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क्या ऐसे बढ़ेगी समाजवाद की उम्र...
समाजवाद को लंबी उम्र देने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर उठाए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पिछले दिनों जब यह कोट दोहरा रहे थे- ‘समाजवादी बहुत दिनों तक साथ नहीं रहते’ तब किसी को अंदाजा नहीं था कि बहुत दिनों के लिए कही गयी बात कुछ दिनों में तब्दील हो जाएगी। समाजवाद को परिवारवाद में बांधकर किसी तरह रखने की कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। हालांकि समाजवाद ने इस कलेवर में 25 साल की यात्रा की। आजकल के लोकतंत्र में सिर्फ एक नियम तय है कि जब परिवार के पास सत्ता आ जाय तो परिवार में ही रहे। नए लोकतांत्रिक पुरोधाओं की धारणा यह है कि सत्ता परिवार से बाहर गयी तो पार्टी टूट जाएगी। बिहार में नीतिश कुमार ने इस धारा के खिलाफ जोखिम लेते हुए जीतन राम मांझी को जगह दी पर उनके भी हाथ जल गये। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने आजकल के लोकतंत्र के इस फार्मूले पर अमल किया तो भी उनकी पार्टी टूट के कगार पर है।
परिवार का सबकुछ हर एक कार्यकर्ता और नेता के सामने ही नहीं मीडिया के सामने ही दिगंबर है। हर छोटी बड़ी बात, रिश्तों का कसैलापन एक दूसरे के प्रति मन में बैठी मैल। एक दूसरे के खिलाफ साजिशों का साया। सबकुछ मुखर होते समाजवादी कार्यकर्ताओं ने बीते सोमवार को देखा। स्थापना दिवस की तैयारी के लिए बुलाई गई बैठक पहले साफ-सफाई और फिर संग्राम में तब्दील हो गयी। मुख्यमंत्री ने भावुक और भीगे स्वर में मुलायम सिंह यादव ऩे जो भी करने को कहा उसके करने का दावा किया साथ ही कहा कि वह पुत्र का धर्म निभाएंगे। पार्टी नहीं तोडेंगे। जो नेताजी कहेंगे वो करेंगे। पर उन्होंने कार्यकर्ताओँ के सामने हर वह छोटी बड़ी बात रखी जो नेताजी ने करने को उनसे कही थी।
शिवपाल यादव अपने किए धिए का जिक्र करते हुए यह खुलासा कर बैठे कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनसे पार्टी तोड़कर किसी दल के साथ चुनाव लड़ने की बात कही। मुलायम सिह यादव ने संरक्षक की तरह पहले सबक फिर डांट-डपट कर सबको खत्म करने की दिशा में पहल करते हुए अखिलेश यादव और शिवपाल को मंच पर गले मिलकर यह संदेश देने को कहा कि उनके कार्यकर्ता की आखें दोनों के मिलन में कोई दरार न देख पाएं। पर हो गया सब उल्टा। बात और बिगड़ी मंच पर धक्का मुक्की हुई। पार्टी साफ तौर पर अखिलेश समर्थकों और शिवपाल समर्थको में बंटी दिखी। मुलायम सिंह यादव ने अपना पक्ष साफ किया कि वह शिवपाल और अमरसिंह के साथ हैं।
यह लडाई इतनी पेचीदगी भरी थी कि अखिलेश हारते तो वह सबकुछ हार जाते। मुलायम हारते तो पार्टी हार जाती। मुलायम के सामने सिर्फ अतीत और वर्तमान है। अखिलेश के सामने अतीत, वर्तमान और भविष्य भी है। इसलिए अखिलेश का इन हालातों में ज्यादा चिंतित होना स्वाभाविक है पर उनकी चिंताएं जो भविष्य का तानाबाना बुन रही हैं वह ऐसे अपरिपक्व लोगों के हाथों बुना जा रहा है कि उसमें भविष्य की कोई उम्मीद नहीं देखी जा सकती।
अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच एक बड़ा अंतर है। मुलायम सिंह यादव ने जब अपनी पारी शुरु की थी तो उसमें लंबा संघर्ष था। उसमें राजनीतिक लोगों का साथ था। राजनेता का किसी समस्या को देखने का नजरिया बिलकुल अल्हदा होता है। वह अपने सपनों को पूरा करके उपलब्धियों के मार्फत लोगों को पराजित करता है। अखिलेश यादव को सत्ता विरासत में मिली उनका कोई साथी सियासी तासीर वाला नहीं है। सियासत उनका मिशन या पेशा भी नहीं है। इसलिए भविष्य के लिए ताना बाना बुनने के संसाधन अखिलेश के पास उस तरह नहीं जुट सके हैं जिसकी उम्मीद की जाती है।
