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लक्ष्मण रेखा पार करने को आतुर...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 25 Feb 2017 5:01 PM IST
कोमल है कमजोर नहीं शक्ति का नाम नारी है। यह शक्ति पुरुष के लिए प्रकृति के लिए सर्वदा और सर्वथा प्रेरणा रही है। यही वजह है कि स्त्री मां बनने के तुरंत बाद पूजनीय हो जाती है। उससे पहले कुछ पंथों, ग्रंथों और देशों में उसे भोग्या समझा जाता हो पर मां के रुप में सही गयी असह वेदना उसमें महानता की अनंत श्रृंखलाएं जनती हैं। भारत इकलौता ऐसा देश और इकलौता ऐसा धर्म है जहां देवताओँ को भी सारी शक्तियां देवियों से हासिल हुई हैं। रक्तबीज और महिषासुर के संहार के लिए हमें इसी शक्ति-स्वरुपा पर आश्रित होना पड़ा। यह वह शक्ति है जो कमजोर नहीं कोमल भले है। इसी शक्ति के प्रति हमारी आस्था ने इसे लेकर महानता के कई ऐसे विराट पुंज खड़े किए हैं जिसके रंच मात्र दरकने से भी हमारी, हमारे समाज की चीख चिल्लाहट इतनी बढ़ जाती है कि प्रगतिकामी ताकतों को अखरने लगता है। लेकिन उन्हें यह जरुर सोचना चाहिए कि मां बच्चे की पहली संस्कार शाला होती है। वह गर्भ में मां से इतना कुछ सीख लेता है कि विज्ञान के लिए उसे कसौटी पर कसकर परिणाम दे देना मुश्किल होता है। सिर्फ महाभारत में यह दृष्टांत है कि अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ना गर्भ में सीखा था। हालांकि सातवें द्वार को तोड़ने की कला कहते और सुनते द्रौपदी सो गयी थीं। सिर्फ यही एक कथा है जो पुष्ट करती है कि नौ माह के गर्भ में क्या क्या और कितना कुछ सीखा जा सकता है। यह पुष्ट ही नहीं करती बल्कि इस कथा को अनंत करोड़ बार दोहराकर नज़ीर देने का चलन आज भी जारी है। आगे भी जारी रहेगा। यह नजीर कालावधि है। पर 18 वीं शताब्दी में यूरोप से शुरु हुई नारीवादी चिंतन की धाराओं में उग्रवादी नारीवाद इस संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन की हिमायत करता नज़र आता है। बीसवीं सदी में मां की महानता के यह पुंज स्त्री की अस्मिता, उसके अधिकारों के इर्द गिर्द इस तरह सिमट कर रह गये कि इसे लेकर छोटे-छोटे द्वीप बन गये।  हम यह भूल गये कि संस्कृति कोई ठहरी हुई व्यवस्था नहीं होती। इसमें किसी भी वर्ग, समुदाय, तत्व, प्रकृति अथवा पुरुष के भीतर संबंधों के बनने की प्रक्रिया ठस नहीं होती। एक सी नहीं रहती। समय के साथ बढ़ती जरुरतों और बदलती-बनती परंपराओं के मुताबिक संपर्क में संबंधो के स्वरुप भी बदलते हैं। रहन सहन से लेकर मिजाज तक बदलते हैं। इसी बदलाव की दिशा को नारीवादी आंदोलनकारियों ने स्त्री विमर्श के नाम पर एक ऐसा ताना बाना पहनाया, जहां वह पुरुष के बराबर होने का दंभ भरने लगी। जबकि उसे शिष्टता का हक हासिल था। बराबरी की इस कोशिश ने उसमें पुरुष के प्रकृति की तामसिक प्रवृतियों और कार्यों को अंगीकार करने की नाटकीय अनिवार्यता पैदा की। यह नाटकीय अनिवार्यता जब बढी और स्वाभाविक हो गयी तो फिर शोर शराबे का उठना लाजमी हो गया। विरोध अनिवार्य हो गया । और जैसे जैसे यह बढ़ती गयी विरोध के स्वर कठोर ही नहीं कुटिल भी होते गये। पर विरोध के स्वरों में बदलाव को सिरे से खारिज कर देना एकदम जायज नहीं है, क्योंकि स्त्री पूजनीय इसीलिए थी क्योंकि वह तामसी प्रवृतियो से विरत थी। सीताराम, राधेकृष्ण, माता-पिता, यह संबोधन इसे साबित करते हैं।
