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ट्रंप को करनी होगी संतुलन साधने की बाजीगरी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 25 Jan 2017 10:22 PM IST
अमेरिका में नए राषट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद पूरी दुनिया में बदलाव के संदेश तिरने लगे हैं। वजह भी साफ है क्योंकि अमरीका में बहुत दिनों बाद रिपब्लिकन पार्टी का कोई उम्मीदवार कामयाबी की इबारत लिख सका है। लंबे समय तक अमरीका डेमोक्रेट पार्टी के नीतियों से संचालित हो रहा था। अमेरिका में दो बड़े राजनीतिक दल हैं। ग्रांड ओल्ड पार्टी (जीओपी) के रूप में अगर रिपब्लिकन पार्टी है तो इसकी ऐतिहासिक विपक्षी पार्टी के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी भी मौजूद है। रिपब्लिकन अपने राष्ट्र प्रेम के लिए जानी जाती है, तो डेमोक्रेटिक पार्टी को अपने उदार नीतियों, सामाजिक सरोकारों से जुड़े मसलों के लिए याद किया जाता है। रिपब्लिकन पार्टी 162 साल पुरानी राजनीतिक पार्टी है, जिसकी स्थापना 20 मार्च 1854 को हुई थी। इस दल के 18 अमेरिकी राष्ट्रपति बने इसका रंग लाल और चुनाव चिन्ह हाथी है।परंपरागत रूप से रिपब्लिकन को भारत के ज्यादा करीब माना जाता रहा है। डेमोक्रेटिक पार्टी 188 साल पुरानी राजनीतिक पार्टी है जिसकी स्थापना वर्ष 1828 ई0 में हुई थी। इस राजनीतिक दल का चुनाव निशान गधा है और पार्टी की पहचान नीला रंग है। डेमोक्रेटिक पार्टी वामपंथी झुकाव वाला दल है, सामाजिक मसलों पर उदार सोच रखते हुए सामाजिक न्याय की पक्षधर हैं। विभिन्न नीतियों और योजनाओं में बड़ी सरकारी भागीदारी इनका लक्ष्य। अपनी इसी विचारधारा के चलते गरीबों, मध्य वर्ग और प्रवासियों के बीच लोकप्रिय है।
यही नहीं डोनाल्ड ट्रंप अमरीका के सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति हैं। राजनीतिक रुप से ट्रंप की कोई सियासी उपलब्धि है ही नहीं। अमरीका के धनकुबेर से निकलकर अचानक राष्ट्रपति बन जाने की उनकी गाथा ने विस्मय के लिए कई अध्याय पूरी दुनिया के लिए खोले हैं। चुनाव प्रचार के दौरान निरंतर विवादों का सबब बनने क बावजूद उनका जीतना और फिर शपथग्रहण समारोह में भी अपने पुरान रवैये पर अडिग रहना यह बताता है कि ट्रंप की सियासी पारी में तमाम बदलाव अपरिहार्य हैं। ट्रंप ने जिस तरह इस्लामिक आतंकवाद पर हमला बोलते हुए दुनिया की ताकतों को कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ जंग के लिए तैयार रहने के साथ ही साथ धरती से आतंकवाद का सफाया करने का उनका संकल्प, आतंकवाद से परेशान देशों के लिए बेहद राहत देने वाला है।
आतंकवाद से परेशान देशों में भारत सबसे अगुवा है। 37 साल में आतंकवाद ने लाखों जानें ली ली। आतंकवादी शक्तियों ने सोवियत संघ में बिखराव करा दिया। चीन का एक प्रांत शिनजियांग वीगर भी आतंकवाद की गिरफ्त में है। ट्रंप के एजेंडे में आतंकवाद के आने से भारत को यह राहत भी महसूस होनी चाहिए कि ओबामा ने अपनी नीतियों के चलते आतंकवाद से लड़ने का चेहरा भारत को बना दिया था। वह भारत के लिए मुफीद नहीं था क्योंकि भारत की आंतरिक सुरक्षा उस तरह मुस्तैद नहीं है जैसी आतंकवादी हमलों के लिए जरुरी होती है। ट्रंप के आने से यह साफ हो गया कि आंतकवाद से लड़ने का चेहरा खुद अमरीका होगा या रुस के राष्ट्रपति पुतिन।
ट्रंप यह साबित करना चाहेंगे, ‘आई डिड इट माई वे’ यह उनकी जीवनशैली भी है और उनके कार्य करने की तकनीकी भी। तभी तो दुनिया में सबसे ज्यादा परमाणु देश वाला हथियार होने के बावजदू ट्रंप इसे बढाने की वकालत करते है जर्मनी की शरणार्थी नीति को खारिज करते हैं। ब्रिक्जिट की प्रवृति को बल देते हुए यह कह उठते हैं कि वे देश के सम्मान, गौरव और रोजगार को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं। हालांकि प्रखर राष्ट्रवाद, श्वेत अमरीकियों को बढावा देना और मुस्लिम विरोध की उनकी नीति यह संदेश साफ देती है कि आने वाले दिनों में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को झटका लगेगा। मुक्त बाजार की नीति कमजोर होगी। पिछले कई दशकों से अमरीका समेत आर्थिक नीति तय करनवे वाली यह बाजार की प्रक्रिया बाई अमरीकन, हायर अमरीकन जैसे मूलमंत्र का हिस्सा बनेगी।
