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आखिर क्या होगा बीस साल बाद !

Dr. Yogesh mishr
Published on: 9 Oct 2017 12:45 PM IST

बीस साल बाद की चिंता को थाम कर बैठना आज हो सकता है अतीत जीवी और वर्तमान जीवी लोगों को पसंद न आए। सच भी है कि जो बीस साल बाद होगा उसके लिए आज से चिंतित हो जाना लाजमी नहीं है। परिश्रमवादी और कर्मवादी यह भी सोच सकते हैं कि बीस साल बाद की चिंता कर हाथ पर हाथ धर बैठे रहने से बेहतर है कि कुछ उद्यम किया जाय, शायद चिंता की लकीरें ही मिट जाएं। पर हम जिस तरह बढ रहें हैं, जिस तेजी से बढ़ रहे हैं जिस तरफ बढ़ रह हैं उससे आशा की यह उम्मीद बेमानी हो जाती है।

बीस साल के बाद का कालखंड एक ऐसा कालखंड होगा जिसमें आधुनिक भारत के इतिहास से रूबरू हुआ कोई शख्स नहीं बचेगा। जो मुट्ठी भर भगवान के नेमत से बच भी गये वे नीति नियंता नहीं रहेंगे। नीति निर्माता नहीं रहेंगे। बीस साल बाद इस देश की सारी अहम कुर्सियों पर देश के सारे क्षेत्रो की रहनुमाई करने वाले पदों पर एक ऐसी पीढी होगी जिसका हाथ पूर्वजों के दिए हुए से एकदम रीता रहेगा। खाली रहेगा। सफलता की दौड़ में हम अपनी आने वाली पीढ़ी को वह कुछ नहीं दे पा रहे हैं जो हमें मिला। बीस साल बाद सांस लेने के लिए अलग आक्सीजन मंगाने की जरुरत पड़ सकती है। पीने के लिए बूंद बूंद पानी पर निर्भर रह सकता है। हमारी मां कहे जाने वाली नदियां नालों में तब्दील हो चुकी होंगी। हम जल को लेकर जो भी धार्मिक अनुष्ठान या संकल्प करते वह करने लायक नहीं बचेंगे। हमारी गाय गायब हो चुकी होगी। गाय के नाम पर विदेशी नस्ल हमारे गोदान का बहाना होंगी। हालांकि तब तक गोदान गैरवैज्ञानिक हो चुका होगा।

घर मे किसी के मरते ही हम आर्यसमाजी हो चुके होंगे। हरित क्रांति के चक्कर में हम अपनी पीढ़ियो को इतने कीटनाशक खिला चुके होंगे कि वे बीमारियों के पर्याय बन चुके होंगें। परिवार समाज बाजार की वस्तु हो चुके होंगे। संवेदना भौतिकवादी। आदमी आत्मकेंद्रित हो चुका होगा। उसकी सहनशक्ति जवाब दे चुकी होंगी हर छोटी बड़ी बात पर उलझता और भिड़ता नजर आएगा। ज्ञान का दर्प सिर्फ अंग्रेजी में रह जाएगा। धरती की कोख खाली हो चुकी होगी। देश का कर्ज उतारने में ही हम राष्ट्रवादी जाएंगे। आरक्षण हमें बांट कर रख देगा। लोगों की पहचान आरक्षित-गैरआरक्षित बनकर रह जाएगी। जिस तरह रेलगाडियों मे आरक्षित डिब्बों की तादाद अनारक्षित डिब्बों से कई गुना ज्यादा होती हैं। अनारक्षित डिब्बे तो सिर्फ एक दो रह जाएंगे। वैसा ही दृश्य दिखेगा।