यही वजह है कि अखिलेश यादव जब बोलना होता है तो खामोश हो जाते है और जब चुप्पी ओढनी होती है तो मुखर। बिहार में पार्टी के गठबंधन के सवाल पर जब रामगोपाल यादव मुलायम सिंह को राय देकर अलग लड़ने को तैयार कर रहे थे तब अखिलेश यादव ने खामोशी ओढ़ ली। जब नीतीश कुमार ने शपथ ग्रहण बुलाया तब भी अखिलेश ने तटस्थ भाव अपना लिया था। जब रामगोपाल यादव ने अपना एक काम न होने के बाद एक पत्र के मार्फत यह खुलासा किया था कि उनके काम मायावती सरकार में आसानी से होते थे। वह सरकार अच्छा काम कर रही थी अखिलेश सरकार उससे अच्छी नहीं है। तब भी अखिलेश खामोश थे। रामगोपाल यादव ने मुलायम सिंह को दो चिट्ठियां लिखी जो चिट्ठियां सीधे तौर पर अखिलेश यादव के पिता और परिवार पर हमला थीं। उदयवीर सिंह ने जो कुछ लिखा वह हद था। इन सबपर अखिलेश यादव को पक्ष रखना था।
अमर सिंह उनके लिए इतने परहेज के पात्र थे तो जब वह पार्टी में प्रवेश कर रहे थे उस समय अखिलेश यादव को खड़ा होना था। आज जब अखिलेश यादव के खिलाफ अमर सिंह साजिश करते दिख रहे हैं तब उनका अमर सिंह के खिलाफ बोलना रामगोपाल-अमरसिंह के रिश्तो को ओढ़ लेने जैसा लगता है। हालांकि शायद ही कोई ऐसा हो जो अमर सिंह को उनके स्वरुप में स्वीकार कर ले। शायद ही ऐसा कोई हो जो गायत्री प्रजापति को कुबूल कर ले। ये दोनों संज्ञा नहीं विसंगतियों के विशेषण हो गये है। हालांकि परिवार में रिश्तों की खटास के बीज उसी समय पड़ गये थे जब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया था। शिवपाल लोकसभा तक मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बने रहने के पक्षधर थे। रामगोपाल तुरंत मुख्यमंत्री बनाने के पैरोकार थे। उसी समय से रामगोपाल और शिवपाल को लेकर मुख्यमंत्री का प्रेम और बैर का भाव दिखने लगा था। पर यह साढ़े चार साल चला यह भी बड़ी बात है।
रणनीतिक तौर पर मुख्यमंत्री उतने दक्ष नहीं है जितनी उत्तर प्रदेश की सत्ता और पार्टी के अंदर और बाहर षडयंत्रों से निपटने के लिए दरकार है। मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा से संबंध की बातचीत तीन महीने तक चली, मुख्यमंत्री अनभिज्ञ रहे। ऐन वक्त पर उन्होंने म्यान से तलवार निकाली। हालांकि उनका यह स्टैंड काबिले तारीफ थे लेकिन उनकी अभिसूचना इकाई को उन्हें पहले बताना चाहिए था और उन्हें ऐन वक्त से काफी पहले स्टैंड लेना चाहिए था। बलराम यादव की बर्खास्तगी को मुख्यमंत्री को पचा नहीं पाए उन्हें यू-टर्न करना पड़ा। ऐसे में जब वह नेताजी के कहने पर अपने नापसंद गायत्री प्रजापति, राजकिशोर सिंह और दीपक सिंघल को हटाने में कामयाब हुए थे तो उसी दिन उन्हें अपने चाचा शिवपाल के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए थी। ये बात और है कि प्रदेश अध्यक्ष के हटाए जाने के तौरतरीके की शिकायत लाजमी थी।
