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क्या बदलेगा राहुल की ताजपोशी से....

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 Oct 2017 11:38 AM IST
राजनैतिक दलों में चेहरे बदलने का दौर चल रहा है। इस दौर की मुकम्मल शुरुआत भारतीय जनता पार्टी ने की थी। भारत माता के तीन धरोहल -अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर की जगह नरेंद्र मोदी और अमित शाह आ गये थे। समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह की जगह अखिलेश यादव और अब कांग्रेस में सोनिया गांधी की जगह राहुल गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की कोशिशें परवान चढ़ने ही वाली हैं। बसपा में मायावती के भाई भतीजे जगह पाने लगे हैं।
क्या कांग्रेस में हो रहा बदलाव क्या भाजपा की तरह फलीभूत हो पाएगा। सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष हैं। 19 सालों से वह अकेली योद्धा हैं। पति राजीव गांधी की मौत के बाद बड़े-बड़े भरोसेमंदों को साथ छोड़ते देखा है। इंदिरा गांधी के कालखंड में पूरी पार्टी को उनसे अलग होने की दास्तान भी सुनी। सीताराम केसरी के पार्टी अध्यक्ष और नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री के काल में उपेक्षा का दंश सहा है। उनके पूर्वजों की पार्टी कांग्रेस पर अपने अधिकार के लिए तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी को कार्यकारिणी की आपात बैठक बुलाकर बर्खास्त करना पड़ा है। लोगों ने केसरी को फूट-फूट रोते देखा है। कांग्रेस पार्टी ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तजने पर त्याग की प्रतिमूर्ति बताकर वोटबैंक बढाया है। सार्वजनिक स्थलों पर उनके माथे से न गिरने वाला पल्लू, बुजुर्ग महिलाओं में सोनिया के आकर्षण का सबब है।
जब संजय गांधी और राजीव गांधी राजनीति में आए थे तो उनके पास ऐसा कोई महत्वपूर्ण पद नहीं था जिससे छोटा पद राहुल गांधी के पास है। इंदिरा गांधी के रहते संजय और राजीव उतने प्रभावकारी भी नहीं थे। जितने सोनिया के रहते राहुल गांधी हैं। पार्टी में अध्यक्ष सोनिया हों पर अधिकांश मामलों में चलता राहुल का सिक्का है। उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन को राहुल ने अंजाम दिया। सोनिया तो सपा के साथ सियासत की कभी पक्षधर नहीं रहीं। प्रधानमंत्री बनना था तब भी उन्होंने सपा से समर्थन की चिट्ठी नहीं मांगी थी। उन दिनों सपा में प्रभावशाली भूमिका निभाने वाले अमर सिंह ने समर्थन की चिट्ठी सीधे तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को दी थी। उस चिट्ठी पर मुलायम सिंह के अनौपचारिक दस्तखत थे।
पिछले तीन विधानसभा चुनाव से राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में स्टार कैंपेनर रहे हैं। आज पार्टी अपना दल से भी छोटी हैसियत में है। टिकटों का बंटवारा लोकसभा में हो, या विधानसभा में मर्जी राहुल की चलती है। एक अहमद पटेल का एपीसोड को छोड़ दें, तो राहुल की इच्छा के खिलाफ सरकार या संगठन में कोई महत्व नहीं पा सका। अहमद पटेल के मामले में भी सोनिया गांधी ने राहुल को तसल्ली से समझाया। राहुल को प्रधानमंत्री बनाने के अलावा सोनिया ने हमेशा उनकी मनचाही ही की।
राहुल की युवा तुर्क टीम यह कह सकती है कि यूपीए के दूसरे टर्म में सोनिया उनको प्रधानमंत्री बनाकर उन्हें बड़ा अवसर दिला सकती थी। पर यह सच्चाई है कि लोगों के मनमोहन को छाया प्रधानमंत्री की धारणा से उलट यूपीए के दूसरे कालखंड में 10 जनपथ से 7 रेसकोर्स रोड की डोर टूट सी गयी थी। दोनों के बीच बिछे तार एक दूसरे की आवाज सुनाते थे जब मनमोहन सिंह चाहते थे।