हमारी ढेर से वानस्पतिक और वन्य जीव प्रजातियां विलुप्त हो चुकी होंगी। मौसम इस कदर करवट बदल चुका होगा कि एक ही दिन में गर्मी जाड़ा और बरसात तीनों झेलने पड़ सकते होंगे। साल 1976 में महमूद ने एक फिल्म बनाई थी सबसे बड़ा रुपैया। उसका एक गाना था न बीबी ना बच्चा, न बाप बड़ा न भैया द होल इज दैट की भइया सबसे बड़ा रुपैया। उस समय महमूद उपहास के पात्र बने थे। ग्रेट शोमैन राजकपूर ने 1985 में राम तेरी गंगा मैली नाम से फिल्म बनाई थी। इन दोनों फिल्मों को उस समय न बाक्स आफिस वह सफलता मिली जो चाहिए थी। राजकपूर की फिल्म की सफलता का जो कारण वह कथानक नहीं अदाकारा मंदाकिनी थीं।

नरसिम्हाराव से मनमोहन सिंह तक के प्रधानमंत्री बनने की यात्रा ने महमूद की फिल्म को सच साबित कर दिया। राजीव गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक ने राजकपूर की फिल्म के हकीकत पुष्ट कर दी। ऐसे ही बीस साल बाद की जो चिंताएं जाहिर की जा रही हैं उसके लिए इंतजार करना होगा। मेरी ये चिंताएं महज इसलिए हैं क्योंकि मैं प्रयोगधर्मी, परिवर्तनकारी, समाज और तकनीकी के साक्षी पीढ़ी का व्यक्ति हूं। हमने बैलगाड़ी से लेकर बुलेट ट्रेन तक के हकीकत देखी है। हमने दूसरों से चिट्ठी पाती लिखवाकर से लेकर ईमेल औ व्हास्टऐप करने का युग जिया है। हमने जिले में 8-10 गाडियों से हर घर में कई गाडियों का कालखंड देखा है। हमने नंबर मिलाकर थकती हुई उंगलियों और अपने प्रियजनों से बात करने के लिए लाइटनिंग काल के बावजूद दो तीन दिन इंतजार करने से लेकर वीडियो चौट का बदलाव देखा है।

हमने अपने सामने तिरोहित होते ग्रामोफोन, चोगें वाले फोन, पेजर, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, रेडियो, एंटीना, वाकमैन, लट्टू, गुल्ली डंडा, बच्चों को चलना सिखाने वाला लड़की का स्कूटर, टायर और डंडे से होने वाला खेल, वीसीआर, वीसीडी, टेपरिकार्डर, आडियो कैसेट, वीडियो कैसेट, पानी भरा वीडियो गेम, ढिबरी, टाइपराइटर, पोस्टकार्ड, अंतर्देशी, ग्रीटिंग कार्ड कोदेखा है। हमने रेडियो पर लाइसेंस का जमाना देखा है। घर में साइकिल आते ही उल्लास देखा है। गांव में पेट्रोमैक्स जलते ही फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी की हकीकत देखा है। हमने हाथ में धनिया आते ही खुशबू महसूस की है। पड़ोसी के घर पकते हुए चावल की खूशबू जी है। हमने नीबूं , मिर्च और धनिया घलुआ भी हासिल है और अब धनिया के एक-एक पत्ते की कीमत भी दे रहे हैं। हमने खान पान में अद्भुत स्वाद चखा है। हम खाना खाते ही बता सकते थे कि उसे मां ने बनाया है, दादी ने या बहन ने। हमने पूरे घर के एक ही थान के कपड़े पहने हैं। एक ही तौलिया, एक ही साबुन, एक ही तेल, एक ही कंघी, एक ही शौचालय का समय काटा है। शौचालय बेडरुम के साथ नहीं आंगन में होते थे। हमने तमाम किताबें, श्लोक, पैमाने, इतिहास, भुगोल, कविताएं आदि याद्दाश्त में जुटाकर रखा था। आज हम ही इन सबके लिए गूगल अंकल पर निर्भर हैं। आज के बीस साल बाद मैं युवक की कल्पना करता हूं तो उसके पीठ पर एक बस्ता, एक हाथ में पानी की बोतल और दूसरे में आक्सीजन किट और गले में लटका गैजेट दिखाई देता है। वैसे भी संचार पर हुए सर्वेक्षण में यह पता चला है कि मानव की संचार की तरक्की में जहां वह चला था वहीं पहुंचेगा। बोली और शब्द खत्म हो जाएँगे वह सिर्फ तरंगों या फिर चित्रण से सबकुछ व्यक्त करेगा। पहले फोन फिर मैसेज और आजकल स्माइली आदि से बातचीत को इसकी शुरुआत माना जा सकता है।

