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साख का सवाल ज्यादा बड़ा है
- 'अदालतों के कक्ष खाली हैं। सरकार को जजों की नियुक्ति को लेकर भेजे गये प्रस्ताव लंबित है। सरकार को इस मसले के लिए दखल देना चाहिए।'
- 'जजों की नियुक्ति के लिए सिर्फ सरकार जिम्मेदार नहीं है। एमओपी पर सरकार ने अपना जवाब सुप्रीम कोर्ट को तीन महीने पहले भेज दिया है। लेकिन उधर कोई जवाब नहीं आया है।'
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संविधान दिवस पर आयोजित में दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बीच हुआ यह अप्रत्य संवाद सिर्फ अदालत की दिक्कत ही बयां नहीं करता बल्कि यह भी बताता है कि देश के चार स्तंभों में से दो स्तंभ के बीच क्या और कैसा चल रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद से ही सरकार और अदालत के बीच रिश्ते अधिकांशतः खट्टे और कभी-कभी मीठे गुजरे हैं। जब न्यायपालिका सरकार को आइना दिखा रही हो तब यह भी अनिवार्य हो जाता है कि न्यायपालिका अपना भी आत्मविश्लेषण करे।
देश की व्यवस्था के इस स्तंभ को आम आदमी की चिंता शुरु से आजतक कम ही रही है। स्कूलों में गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियां कम हुई पर अदालत में अवकाश के दिन नहीं घटे। हालांकि 210 कार्यदिवस का एक पैमाना अदालत के पास है। पर यह 210 दिवस किसी भी स्तंभ के कार्यदिवसों में सबसे कम है। इन कार्यदिवसों में भी वकीलों द्वारा उत्पन्न किए गये व्यवधान के दिवस भी शामिल है। वकीलों की हड़ताल की कोई सीमा नहीं है। किसी भी मुकदमें को कैसे तय करने है इसका लिखित कानून चाहे जो हो पर प्रायः आप मुकदमों में फैसले अलग अलग देख सकते है। यह न्यायपालिका पर सवाल नहीं पर ऐसे फैसलों से आम आदमी के कानून की व्याख्या को लेकर सवाल उठते हैं। उत्तर प्रदेश का अयोध्या मुद्दा, भोपाल गैस कांड, बोफोर्स कांड आदि इस बात का गवाह है कि अदालतें कितना धीमा करती हैं। चेक के बाउंस होने को लेकर बहुत कठोर कानून है पर दिल्ली को छोड़ दीजिए तो कहीं भी उसका पालन कठोर नहीं है। उत्तर प्रदेश में कई-कई सालों से इस तरह के प्रकरण लंबित है।
लोग अदालतों के चक्कर काटकर परेशान हैं। हद तो यह है कि ऊंची अदालत में चेक बाउंस होने के केस में भी स्टे मिल जाता है। निचली अदालत की हालत तो इतनी खऱाब है कि वहां पसरा हुआ सब कुछ साफ देखा जा सकता है। कैलाश गौतम ने अपनी एक कविता में कहा था- कभी मेरे बेटे अदालत न जाना। उनकी वह कविता बहुत लोकप्रिय हुई थी। इस कविता की लोकप्रियता लोगों की अदालत की आस्था अनास्था का प्रमाण है। राजस्व के मामलो में तो यह जुमला आम है कि जो पीढी मुकदमा करेगी उसे नहीं बल्कि उसकी अगली पीढ़ी को फैसला सुनने को मिले। स्टे और बेल दो ऐसे मामले है जो अदालती कामकाज को लेकर कई बार विवाद का सबब बने हैं।
देश की अदालत 2 करोड़ केस लंबित है। इनमें से दो तिहाई मामले आपराधिक है। 10 में से एक मामला औसतन ऐसा होता है जिसके फैसले में 10 साल लग जाते हैं। नेशनल ज्यूडीशियल डाटा ग्रिट ने इन आकंडों को पुष्ट किया है। औसतन 1350 केस हर जज के हिस्से में लंबित हैं पर इनमें से 43 मामलों को ही एक जज हर महीने निपटा पाता है। औसत के मुताबिक देश की 73 हजार आबादी पर एक जज है जो अमरीका के औसत से करीब 7 गुना है। दिल्ली में तो यह आंकडा 5 लाख की आबादी है। नेशनल ज्यूडीशियल डाटा ग्रिड बताता है कि इस गति से भी मुकदमे निपटाता रहे तो सिविल के मुकदमे तो कभी खत्म नहीं होंगे जबकि आपराधिक मुकदमों को निपटाने में 30 साल का समय लगेगा।उत्तर प्रदेश में कुल लंबित केसों की संख्या 631290 है और 44571 केस प्रति माह यहां निपटाए जाते हैं।
