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आइये पराजय के सिलसिले को थामे...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 12 Jan 2017 10:12 PM IST
तकरीबन दो साल पहले गणतंत्र दिवस की परेड में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत करने आए अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब यह उम्मीद जताई थी कि दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र वाले दो देश एक साथ खड़े हो जाएंगे तो शांति और सहअस्तित्व की मिसाल कायम। यह दुनिया रहने के लिए सबसे सुरक्षित हो जाएगी। हालांकि बाराक ओबामा के इस कथन पर आपत्ति जताई गयी कि उनके संदेश में जो अमरीका को सबसे पुराना लोकतंत्र कहा गया वह गलत है। भारत सबसे बड़ी ही नहीं सबसे पुराना लोकतंत्र भी है। यह ऐतिहासिक सत्य भी है। क्योंकि भारत में छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में सोडश महाजनपदों में गणराज्य के प्रमाण मिलते हैं। लोकतंत्र भारत की सामाजिक जीवन पद्धति का अविभाज्य हिस्सा है।भारतीय समाज की इकाई समझे जाने वाले परिवार में भी हर व्यक्ति की इच्छा की सम्मान इसी लोकतांत्रिक उपस्थिति का प्रमाण है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब भारत ही सबसे बडा और सबसे पुराना लोकतंत्र है तो यहां की  दुनिया रहने के लिए उतनी खूबसूरत और मुफीद क्यों नहीं है। दुनिया भर में राजनीति, कला, संस्कृति, संगीत, अर्थव्यवस्था, उद्योग, पत्रकारिता, शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों का नेतृत्व करती है। कहा जाता है कि राजनीति जैसी  है समाज वैसा ही बन जाता है। इसलिए लोकतंत्र की परख सबसे पहले राजनीति को ही जांच-परख कर की जा सकती है। राजनीति को नेतृत्व देने वाले राजनेताओं में नैतिकता का इस कदर अकाल है कि वे अब रोल माडल के खांचे में फिट ही नहीं होते। एक समय था कि भारत में लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर लोगों ने खाना तक छोड़ दिया था। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर युवाओं ने पढाई छोड़ संपूर्ण क्रांति की अलख जगा दी। पर अब हमारे नेताओ में ऐसे संदेश देने की शक्ति क्षीण होती दिख रही है। इसकी वजह आचार और विचार की कमी है। कब कौन नेता किस दल के साथ खड़ा नज़र आएगा यह सोचना और अनुमान लगाना असंभव की श्रेणी में आ गया है। रंग बदलने वाले जानवर से तेज हमारे नेता दिल और दल बदलने लगे हैं।
हद तो यह है कि सत्ता का चरित्र और विपक्ष का चरित्र कुछ इस कदर जड़ हो गया है कि कोई भी पार्टी जो सत्ता में आती वह पुरानी पार्टी के नियम और नीतियों को आगे बढाने से इतर नहीं जा पाती और जब वही पार्टी विपक्ष में रहती है तो उन्हीं नियम और नीति की आलोचक बनी रहती है। लोकतंत्र के वाहक हमारे राजनैतिक दलो में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। चुनाव सिर्फ रस्मी हो गये हैं। पार्टी जेबी हो गई हैं। परिवार वाद जो कभी विपक्ष की राजनीति का अमोघ अस्त्र होता था वह अब हर राजनीतिक दल का आभूषण हो गया है। किसी परिवार के कितने लोग उसके दल में किन किन ओहदों पर है यह शक्ति का परिचायक हो गया है। एक भी ऐसा नेता नहीं मिलेगा जो इमानदारी से चुनाव में जितने रुपये खर्च करता हो उसकी सही घोषणा कर दे। राजनैतिक चंदे की पारदर्शिता के सवाल पर सभी दलों पर एक स्वर हो ओरांग उटांग हो जाना इनकी आपसी मिली भगत का प्रतीक है।