अधोमानक परिवर्तन की इस फेहरिस्त पर गौर करें तो प्रकृति और पुरुष दोनों को शर्मसार होना पडेगा। हालांकि शर्म के कारण, उसकी सघनता और व्यापकता दोनों के लिए अलग अलग होंगे। बीते दिनों दिल्ली के मेट्रो में पाकेट मारने के एक अध्ययन में यह चौंकाने वाला तथ्य हाथ लगा कि पाकेटमारी की वारदातों को अंजाम देने वाली करीब 91 फीसदी महिलाएं थीं। यह पुरुषों के गैंग के मुकाबले 6 गुना ज्यादा हैं।  इसकी वजह अभाव भी हो सकती है, पर हमारी यह शक्ति पुरातन काल से अभाव में भाव तलाशती रही है। इसका सबक देती रही है। भारत में जितने भी नैतिक मूल्य और आदर्श हैं उनको गढ़ने के अलावा निर्वाह करने का सबसे ज्यादा काम इसी शक्ति स्वरुपा ने किया है। काम को भी धर्म का जामा शक्ति के इन्हीं विशेषणों के नाते पहनाया गया। पर बराबरी की दौड़ में वह छह गुना आगे निकलकर अधोपतन की दास्तान कहने लगे तो चिंता होना स्वाभाविक है।
ऐसा नहीं कि पहले यह सब नहीं हुआ। कभी तमिलनाडु की अपराध की दुनिया में शोभा अय्यर को लेडी डान माना जाता था। उसकी मर्जी के बिना तमिलनाडु में पत्ता नहीं हिलता था। लिट्टे जैसे आतंकी संगठन से उसके तार जुड़े थे। उसके खिलाफ रेडकार्नर नोटिस जारी हुई थी। मध्यप्रदेश की अर्चना बालमुकुंद शर्मा को किडनैपिंग क्वीन कहा गया। हेरोइन बनने की तमन्ना लिए अर्चना ने अपराध की ओर रुख किया तो कथा बन गयी। कहा यह भी जाता है कि अबू सलेम की पूर्व पत्नी समायरा जुमानी का नाम वसूली, धोखाधड़ी और बमविस्फोट तक में आ चुका है। उनके खिलाफ रेड कार्नर नोटिस जारी हो चुकी है। आखिरी बार वह अमरीका में दिखी थी।
1999 में शबाना आजमी द्वारा अभिनीत गाडमदर नाम की फिल्म एक सच्ची कहानी को रुपहले पर्दे पर दिखाती है। अपने पति सरमन मुंजा जडेजा की हत्या का बदला लेने के लिए संतोक बेन जडेजा ने हथियार उठाया तो कथा बन गयी। गुजरात के कुत्तिया निर्वाचन क्षेत्र से वह विधायक भी बनीं। उन्हें पहली महिला माफिया डान कहा जाता था। नेपाल सिक्किम सीमा पर लैला खान के नाम की दहशत साफ सुनी जा सकती है। चंबल के बीहड़ से संसद तक की फूलन देवी सबको पता है। इस तरह कभी कोमल को मजबूत साबित करने के लिए, कमजोर की शक्ति बताने के लिए और कभी प्रतिशोध के लिए जरायम की दुनिया में उतरने वाली महिलाएं कथा की पात्र रहीं, उपेक्षा की नहीं।
लेकिन जब नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे यह बताने लगें कि बीते वर्ष देश भर में हत्या, अपहरण, लूट पाट जैसे संगीन अपराधो में 194867 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया। राजस्थान जो कानून व्यवस्था और शांति का प्रतीक हो वहां महिलाएं अपराध करने में देश में तीसरे नंबर पर हों, पहले नंबर पर महाराष्ट्र हो। महिला अपराध के मामले में चौथे नंबर पर गुजरात जैसा राज्य आता हो और मुंबई पुलिस की ओर से यह दावा किया जाता हो कि जेल से छूटने के बाद बहुत कम महिलाएं ही अपराध करना छोड़ती हैं। अधिकतर महिलाएं और गंभीर अपराध करने लग जाती है। कई अपराधों को अंजाम देनेके लिए गैंग भी बना लेती हैं।
मनोवैज्ञानिक हरीश शेट्टी यह दावा करते हों कि हर मामले मे लैंगिक असमानता घट रही है, जैसे अब यूनीसेक्स कपड़े आने लगे हैं वैसे ही अपराध भी जेंडर न्यूट्रल हो गया है। वैसे तो यह एक सपाट सा वाक्य है, एक समाज वैज्ञानिक की यह निर्भक टिप्पणी है। पर इस बदलाव के पीछे की कहानी पर नज़र डालें और इसके प्रभाव और परिणिति का अध्ययन करें तो त्रासद दृश्य दिखते है। ये दृश्य बताते हैं कि  तामसिक प्रवृतियों का निरंतर प्रभाव बढ रहा है। उनकी यात्रा अबाध रुप से जारी है। अधोपतन के बदलाव स्वीकृत हो रहे हैं। नैतिक मूल्यों की स्थापानओं का काम करने वाले कंधे  निरंतर क्षीण हो रहे हैं। छिज रहे हैं। गर्भ में ‘अभिमन्यु’ के सीख लेने की कथा घटित तो होगी पर कहने लायक नहीं रह जाएगी। यह क्षरण सिर्फ प्रकृति और पुरुष के बदलाव का नहीं यह शक्ति के समुच्चय का क्षरण है। इससे न तो रावणी प्रवृति रुक पाएगी, ऩ ही कोई लक्ष्मण रेखा खींच पाएगी। और लक्ष्मण रेखा पार करने के नतीजे सबको पता हैं।

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Dr. Yogesh mishr

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