अखिलेश यादव ने निःसंदेह उत्तर प्रदेश में विकास के काम को सिर्फ गति नहीं दी उसे आकार भी दिया है। समाजवादी पार्टी को विकास से जोड़कर एक नया आयाम तैयार किया है। वह प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के बाद दूसरे समाजवादी लोकप्रिय चेहरे हैं। बावजूद इसके दो सर्वे ऐसे छपे अथवा छपवाए गए जिसमें अखिलेश यादव और मायावती की लोकप्रियता बिलकुल एक बराबर थी। मुलायम सिंह पांचवी छठी पायदान पर थे। मुलायम ने जिस तरह अखिलेश यादव का उत्तराधिकार तय किया था उसमें यह साफ हो गया था कि पार्टी का कोई होर्डिंग बैनर पोस्टर बिना उनके चेहरे के पूरा नहीं होगा। अखिलेश के बाद ही सब नेता होंगे। पर यह सब समझने में उनसे कहीं चूक हुई।
मुलायम सिंह का समय समय पर सरकार के खिलाफ खड़ा होना और फिर खुश होने का क्रम बाहरी व्यक्तियों की लडाडी के चलते दो छोर पर आ जाएगा यह उम्मीद नहीं थी। नेता बंटते हैं उनका मिलना आसान होता है पर समाजवादी पार्टी में कार्यकर्ता बंट गये हैं। जमीन पर अफसरों के आगे दिक्कत है कि वह किसकी सुने और किससे कहें।
कहने को हर बार चिट्ठियों ने विवाद को नया रंग दिया। चिट्ठियां हालात की पेचीदगी, उलझन, संवादहीनता और बेचैनी का सबब हैं। विवाद व्यक्तित्व बनाम महत्वाकांक्षा तक सीमित नहीं रह गया है। किसी भी परिवार में इतने महत्वाकांक्षी लोग एक साथ बसने लगें तो टकराहट अपरिहार्य है। लेकिन यह टकराहट किसी नई पारी की शुरुआत का सबब बनेगी यह सोचा नही जा सकता था। हालांकि शिवपाल के खुलासे और रामगोपाल के निर्वाचन आयोग आने जाने की तैरती खबरों ने इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया है।
पार्टी कार्यालय में सार्वजनिक हुई भावुकता जिस तरह की ठोस व्यवहारिक धरातल की मांग करती है। वह नदारद थी। इसके लिए जिम्मेदार हर पात्र है। मुख्यमंत्री के बोलते समय माइक खींचने वाले शिवपाल यादव भी सबकुछ कार्यकर्ताओं के सामने सार्वजनिक करने वाले मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव भी।यह कह पाना ज्यादा मुश्किल है कि कौन ज्यादा जिम्मेदार है। इसी सवाल का जवाब अगर भावुकता को दरकिनार कर तलाश लिया जाय तो अखिलेश यादव का लंबे तक समाजवादियों के साथ न रहने के बयान को सिरे से खारिज करने की सामर्थ्य जुटाई जा सकेगी। नहीं तो ढांकने, तोपने, लीपने, पोतने और अपने- अपने किये का दावा करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि बीच में जो लोग है वह संवाद नहीं विवाद बढा रहे है। अवसर संवाद का होना चाहिए वह भी सार्वजनिक नहीं क्योंकि जो सार्वजनिक हुआ वह या तो हथियार बनेगा या फिर उपहास।
परिवार का सबकुछ हर एक कार्यकर्ता और नेता के सामने ही नहीं मीडिया के सामने ही दिगंबर है। हर छोटी बड़ी बात, रिश्तों का कसैलापन एक दूसरे के प्रति मन में बैठी मैल। एक दूसरे के खिलाफ साजिशों का साया। सबकुछ मुखर होते समाजवादी कार्यकर्ताओं ने बीते सोमवार को देखा। स्थापना दिवस की तैयारी के लिए बुलाई गई बैठक पहले साफ-सफाई और फिर संग्राम में तब्दील हो गयी। मुख्यमंत्री ने भावुक और भीगे स्वर में मुलायम सिंह यादव ऩे जो भी करने को कहा उसके करने का दावा किया साथ ही कहा कि वह पुत्र का धर्म निभाएंगे। पार्टी नहीं तोडेंगे। जो नेताजी कहेंगे वो करेंगे। पर उन्होंने कार्यकर्ताओँ के सामने हर वह छोटी बड़ी बात रखी जो नेताजी ने करने को उनसे कही थी।
शिवपाल यादव अपने किए धिए का जिक्र करते हुए यह खुलासा कर बैठे कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उनसे पार्टी तोड़कर किसी दल के साथ चुनाव लड़ने की बात कही। मुलायम सिह यादव ने संरक्षक की तरह पहले सबक फिर डांट-डपट कर सबको खत्म करने की दिशा में पहल करते हुए अखिलेश यादव और शिवपाल को मंच पर गले मिलकर यह संदेश देने को कहा कि उनके कार्यकर्ता की आखें दोनों के मिलन में कोई दरार न देख पाएं। पर हो गया सब उल्टा। बात और बिगड़ी मंच पर धक्का मुक्की हुई। पार्टी साफ तौर पर अखिलेश समर्थकों और शिवपाल समर्थको में बंटी दिखी। मुलायम सिंह यादव ने अपना पक्ष साफ किया कि वह शिवपाल और अमरसिंह के साथ हैं।
