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नज़र उत्तर प्रदेश पर

Dr. Yogesh mishr
Published on: 12 Jan 2017 9:57 PM IST
उत्तर प्रदेश ही दिल्ली की गद्दी का सफर और मुकाम दोनों तय करता है। यह जुमला आम है। इसी जुमले की वजह से जब भी उत्तर प्रदेश में चुनाव होते हैं तो सारे देश की निगाह उस पर होती है। हर राजनैतिक दल उत्तर प्रदेश जीतने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगाता है। इस बार के चुनाव में भी सभी सूरमाओं का सबकुछ दांव पर है पर जिस तरह समाजवादी सियासत करवट ले रही है उसके चलते सिर्फ सूबे का चुनाव ही दिलचस्प नहीं हो गया है पर राजनीति की दशा, दिशा, नीति और नीयत को लेकर भी कई ऐसे प्रश्न इन दिनों सियासी हवा में हैं जिनके उत्तर देश की सियासत को एक नया रंग एक नया ढंग देते हैं।
अपने छवि के बूते पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे अखिलेश यादव शायद यह भूल गये कि अपने समाजवादी पिता से रिश्ते कायम रखना और पार्टी और विरासत की जंग लड़े बिना भी पार्टी सर्वेसर्वा बनना भी छवि का एक हिस्सा होता है। अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुर्सी भी मुलायम सिंह ने ही सौंपी थी। उन्हें इस बार के चुनाव में अपने चेहरे पर मिला जनसमर्थन यह जरूर बता देगा कि मुलायम और अखिलेश में क्या अंतर है। हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव भी अलग पार्टी खड़ी करके पुराना करिश्मा न दोहरा सकें पर उनका कोई दावा भी नहीं है। अखिलेश इसलिए कसौटी पर हैं क्योंकि दावे सिर्फ उनकी तरफ से हैं। कांग्रेस अखिलेश यादव से समर्थन के लिए जब सोच रही थी तब उसे यह बिलकुल अंदाजा नहीं था रहा होगा कि माइनस मुलायम सिंह और साइकिल के बिना अखिलेश यादव को स्वीकार करना होगा। यह बड़ी चुनौती भी अखिलेश यादव के सामने है कि उनकी स्वीकृति कांग्रेस में कैसी और किस तरह होती है। यही नहीं मुलायम सिंह यादव ने सपा के लिए जो वोट बैंक तैयार किया था उसका मिजाज गैरकांग्रेसी बना दिया था। गैरकांग्रेसी मिजाज वाले मतदाताओं को कांग्रेस के साथ खड़ा करने में अखिलेश कामयाब होंगे यह भी एक चुनौती है।
इस समय अखिलेश के साथ जो विधायक खड़े हैं उनमें से 60 फीसदी से अधिक जीतकर लौटने वाले नहीं है। अखिलेश पहली बार प्रशासन के व्यामोह और प्रचार के चाक चिक से दूर होकर अपना चेहरा लोकतंत्र के आइने में देखेंगे। राहुल गांधी में सामने इस चुनाव में चुनौती है कि बीते दो विधानसभा चुनाव में उनके सघन प्रचार के बावजूद उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी का जनसमर्थन बढाने में वे कामयाब नहीं हुए। अगर अखिलेश के कंधे पर सवार होकर वह थोड़ी ऊंचाई हासिल कर लेते हैं तो क्या इसका श्रेय राहुल गांधी के खाते में जाएगा। 403 सीटों पर लडने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस क्या 100 से कम सीटों पर उस समाजवादी अखिलेश पार्टी से समझौता करने को तैयार होगी जिसका जन्म जुमे जुमे चार दिन का होगा। जिस शीला दीक्षित को उम्मीदवार बताकर कांग्रेस 11 फीसदी ब्राह्मण मतदाताओँ को लुभाने की कोशिश कर रही थी क्या अखिलेश का चेहरा मुख्यमंत्री के रुप में स्वीकार करने के बाद ब्राह्मण मतदाताओं की नाराजगी नहीं होगी। या फिर कांग्रेस यह मान रही है कि शीला दीक्षित को पेश करने के बाद ब्राह्मण उसकी ओर मुखातिब ही नहीं हुआ। यह भी एक संयोग है कि कांग्रेस के सूबाई अध्यक्ष पद पर जो राजबब्बर काबिज हैं उन्होंने अपनी पारी समाजवादी पार्टी से शुरु की थी है। क्या कांग्रेस यह मानने को तैयार है कि वह अखिलेश की जूनियर पार्टनर रहेगी।