ओबामा केयर के खिलाफ ट्रंप का स्टैंड, जलवायु परिवर्तन की ओबामा की नीति के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धतता यह बताती है कि ओबामा अब यह बताना चाहते हैं कि अब तक कि सरकारें दुनिया के हिसाब से चलती रही है। आगे सबकुछ अमेरिका और अमेरिकी नागरिकों के हिसाब से चलेगा पर, लाख टके का सवाल यह है कि अमेरिका के गौरव और महानता की बात करते हैं तो उसका सीधा मतलब संरक्षणवाद से होता है। वैश्विक जिम्मेदारियों से काटकर अमेरिका का गौरव कैसे बढेगा। ट्रंप जलवायु संकट से निपटने के अब तक के अमेरिकी हिस्सेदारी को बेकार की कवायद मानते हुए इस दिशा में किए गये खर्च को फिजूलखर्ची ठहराते है। लेकिन इसकी वजह यह भी है उन्होंने जो नियुक्तियां की है उनमें से अधिकांश का रिश्ता तेल की बहुराष्ट्रीय कंपनियों से है। उनके विदेश मंत्री रैक्स टिलरसन एक्जान मोबिल के सीईओ रहे हैं। वे रूस के राष्ट्रपति पुतिन के करीबी हैं उनकी वजह से इस कंपनी को रूस में तेल के कारोबार में बडे निवेश का मौका मिला।
स्काट प्रूइट को एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी का मुखिया तथा टेक्सास के रिंक पैरी को ऊर्जा मंत्री नियुक्त किए जाने से साफ हो गया था कि जलवायु परिवर्तन का एजेंडा बीते दिनों की बात हो गया है। यह दोनों भी जीवाश्म ईंधन उद्योग समर्थक हैं। अमरीकी आर्थिक नीतियो के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली नेशनल इकानॉमिक काउंसिस की चेयरमैन गैरी कॉन को बनाया गया है। अरबपति व्यापारी बिलबर रॉस कामर्स मंत्रालय संभालेंगे। गैरी कॉन गेडमैन साक्स कंपनी से जुडे रहे हैं। इसी कंपनी के अधिकारी रहे स्टीव मिनुचिन ट्रेसरी सेक्रेट्री बने हैं।
ईराक और अफगानिस्तान में अपनी सेवाएं दे चुके पूर्व जनरल जेम्स मैटी शॉ रक्षा मंत्री बनाए गये हैं। वे पाकिस्तानी मामलों के अच्छे जानकार हैं पर भारत से वाकिफ नहीं है। डोनाल्ड जे ट्रंप की तरह यह भी मानते हैं कि पश्चिमी एशिया में अमरीका का फोकस इस्लामिक स्टेट के आतंकवाद को खत्म करने पर होना चाहिए। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद ट्रंप का रैडिकल टेरेरिज्म की बात करना यह अंदेशा जताता है कि कहीं आतंकवाद के नाम पर उनकी लड़ाई सिर्फ इस्लामिक स्टेट से निजात पाने तक ही न रह जाय। पेप्सी कोला की ग्लोबल सीईओ इंदिरा नूई को भी ट्रंप ने अपनी स्टैटजिक और पालिस फोरम में शामिल किया है। उनकी अधिकतर नियुक्तियां ऐसे लोगों की हैं जो अमरीकी ग्रामीण और औद्योगिक संकट के समझ नहीं रखते। वे अरबपति हैं और वह भी खुद की कमाई से नहीं पैतृक संपत्ति की वजह से हैं।
हद तो यह है कि ट्रंप की नियुक्तियों में अधिकांश ऐसे हैं जिनमें अमरीकी समाज के बुनियादी मूल्य उद्यमशीलता का अभाव है। ऐसे में अमरीकी लोगों का ड़रना और तमाम संशय का उमड़ना, घुमड़ना लाजमी है। यही नहीं अमरीका के प्रभाव को देखते हुए वहां के सत्ता परिवर्तन में तमाम देशों की दिलचस्पी स्वाभाविक है। एच-1 वीसा पर पुनर्विचार पर ट्रंप की बात सीधे तौर पर भारत को ड़राती है। भारत आई टी कंपनियों के भविष्य पर सवाल ख़ड़ा करती है क्योंकि अमरीका में एच-1 वीसा पर नब्बे फीसदी भारतीय है। एक चीन की नीति पर ट्रंप कैसे चलते है यह देखना भी जरुरी होगा क्योंकि ट्रंप के लिए चीन के बढते प्रभाव को काबू में रखने में भारत की उपयोगिता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। वह भारत के विशाल बाजार को नकार नहीं सकते। उनकी रिपब्लिकन पार्टी अमरीका में भारत परस्त मानी जाती है। इस लिहाज से भारत को अपने अमरीकी रिश्तों में गर्माहट की उम्मीद करनी चाहिए क्योकि रिचर्ड राहुल वर्मा जो भारत मे अमरीकी राजदूत है वह मूलतः भारतीय हैं।
ट्रंप ने यह चुनाव डेमोक्रेट प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ ही नहीं अमरीका की दोनो पार्टियों के स्थापित नेतृत्व के खिलाफ लडा और जीता। ऐसे में उनके अतिवादी हो जाने के खतरे भी कम नहीं हैं क्योंकि तकरीबन दो करोड़ लोगों को ओबामा केयर योजना के मार्फत मिलने वाले स्वास्थ्य बीमा लाभ से वंचित करने का फैसला यही संदेश देता है। पर ट्रंप को हमेशा याद रखना होगा कि पापुलर वोट में वह डेमोक्रैट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन से पीछे थे। ट्रंप की परीक्षा इन्हीं दो संतुलनों को साधने में साबित होगी। यही उनके कार्यकाल की सफलता का पैमाना बनेगा।
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Dr. Yogesh mishr

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