सरकार और सर्वोच्च अदालत को जजों को नियुक्ति को लेकर जो तनाव है उसकी कुल रिक्तियां 1079 है। देश के 24 हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इतने ही जज रख दिए जाएं तो निर्धारित कोटा पूरा हो जाएगा। हाल फिलहाल सिर्फ 43 जजों की नियुक्ति सरकार और न्यायपालिका के बीच खटास का सबब बनी है। संविधान दिवस पर भी सरकार और न्यायपालिका जिस तरह आमने समाने खड़ी हुई उसकी वजह भी यही थी। हालांकि अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने यह कहकर कि संविधान में सभी अंगों के लिए लक्ष्मण रेखा निर्धारित की है, न्यायपालिका की भी लक्ष्मण रेखा है, इस विवाद को और हवा दे दी है।
सरकार और न्यायपालिका एक दूसरे पर ठीकरा फोडें पर सच यह है कि गलती दोनों तरफ से है। न्यायपालिका पता नहीं क्यों खुद को एक अलग टापू समझती है। कभी भी उसने अंदर से सफाई का व्यापक अभियान नहीं चलाया। जिस पीठ में रहते हुए के जी बालाकृष्णन ने परिणामी ज्येष्ठता के खिलाफ फैसला दिया था यह फैसलों ने एक साथ दिया था। बाद में मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनने के बाद बालाकृष्णन प्रोन्नति मे आरक्षण का अभियान चलाने लगे। काटजू कब क्या बोल दें इसकी सीमा ही तय नहीं है। ऐसे तमाम मामले हैं जिस पर पद पर रहते हुए भी अनिवार्य औपचारिकता नहीं निभाई गयी। कई मुख्य न्यायाधीशों के विवाद खासी सुर्खियों में रहे।
घराने और परिवारवाद अगर कही फलते फूलते देखना है तो राजनीति के बाद न्यायपालिका में ही उसे सबसे अधिक खाद पानी मिली है। यह भी सच है कि सरकार न्यायपालिका पर अंकुश की निरंतर कोशिश करती है। पर यह भी सच है कि न्यायपालिका आम जनता की भावनाओं पर खरी नहीं उतर पा रही है। न्यायपालिका के खिलाफ लिखना संभव ही नहीं है.। अदाली अवमानना के मानदंड बदले जाने चाहिए। बावजूद इसके कई बार ऐसा जरुर हुआ है कि अगर अदालतें नहीं रहती तो लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रह पाता। तमाम मानवाधिकार असुरक्षित हो जाते। इंदिरा गांधी के निर्वाचन पर आया फैसला एक बड़ी नज़ीर है। पर आज भी निर्वाचन को लेकर कई ऐसे फैसले अदालतो में लंबित है जो कार्यकाल पूरा कर लेने का मौका मुहैया करा देते हैं। बावजूद इसके उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास और आर्थिक साम्राज्य बताने की अनिवार्यता अदालत की वजह से ही है। हाल फिलहाल उत्तर प्रदेश में डेंगू पर अदालती सक्रियता का नतीजा था कि सरकार की नींद खुली। अदालती सक्रियता को सरकार भले ही अपने अनहित चश्में से देखे पर इसने हमेशा जनता के लिए सुखद अवसर मुहैया कराये है। पर अदालत अपने नियमित कामकाज से जनभावनाओं की कसौटी पर कम बार खरी उतरी है। यह बात दीगर है कि अदालत की इस छवि का बड़ा कारण निचली अदालतें हैं और तमाम वे वकील हैं जो कुछ नहीं कर पाने के बाद काला कोट धारण कर लेते है। ये भी न्यायपालिका के ही हिस्सा होते है। न्यायपालिका को खरा साबित होने के लिए इन्हें भी ठीक करना होगा। सिर्फ जजों की नियुक्ति हो जाने से न्यायपालिका का सम्मान लौटने वाला नहीं है। यह कामकाज को सुचारु कर सकता है। पर सरकार ही न्यायपालिका पर हमलावर हो तब उसे खुद को कसौटी पर खरा साबित करने के लिए आगे आना होगा और अंदर बाहर सफाई करनी होगी।
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