संसद में महिला आरक्षण के सवाल पर सभी राजनैतिक दलों में 33 फीसदी महिलाओं को जगह देने का वादा किसी राजनैतिक दल में पूरा न होना भी बताता है कि यह सब आपस में सहोदर हैं। धनबली और बाहुबलियों का हर राजनैतिक दल में पाया जाना इनके और दलबदलुओं के बिना किसी की सरकार न बन पाना भी यह पुष्ट करता है। राष्ट्रपिता महात्मा के साध्य और साधन दोनों की शुचिता का सवाल किसी भी राजनैतिक दल द्वारा स्वीकार ना किया जाना भी सहोदर होने की कथा को आगे बढाता है। कथनी और करनी में भेद तो शायद नेता और सियासत का ऋंगार बन गया है। लोकतंत्र को अमली जामा पहनाने का काम करने वाली स्वायत्तशासी संस्था निर्वाचन आयोग भी कुछ इसी तरह के ढुलमुल और सत्ता मुखापेक्षी रवैये का शिकार है। हर चुनाव में आचार संहिता के मामले में काफी लोगों पर प्राथमिकी दर्ज करना और चुनाव खत्म होते ही खामोशी ओढ़ लेना, आचार संहिता के उल्लंघन के अन्य मामलो में उदासीनता यह बताता है कि उसका काम लोकतंत्र की रक्षा नहीं बल्कि केवल चुनाव कराना है।
हाल फिलहाल समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह का जो विवाद चुनाव आयोग में है और पांच साल बाद जब आयोग ने उत्तर प्रदेश में नए चुनाव की तारीखें घोषित कर दी है। तब बसपा के एक विधायक उमाशंकर सिंह की सदस्यता का रद करना यह बताता है कि निर्वाचन आयोग भी राजनीति और राजनेताओं का सहोदर है। क्योंकि यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि टी एन शेषन के पहले तक इस संस्था का इल्म लोगों को नहीं था। इस संस्था को टी एन शेषन ने पहचान दिलाई हालांकि उनके बाद यह पहचान चुक नहीं गयी लेकिन जिस तरह देश में कई तरह की मतदाता सूचियां अस्तित्व में हैं इस तरह ऐन चुनाव की घोषणा के पहले तक नेता और उनके किए दिए पर कोई गौर फरमाने के लिए चुनाव आयोग कुछ भी करने को उद्धत नहीं दिख रहा है। घोषणा पत्रों के बहाने मंगलसूत्र, साइकिल, लैपटाप, गीजर, स्कूटी और नकदी देने का जो आधार तैयार हो जा रहा है उस चुनाव आयोग की खामोशी भी उसे सहोदर की भूमिका में ही लाकर खडा करती है। यह भी एक विडंबना है कि देश के प्रधानमंत्री से लेकर ग्राम प्रधान तक सबका कार्यकाल सबका कार्यकाल पांच साल का निर्धारित होने के औचित्य पर भी निर्वाचन आयोग चुप है। यह संकल्पना हमारी पंचवर्षीय योजनाओं के मद्देनजर गढ़ी गयी थी। यह अनिवार्य है या नहीं इसका परीक्षण भी समय-समय पर चुनाव कराने वाली ताकतों को करना चाहिए।
चुनावा आयोग को क्यों इस बात के लिए हाथ पर हाथ धर का बैठना चाहिए कि राजनेता, राजनीतिक दल पांच साल अधिसूचना के ठीक पहले तक जो चाहे करे । क्या सबसे बड़े और सबसे पुराने के लोकतंत्र की रक्षा के लिए आचार संहिता का कालखंड पर्याप्त होता है। तमाम नेता और राजनीतिक दल आचार संहिता के मद्देनजर उसके ऐन पहले तक वह सब कर लेते हैं जो उन्हें करना होता है और जो आचार संहिता के उल्लंघन का हिस्सा हो सकता है। आचार संहिता के उल्लंघन के सवाल पर शायद अभी तक बिना किसी शिकायत के निर्वाचन आयोग ने कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की है। जिन कार्रवाइयों को लेकर वह अपनी पीठ थपथपा सकता है वह सब शिकायती है। लेकिन उसमें भी एक ही तरह की शिकायत पर सितम और रहम के नजरिए की भी नजीरें कम नहीं हैं।
क्या राजनैतिक दलों के पांच साल के कार्यक्रमों और आयोजनों को उनके खर्च का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए। कल तक किसी राजनैतिक दल और नेता के खिलाफ जहर उगलने वाले शख्स को यू टर्न करने के बाद उसकी उलटबांसी के प्रचार का जिम्मा सिर्फ मीडिया के ही भरोसे होना चाहिए। जिस तरह अदालत के हस्तक्षेप के बाद लोगों की संपत्ति और उनके खिलाफ मुकदमे की जानकारी देनी पड़ रही है उसी तरह उसे जनता को यह बताना चाहिए कि उसके किस नेता कितनी बार दिल और दल बदला है।
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Dr. Yogesh mishr

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