं तथा आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर दबाव बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से पलटवा दिया। लेकिन बाद में राजीव गांधी को लगा कि यह गलत फैसला हो गया है तो उन्होंने संतुलन साधने के लिए क्रिया और प्रतिक्रिया के सिद्धांत को जगह न मिले इसलिए अयोध्या में राममंदिर का शिलांयास कराया था। देखा जाय तो सांप्रदायिकता के उफान का बीज उसी समय पड़ा।
मुसलमानों की आर्थिक समाजिक स्थिति पर काम करने वाले जस्टिस राजिंदर सच्चर ने भी तीन तलाक के भारतीय चलन पर सवाल खड़े किये है। मुसलमानों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने वाला हर सियासी दल और नेता अपने भाषण में सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू करने की बात जरुर कहता है पर वह जस्टिस सच्चर की तीन तलाक वाली बात मानने को तलाक नहीं है। विधि आयोग ने जो प्रश्नावली जारी की है उसमें बहुपत्नी प्रथा, बहु पति प्रथा, मुत-आ निकाह, मैत्री करार, और चिन्ना-बी-उडु पर भी राय मांगी है। यह सारे तरीके हिंदुओं के इलाकाई समुदाय में विवाह की प्रथा के रुप में चलन में है। जब हिंदुओं में विवाह, तलाक और गुजारे भत्ते को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हों तब मुस्लिम महिलाओँ को इन्हीं सवालों पर अलग कैसे किया जा सकता है।
नरेंद्र मोदी की जगह कोई और सरकार होती तो शायद उसके लिए जरुर यह आसान होता। नरेंद्र मोदी के लिए यह मुश्किल इसलिए है क्योंकि अगर वे इसे अलग-अलग कर देते है तो प्रतीकों में वह सबका साथ और सबका विकास की बात कहते है उस पर सवाल खड़ा हो जाएगा। विपक्षी दलो के लिए ही नहीं मोदी के लिए भी सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखना सांप छछुंदर की गति सरीखा ही था। राजनीति कोई मौके नहीं चूकती है। मोदी मौके पर न चूकने वाले इन दिनों सबके कुशल राजनेता हैं। ऐसे में ऐसे विचारधारा- 370, समान नागरिक संहिता और मंदिर जैसे मुद्दों पर मिलने वाले अवसर को वह क्यों गवांते। नतीजतन उन्होंने लपककर तेजी से कदम आगे बढ़ा दिया।
कल तक जो बात मोदी की विचारधारा पर राजनीति करने वाले कह रहे थे उसे अब मुस्लिम महिलाओं के स्वर मिलने लगे हैं। बराबरी के हक के नाम पर वहां उन्हं जगह मिल रही है जिसके लिए वह अस्पृश्य थे और यह भी एक कठोर सच्चाई है कि हिंदू और मुस्लिम महिला के पेट और भूख में अंतर नहीं होना चाहिए। भूख को धर्म के मुअल्लमे से नहीं ढाका जा सकता है। जो महिलाएं इसके पक्ष में खड़ी हुई हैं उन्हें काफिर नहीं कहा जा सकता है। शाहबानो के समय से अब तक सदी बदल चुकी है। बदली हुई सदी में देश, काल, परिस्थिति के लिहाज से बदलाव बेहद जरुरी है। अगर आधी आबादी किसी भी धर्म, संप्रदाय और जाति की उपेक्षा का जीवन व्यतीत करेगी तो उसका निर्माण ठीक नहीं हो सकता है। हिंदू कोड बिल आया था तब भी विरोध हुआ था। हिंदू कोड बिल पारित होने से ही मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को संहिताबद्ध (कोडीफाई) किए जाने की मांग उठती रही है। दरअसल मुस्लिम पर्सनल ला को लेकर उठ रहे तमाम विवादों और इसके मनमाफिक अर्थ निकालने से बचना ही सबसे बेहतर रास्ता कहा जा सकता है।
धरम सनेह उभय मति घेरी। भइ गति साँप छछूंदर केरी।
राखउ सुतहिं करउं अनुरोधू। धरम जाइ अरु बन्धु विरोघू।।''
तलाक-तलाक-तलाक को लेकर समूचा विपक्ष इन दिनों यही स्थिति जी रहा है। विधि आयोग द्वारा जारी किए गये सोलह प्रश्न यह चुगली करते हैं कि सरकार समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढा रही है। हालांकि सरकार का पक्ष रखते हुए अरुण जेटली ने अपने ब्लाग और वैंकैया नायडू इसे मुस्लिम महिलाओँ के अन्य धर्म की महिलाओँ के बराबर के हक की लडाई बता रहे हैं।