राहुल के लोग- रणदीप सुरजेवाल, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कनिष्क, मिलिंद मुरली देवडा, अभिजीत मुखर्जी, नवीन जिंदल, संदीप दीक्षित, अजय माकन उनके अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को अनिवार्य बता रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर राहुल के अध्यक्ष होने से पार्टी में बदलेगा क्या। ऐसा क्या है जो राहुल सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते नहीं कर सकते हैं।
ऐसे कालखंड में जब अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव को अपदस्थ कर रहे है, तब राहुल के सिंहासनारुढ़ कराने की कोशिश के मायने कैसे अलग होंगे। कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर राहुल को कोई चुनौती नहीं है। जितने नेता हैं वे सब बहैसियत निहायत क्षेत्रीय हैं। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ मध्यप्रदेश, गुलाम नबी आजाद जम्मू-कश्मीर , अशोक गहलोत राजस्थान तक सीमित हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में कोई नेता ही नहीं है। पी.चिदंबरम, अंबिका सोनी, आनंद शर्मा, जयराम रमेश सरीखे कांग्रेस के बड़े चेहरे जनता के बीच से नहीं हैं। शशि थरुर, कपिल सिब्बल भी पैन-इंडिया चेहरा नहीं लगते। इंदिरा गांधी के समय देवराज अर्श, जगजीवन राम और शंकर दयाल शर्मा, राजीव के समय नरसिम्हाराव, केसरी और प्रणव मुखर्जी सरीखे नेता थे। सोनिया के समय शरद पवार, जीतेंद्र प्रसाद और एन.डी.तिवारी जैसे नेता थे।
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने शायद ही कभी ग्वालियर से भोपाल तक की गैर-चुनावी यात्रा सड़क से की हो। गुजरात और हिमाचल के चुनावी नतीजे कांग्रेस के हाथ आने वाले नहीं है। भाजपा वहां अपनी सरकार बनाकर दिखा देगी। फिर राहुल गांधी के अध्यक्ष बनाए जाने की कोशिश के क्या मायने हैं।
सोनिया गांधी ने प्रियंका को कांग्रेस में खड़ा होने की जगह नहीं दी। साफ है कि कुछ ऐसा नहीं जो राहुल का मनचाहा न हो, वह अपने प्रदर्शनों में निरंतर असफल हो रहे हैं। 2012 से अब तक कांग्रेस 24 चुनाव हार चुकी है। फिर क्या राहुल गांधी की ताजपोशी का यह समय उचित है, वह भी जब अभी उनकी पार्टी भ्रष्टाचार के पुराने अपयश धुल न पायी हो। जब सोशल मीडिया में मोदी-शाह टीम ने राहुल गांधी को प्रहसन बना दिया हो, उपनाम रखवा दिए हों।
बावजूद इसके अगर राहुल को पार्टी अध्यक्ष बनतें हैं तो एक बात समझ में आती है कि वे अपने पिता राजीव गांधी की तरह दक्ष नहीं है। अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह राजनीतिक प्रवीणता नहीं रखते कि जब चाहें तब पार्टी में उठने वाले विरोध पर विजय हासिल कर सकें। कार्यकर्ताओँ और नेताओं को यह संदेश दे सकें कि उनके चेहरे के बिना कांग्रेस का कायाकल्प संभव नहीं है। वोट उनके नाम और उनके काम पर है। उनके बिना कांग्रेस पार्टी कांग्रेस (ओ) हो सकती है या फिर सीताराम केसरी के कार्यकाल वाली लुंजपुंज कांग्रेस हो सकती है जिसमें प्रणव मुखर्जी, सीताराम केसरी शहमात खेलकर प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाना चाह रहे थे। सीताराम केसरी को माधवराव सिंधिया की मदद थी और प्रणव मुखर्जी को कई दिग्गजों की। गांधी परिवार की सोनिया के आने से पहले तक कांग्रेस उत्तर भारत से साफ हो गयी थी। ऐसे में राहुल को एक बना बनाया साफ-सुथरा पथ मिलना चाहिए, क्योंकि वह पहाड़ों पर चढ़ना और घाटियों में उतरना नहीं चाहते हैं।




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Dr. Yogesh mishr

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