बहुजन समाज पार्टी की चुनौती यह है कि उसकी नेता क्या प्रेस कांफ्रेंस से बाहर निकल कर जमीन पर लडाई लडेंगी। उनकी कास्ट केमिस्ट्री क्या एक बार फिर परवान चढेगी तब जबकि वह बार बार मुस्लिम मतदाताओं के लिए आकर्षक प्रस्ताव पेश करते हुए नज़र आती हैं। मुस्लिम मतदाताओं की बसपाई सक्रियता क्या भाजपा की ओर हिंदू मतदाताओं को मुखातिब होने का मौका नहीं देगी। यह भी एक सच्चाई है कि मुस्लिम मतदाता ठहरा और ठिठका है, उहापोह में है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम और अगड़े मतदाता निर्णायक होंगे। मायावती के सामने चुनौती यह भी है कि वह पैसे वाली पार्टी का तमगा उतारने में कैसे और कामयाब होंगी। राजनैतिक चक्र यह बताते हैं कि मुलायम के बाद मायावती आती हैं। अभी तक सपा के बाद बसपा और बसपा के बाद सपा के आने का चलन रहा है लेकिन अबकी मुलायम की जगह अखिलेश हैं इसलिए उत्तर प्रदेश में टोटके यह परंपरा कायम रहेगी यह कहना मुश्किल है।
भारतीय जनता पार्टी की यह चुनौती है कि वह अखिलेश यादव और मायावती के सामने कोई चेहरा नहीं उतार सकी है। नोटबंदी से नाराज अपने पारंपरिक व्यापारी मतदाता के लिए कोई आकर्षक प्रस्ताव नहीं पेश कर सकती है। राज्य में 75 लाख पंजीकृत व्यापारी हैं। भाजपा के सामने चुनौती उसके बड़बोले नेता भी होंगे। भाजपा विकास के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनाव अभियान चलाने में किस तरह कामयाब होती है यह भी एक चुनौती है क्योंकि उत्तर प्रदेश में अब उसके पास चाल, चरित्र और चेहरे वाले नेताओं का टोटा है। देश के छोटे नेता भी राष्ट्रीय हो गये हैं। भाजपा मायावती के दलित मुस्लिम समीकरण को तोड़ने और कांग्रेस और अखिलेश के साथ होने वाले गठबंधन की संभावना देख रहे अल्पसंख्यक वोटों का जवाब देने के लिए कैसे काम करती है यह भी उसके लिए बड़ी चुनौती है। हालांकि मुजफ्फरगनर दंगे के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुस्लिम एक साथ मतदान करेंगे यह लाख टके का सवाल है। दलित और मुस्लिम को एक साथ मतदान के लिए तैयार कर पाना भी यक्ष प्रश्न है।
लेकिन इन सारी चुनौतियों के बीच सभी राजनैतिक दलों के लिए खुशनुमा निष्कर्ष भी है। हाथ के लिए अखिलेश का साथ। मायावती के लिए अल्पसंख्यकों का सपा से मोहभंग। अखिलेश के लिए अपनी सरकार का काम भाजपा के लिए अगड़ों का उसकी ओर मुखातिब होना। अल्पसंख्यक सक्रियता के दौर में हिंदू ध्रुवीकरण की अकाट्य संभावना का होना। लोकसभा की तरह ही विधानसभा का चुनाव भी पश्चिम उत्तर प्रदेश से शुरु होना। समीकरणों की बात की जाय मायावती ने उम्मीदवारों की सूची जारी कर बढत ले ली है। किसी भी प्रतिस्पर्धा के बारे में कहा जाता है कि जो आगे रहता है वह जीतता हालांकि राजनीति में यह फार्मूला पूरी तरह फिट नहीं बैठता है क्योंकि सियासत में माहौल का बड़ा मतलब होता है लोकसभा चुनाव भी भाजपा ने माहौल पर जीता था।
चुनावी घोषणा के बाद अब सूबे में माहौल बन गया है । राजनैतिक दल सक्रिय हो गये हैं। मतदाताओं में सक्रियता बढ़ गयी है। इसे अपने पक्ष में मोडऩे में कौन कितना कामयाब होगा, इस कामयाबी के लिए कौन किस हथियार का इस्तेमाल करेगा यही तय करेगा कि देश की सियासत की दिशा क्या होगी, दशा क्या होगी।

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Dr. Yogesh mishr

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