लखनऊ के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ तौर पर संदेश दिया था कि बौद्ध, जैन, सिख, हिन्दू अथवा किसी और संप्रदाय की महिला के अधिकारों में अंतर नहीं होना चाहिए। मोदी के इस नजरिए को समर्थन भी मिला। यह महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि एक तरफ केंद्र सरकार अदालत में जेरे-बहस तीन तलाक के मुद्दे पर अपना पक्ष रखती हो, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री सभी महिलाओँ की बराबरी की जरुरत पर बल देते हों। तीन तलाक से आजादी और तीन तलाक संविधान और बराबरी के हक के खिलाफ है यह स्वर मुस्लिम महिलाओं की ओर से भी बुलंद होने लगे हैं। टेलीफोन पर तलाक, व्हास्टएप पर तलाक, नशे में तलाक, मदहोशी में तलाक, बदहवासी तलाक कुछ ऐसा हो गया था जिसने मुस्लिम महिलाओं के सामने सचमुच कई सवाल खड़े कर दिए थे। तलाक के बाद गुजारे भत्ते के लिए मुस्लिम महिलाओं की जद्दोजेहद इतनी पेचीदगी भरी रहती है कि उनके हौसलों का टूट जाना आम चलन है।
उत्तर प्रदेश की मुख्य पारिवारिक अदालतों के आंकडे बताते हैं कि 16 फीसदी आबादी वाले इस जमात के तकरीबन 30 फीसदी मुकदमे पारिवारिक अदालतो में है। इनमें तलाक नहीं, अधिकांश गुजारा भत्ता के मामले हैं क्योंकि मुस्लिम पुरुष के पास तलाक का सर्वाधिकार सुरक्षित है। भारत में उसे एक साथ तीन तलाक बोलकर अपनी पत्नी से छुट्टी पाने का हक हासिल है। जबकि शरई तौर पर एक बार तलाक बोलने का दो माह का और फिर दूसरी बार के बाद एक माह का अंतर होना चाहिए।
पाकिस्तान समेत ज्यादातर मुस्लिम देशो में तलाक का भारतीय चलन स्वीकार्य नहीं है। तलाक के शरीयत के चलन को तमाम मुस्लिम देशों ने भी प्रतिबंधित कर रखा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, टर्की, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरोक्को, ईरान, मिस्त्र और साइप्रस समेत कई देशो में तीन तलाक कहकर पति-पत्नी को अलग होने का मौका नहीं मिल सकता है। ट्यूनिशिया, अलजीरिया व मलेशिया में अदालत के बाहर किसी तलाक को वैध नहीं माना जाता है। श्रीलंका में मुस्लिम ऐक्ट में ऐसे संशोधन किए गये हैं ताकि सीधे तलाक नहीं दिया जा सके। अल्जीरिया में 90 दिन का समय अनिवार्य है। पाकिस्तान में 1961 के मुस्लिम फैमली ला आर्डिनेंस के मुताबिक तलाक लेने वाले को स्थानीय सरकारी काउंसिल के चेयरमैन को और बीवी को नोटिस देनी होती है। 90 दिन का समय जरुरी होता है। ऐसा न करने पर एक साल की जेल और 5 हजार का जुर्माना है। मोरोक्को में पहली पत्नी की रजामंदी और जज की इजाजत के बिना दूसरा निकाह नहीं हो सकता। इंडोनेशिया में दूसरे निकाह और तलाक के लिए धार्मिक अदालत से इजाजत जरुरी होती है। अल्जीरिया में पुरुष द्वारा तलाक देने के एकतरफा अधिकार को खत्म किया जा चुका है। वहां तलाक अदालतों के मार्फत होते हैं। अफगानिस्तान में एक साथ तीन तलाक कहकर तलाक लेना गैरकानूनी है।
पाकिस्तान में 1961 से, बांग्लादेश में 1971 से, मिस्त्र में 1929 से, सूडान में 1935 से, सीरिया में 1953 से तीन तलाक पूरी तरह प्रतिबंधित है। लेकिन भारत में अभी भी तीन तलाक मुस्लिम पुरुषों का सबसे बड़ा हथियार है। इसके खिलाफ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड अब तीन तलाक के पक्ष में खडा हो गया है। ऐसे में यह जानना हो गया गया कि आखिर मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को तलाक और इससे जुड़े गुजारा भत्ते के सवाल पर बोलने का हक कैसे हासिल है। यह एक गैर सरकारी संगठन है जिसका गठन साल 1973 में हुआ। कुछ साल पहले तक इस बोर्ड में महिलाओं को सदस्यता नहीं दी जाती थी। हाल-फिलहाल इस लिहाज से इस बोर्ड के लोग कुछ उदार हुए है। पर अभी भी महिलाओँ का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। इस बोर्ड के निर्देश और नियम अहमदिया मुसलमानों पर लागू नहीं होते हैं। यहां तक कि अहमदिया मुस्लिम इस पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य भी नहीं है। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के तमाम फैसलों पर न केवल सवाल उठे हैं बल्कि क्षुब्ध होकर शियाओं ने अपना और महिलाओँ ने अपना आल इंडिया मुस्लिम महिला ला बोर्ड बना लिया है। मुसलमानों का एक तबका इसे अपना प्रतिनिधि संगठन नहीं मानता है और इनके अपनी जमात की तरफ से बोलने के हक पर सवाल खड़ा करता रहा है।