यह लडाई इतनी पेचीदगी भरी थी कि अखिलेश हारते तो वह सबकुछ हार जाते। मुलायम हारते तो पार्टी हार जाती। मुलायम के सामने सिर्फ अतीत और वर्तमान है। अखिलेश के सामने अतीत, वर्तमान और भविष्य भी है। इसलिए अखिलेश का इन हालातों में ज्यादा चिंतित होना स्वाभाविक है पर उनकी चिंताएं जो भविष्य का तानाबाना बुन रही हैं वह ऐसे अपरिपक्व लोगों के हाथों बुना जा रहा है कि उसमें भविष्य की कोई उम्मीद नहीं देखी जा सकती।
अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच एक बड़ा अंतर है। मुलायम सिंह यादव ने जब अपनी पारी शुरु की थी तो उसमें लंबा संघर्ष था। उसमें राजनीतिक लोगों का साथ था। राजनेता का किसी समस्या को देखने का नजरिया बिलकुल अल्हदा होता है। वह अपने सपनों को पूरा करके उपलब्धियों के मार्फत लोगों को पराजित करता है। अखिलेश यादव को सत्ता विरासत में मिली उनका कोई साथी सियासी तासीर वाला नहीं है। सियासत उनका मिशन या पेशा भी नहीं है। इसलिए भविष्य के लिए ताना बाना बुनने के संसाधन अखिलेश के पास उस तरह नहीं जुट सके हैं जिसकी उम्मीद की जाती है।
यही वजह है कि अखिलेश यादव जब बोलना होता है तो खामोश हो जाते है और जब चुप्पी ओढनी होती है तो मुखर। बिहार में पार्टी के गठबंधन के सवाल पर जब रामगोपाल यादव मुलायम सिंह को राय देकर अलग लड़ने को तैयार कर रहे थे तब अखिलेश यादव ने खामोशी ओढ़ ली। जब नीतीश कुमार ने शपथ ग्रहण बुलाया तब भी अखिलेश ने तटस्थ भाव अपना लिया था। जब रामगोपाल यादव ने अपना एक काम न होने के बाद एक पत्र के मार्फत यह खुलासा किया था कि उनके काम मायावती सरकार में आसानी से होते थे। वह सरकार अच्छा काम कर रही थी अखिलेश सरकार उससे अच्छी नहीं है। तब भी अखिलेश खामोश थे। रामगोपाल यादव ने मुलायम सिंह को दो चिट्ठियां लिखी जो चिट्ठियां सीधे तौर पर अखिलेश यादव के पिता और परिवार पर हमला थीं। उदयवीर सिंह ने जो कुछ लिखा वह हद था। इन सबपर अखिलेश यादव को पक्ष रखना था।
अमर सिंह उनके लिए इतने परहेज के पात्र थे तो जब वह पार्टी में प्रवेश कर रहे थे उस समय अखिलेश यादव को खड़ा होना था। आज जब अखिलेश यादव के खिलाफ अमर सिंह साजिश करते दिख रहे हैं तब उनका अमर सिंह के खिलाफ बोलना रामगोपाल-अमरसिंह के रिश्तो को ओढ़ लेने जैसा लगता है। हालांकि शायद ही कोई ऐसा हो जो अमर सिंह को उनके स्वरुप में स्वीकार कर ले। शायद ही ऐसा कोई हो जो गायत्री प्रजापति को कुबूल कर ले। ये दोनों संज्ञा नहीं विसंगतियों के विशेषण हो गये है। हालांकि परिवार में रिश्तों की खटास के बीज उसी समय पड़ गये थे जब मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया था। शिवपाल लोकसभा तक मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बने रहने के पक्षधर थे। रामगोपाल तुरंत मुख्यमंत्री बनाने के पैरोकार थे। उसी समय से रामगोपाल और शिवपाल को लेकर मुख्यमंत्री का प्रेम और बैर का भाव दिखने लगा था। पर यह साढ़े चार साल चला यह भी बड़ी बात है।