पहले छोटी बेइमानी करने वाला भी समाज में हिकारत का पात्र हो जाए ऐसा कालखंड देखा है, आज कैसे भी आये धन यह मूल्य हो गया है। पहले रिश्तेदार पुलिस वाला भी अगर ड्रेस में आ जाता था तो मोहल्ले में बातें बनती थीं, आज सीबीआई के छापे स्टेट्स सिंबल बन गए हैं। बन रहें हैं। पंडित मुल्ला मौलवी शुचिता और पवित्रता अनिवार्य थी। आज धन, वैभव और अनुयायियों की संख्या उनकी श्रेष्ठता का पैमाना है। कई कोस पहले पैदल चल लेते थे। बरसात में माटी की सुगंध होते थी। अब तो लंबा चले सालों गुजर जाते है। सुगंध देने वाले माटी से एलर्जी हो रही है। तुतलाते बच्चों ने पैदा होना बंद कर दिया है। ऐसी अनेक चिंताएं हैं जो मुझे बीस साल बाद के लिए परेशान कर रही हैं।

हम इस दिशा की तरफ इसलिए जा रहे हैं क्योंकि हमने सफलता को जिंदगी का पैमाना मान लिया है। हम भूल गये कि सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्लिम, अशफाक उल्ला और भगत सिंह भारत को आजादी दिलाने में सफल नहीं हुए थे। अंबेडकर ने आरक्षण लागू कराने के बाद इसके पक्ष में खडे होने की अपनी सफलता का प्रायश्चित किया था। महात्मा गांधी दांडी मार्च के बाद भारत को आजाद कराने में सफल नहीं हो सके थे। तभी उन्हें साबरमती छोड़ नए आश्रम सेवाग्राम में जा बसना पड़ा था। सरदार पटेल जम्मू कश्मीर के एकीकरण में सफल नहीं हुए थे। महात्मा और अब्दुल कलाम आजाद देश का बंटवारा नहीं रोक पाए थे। ए पी जे अब्दुल कलाम अंतरिक्ष वैज्ञानिक के रुप में यू आर राव से कम सफल हुए थे। पीटीऊषा और मिल्खा सिंह ओलंपिक में कभी मेडल नहीं जीत सके। पर यह सारे के सारे रोक हमारे आधुनिक भारत के अतीत, वर्तमान भविष्य और प्रेरणा सबकुछ हैं। बावजूद इसके हमने सफलता को अपना पैमाना बना लिया है। हमारी बीस साल बाद की चिंता की वजह यही पैमाना है जिसमें जहर जैसी खादें डालकर उपज बढाने का कार्यक्रम जारी है। जिसमें अधिक पानी खर्च करना, अधिक पैसे खर्च करना, विलासिता की जिंदगी जीना, दूसरों के जीने की परवाह नहीं करना दूसरों के दुख को अपना नहीं समझना, खुद के अलावा खुद सरीखे लोगों को छोड़ उनके होने न होने की परवाह न करना, सिर्फ और सिर्फ भौतिकवाद की दौड़ जीत लेना साधन भी है और साध्य भी। जिसमें आदमी परिवार, बच्चों और करीबी रिश्तों के लिए आदमी नहीं रखकर जरुरत बन गया है। हमें इस अंधी दौड़ रुकने का लक्षण नहीं दिख रहा है इसलिए बीस साल की चिंताएं परेशान करती हैं।





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Dr. Yogesh mishr

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