दिलचस्प यह है कि फिर भी पर्सनल ला बोर्ड ऐसी वकालत कर रहा है जिसका वह इसलिए हकदार नहीं है क्योंकि एक अलग आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल ला बोर्ड भी वजूद में है। इस पूरे मामले में सरकार की उपस्थिति मुस्लिम महिला आदोलन की पहल पर हुए केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगे जाने पर सिर्फ अपनी राय देने से शुरु होती है। हालांकि पर्सनल ला बोर्ड सरकार के इस स्टैंड को समान नागरिक संहिता में सरकारी हस्तक्षेप की प्रचारित करते हुए इसे धार्मिक सियासी रंग दे रहा है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानों को उसके वकील पति मोहम्मद खान द्वारा वर्ष 1978 में तलाक देने के बाद सात साल तक गुजारा भत्ता पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लडाई लडनी पड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया। उसी समय शाहबुद्दीन और दूसरी मुस्लिम नेताओं तथा आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर दबाव बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से पलटवा दिया। लेकिन बाद में राजीव गांधी को लगा कि यह गलत फैसला हो गया है तो उन्होंने संतुलन साधने के लिए क्रिया और प्रतिक्रिया के सिद्धांत को जगह न मिले इसलिए अयोध्या में राममंदिर का शिलांयास कराया था। देखा जाय तो सांप्रदायिकता के उफान का बीज उसी समय पड़ा।
मुसलमानों की आर्थिक समाजिक स्थिति पर काम करने वाले जस्टिस राजिंदर सच्चर ने भी तीन तलाक के भारतीय चलन पर सवाल खड़े किये है। मुसलमानों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने वाला हर सियासी दल और नेता अपने भाषण में सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू करने की बात जरुर कहता है पर वह जस्टिस सच्चर की तीन तलाक वाली बात मानने को तलाक नहीं है। विधि आयोग ने जो प्रश्नावली जारी की है उसमें बहुपत्नी प्रथा, बहु पति प्रथा, मुत-आ निकाह, मैत्री करार, और चिन्ना-बी-उडु पर भी राय मांगी है। यह सारे तरीके हिंदुओं के इलाकाई समुदाय में विवाह की प्रथा के रुप में चलन में है। जब हिंदुओं में विवाह, तलाक और गुजारे भत्ते को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हों तब मुस्लिम महिलाओँ को इन्हीं सवालों पर अलग कैसे किया जा सकता है।
नरेंद्र मोदी की जगह कोई और सरकार होती तो शायद उसके लिए जरुर यह आसान होता। नरेंद्र मोदी के लिए यह मुश्किल इसलिए है क्योंकि अगर वे इसे अलग-अलग कर देते है तो प्रतीकों में वह सबका साथ और सबका विकास की बात कहते है उस पर सवाल खड़ा हो जाएगा। विपक्षी दलो के लिए ही नहीं मोदी के लिए भी सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखना सांप छछुंदर की गति सरीखा ही था। राजनीति कोई मौके नहीं चूकती है। मोदी मौके पर न चूकने वाले इन दिनों सबके कुशल राजनेता हैं। ऐसे में ऐसे विचारधारा- 370, समान नागरिक संहिता और मंदिर जैसे मुद्दों पर मिलने वाले अवसर को वह क्यों गवांते। नतीजतन उन्होंने लपककर तेजी से कदम आगे बढ़ा दिया।
कल तक जो बात मोदी की विचारधारा पर राजनीति करने वाले कह रहे थे उसे अब मुस्लिम महिलाओं के स्वर मिलने लगे हैं। बराबरी के हक के नाम पर वहां उन्हं जगह मिल रही है जिसके लिए वह अस्पृश्य थे और यह भी एक कठोर सच्चाई है कि हिंदू और मुस्लिम महिला के पेट और भूख में अंतर नहीं होना चाहिए। भूख को धर्म के मुअल्लमे से नहीं ढाका जा सकता है। जो महिलाएं इसके पक्ष में खड़ी हुई हैं उन्हें काफिर नहीं कहा जा सकता है। शाहबानो के समय से अब तक सदी बदल चुकी है। बदली हुई सदी में देश, काल, परिस्थिति के लिहाज से बदलाव बेहद जरुरी है। अगर आधी आबादी किसी भी धर्म, संप्रदाय और जाति की उपेक्षा का जीवन व्यतीत करेगी तो उसका निर्माण ठीक नहीं हो सकता है। हिंदू कोड बिल आया था तब भी विरोध हुआ था। हिंदू कोड बिल पारित होने से ही मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को संहिताबद्ध (कोडीफाई) किए जाने की मांग उठती रही है। दरअसल मुस्लिम पर्सनल ला को लेकर उठ रहे तमाम विवादों और इसके मनमाफिक अर्थ निकालने से बचना ही सबसे बेहतर रास्ता कहा जा सकता है।
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