रणनीतिक तौर पर मुख्यमंत्री उतने दक्ष नहीं है जितनी उत्तर प्रदेश की सत्ता और पार्टी के अंदर और बाहर षडयंत्रों से निपटने के लिए दरकार है। मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा से संबंध की बातचीत तीन महीने तक चली, मुख्यमंत्री अनभिज्ञ रहे। ऐन वक्त पर उन्होंने म्यान से तलवार निकाली। हालांकि उनका यह स्टैंड काबिले तारीफ थे लेकिन उनकी अभिसूचना इकाई को उन्हें पहले बताना चाहिए था और उन्हें ऐन वक्त से काफी पहले स्टैंड लेना चाहिए था। बलराम यादव की बर्खास्तगी को मुख्यमंत्री को पचा नहीं पाए उन्हें यू-टर्न करना पड़ा। ऐसे में जब वह नेताजी के कहने पर अपने नापसंद गायत्री प्रजापति, राजकिशोर सिंह और दीपक सिंघल को हटाने में कामयाब हुए थे तो उसी दिन उन्हें अपने चाचा शिवपाल के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए थी। ये बात और है कि प्रदेश अध्यक्ष के हटाए जाने के तौरतरीके की शिकायत लाजमी थी।
अखिलेश यादव ने निःसंदेह उत्तर प्रदेश में विकास के काम को सिर्फ गति नहीं दी उसे आकार भी दिया है। समाजवादी पार्टी को विकास से जोड़कर एक नया आयाम तैयार किया है। वह प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के बाद दूसरे समाजवादी लोकप्रिय चेहरे हैं। बावजूद इसके दो सर्वे ऐसे छपे अथवा छपवाए गए जिसमें अखिलेश यादव और मायावती की लोकप्रियता बिलकुल एक बराबर थी। मुलायम सिंह पांचवी छठी पायदान पर थे। मुलायम ने जिस तरह अखिलेश यादव का उत्तराधिकार तय किया था उसमें यह साफ हो गया था कि पार्टी का कोई होर्डिंग बैनर पोस्टर बिना उनके चेहरे के पूरा नहीं होगा। अखिलेश के बाद ही सब नेता होंगे। पर यह सब समझने में उनसे कहीं चूक हुई।
मुलायम सिंह का समय समय पर सरकार के खिलाफ खड़ा होना और फिर खुश होने का क्रम बाहरी व्यक्तियों की लडाडी के चलते दो छोर पर आ जाएगा यह उम्मीद नहीं थी। नेता बंटते हैं उनका मिलना आसान होता है पर समाजवादी पार्टी में कार्यकर्ता बंट गये हैं। जमीन पर अफसरों के आगे दिक्कत है कि वह किसकी सुने और किससे कहें।
कहने को हर बार चिट्ठियों ने विवाद को नया रंग दिया। चिट्ठियां हालात की पेचीदगी, उलझन, संवादहीनता और बेचैनी का सबब हैं। विवाद व्यक्तित्व बनाम महत्वाकांक्षा तक सीमित नहीं रह गया है। किसी भी परिवार में इतने महत्वाकांक्षी लोग एक साथ बसने लगें तो टकराहट अपरिहार्य है। लेकिन यह टकराहट किसी नई पारी की शुरुआत का सबब बनेगी यह सोचा नही जा सकता था। हालांकि शिवपाल के खुलासे और रामगोपाल के निर्वाचन आयोग आने जाने की तैरती खबरों ने इस दावे को सिरे से खारिज कर दिया है।
पार्टी कार्यालय में सार्वजनिक हुई भावुकता जिस तरह की ठोस व्यवहारिक धरातल की मांग करती है। वह नदारद थी। इसके लिए जिम्मेदार हर पात्र है। मुख्यमंत्री के बोलते समय माइक खींचने वाले शिवपाल यादव भी सबकुछ कार्यकर्ताओं के सामने सार्वजनिक करने वाले मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव भी।यह कह पाना ज्यादा मुश्किल है कि कौन ज्यादा जिम्मेदार है। इसी सवाल का जवाब अगर भावुकता को दरकिनार कर तलाश लिया जाय तो अखिलेश यादव का लंबे तक समाजवादियों के साथ न रहने के बयान को सिरे से खारिज करने की सामर्थ्य जुटाई जा सकेगी। नहीं तो ढांकने, तोपने, लीपने, पोतने और अपने- अपने किये का दावा करने से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि बीच में जो लोग है वह संवाद नहीं विवाद बढा रहे है। अवसर संवाद का होना चाहिए वह भी सार्वजनिक नहीं क्योंकि जो सार्वजनिक हुआ वह या तो हथियार बनेगा या फिर उपहास।
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