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तनहाइयों का क्यों है शिकार आदमी...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 23 Oct 2017 10:30 AM IST

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी



फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी ।



निदा फ़ाजली की गज़ल के चंद अल्फ़ाज़ यह बता रहे हैं कि आखिर हम किधर जा रहे हैं। भीड़ में हम कितने अकेले हैं। अपनों के बीच कितने बेगाने हैं। परिचितों के साथ कितने अपरिचित हैं। अपने परिवार पर भी इस कदर का भरोसा नहीं है कि जिन्हें पाल पोस कर बड़ा किया गया है वे बुढ़ापे में हमारा बोझ उठा पाएंगे। जिनके लिए अपने कई सपने मां-बाप ने दफन किए हों, उनके सपनों के लिए खुद को हवन किया हो। कई रात जगे हों। अपनी ख्वाहिशों को उनके जिस्म में उगने के लिए खाद पानी दिया हो। उनके साथ भी बुढ़ापे का बोझ चल पाएगा यह मुश्किल हो पाएगा। तभी तो लुधियाना के राजगुरु नगर में रहने वाले बलदेव किशन और उनकी पत्नी नीलम ने लंबी बीमारी से तंग आकर बच्चों के साथ जीने से बेहतर मर जाना समझा।
62 साल के ये दंपत्ति पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में अध्यापक थे। लंबे समय से बीमार चल रहे थे। इनकी बेटी का विवाह अमरीका में हुआ था और बेटा कनाडा में पढ़ाई कर रहा था। बावजूद इसके इन लोगों ने ज़हर खाकर एक साथ मर जाना बेहतर समझा। जिसकी बेटी का विवाह विदेश में हुआ हो, बेटा विदेश में तालीम ले रहा हो। उसकी खुदकुशी की वजह आर्थिक तंगी नहीं हो सकती है। बलदेव व नीलम को यह यकीन हो गया होगा कि उनकी बीमार काया को परिवार के किसी की भी मदद नहीं मिलने वाली। सबके अपने लक्ष्य है, अपना कैरियर हैं, अपनी व्यस्तताएं हैं। नीलम और बलदेव सिर्फ नाम नहीं हैं। उनकी मौत सिर्फ एक दास्तां नहीं है। उनकी मौत बताती है कि आखिर हम निरंतर बेशुमार बढ़ते लोगों के बीच तनहाइयों के कितने शिकार हो गये हैं। एक मां-बाप चार बच्चे पालते हैं पर चार बच्चे एक मां-बाप को नहीं पाल पा रहे हैं। यह सब महज इसलिए हो रहा है क्योंकि रिश्तों का नज़रिया खांटी भौतिकवादी हो गया है। वह महाजन के लाल किताब की तरह खोया-पाया में बंट गयी है।
पहले नसीहत दी जाती थी कि कुछ क्षण तनहाइयों के साथ गुजारें। तनहाइयां आत्मविश्लेषण के लिए अनिवार्य थीं। तनहाई के समय की एकाग्रता हमें सबक सिखाती थी लेकिन अब तनहाइयां इस कदर बढ़ गयी हैं कि बीमारी बुनने लगी हैं। अब हम तनहाइयों में केंद्रित नहीं होते, एकाग्र नहीं होते, हम मल्टीटास्कर हो गये हैं। बलदेव और नीलम की कहानी आदमी के खंड-खंड विभक्त व्यक्तित्व की एक अनकही गाथा कहती है जिसमें अपने बच्चों से उठा हुआ विश्वास है, जिसमे पति-पत्नी में से किसी एक खत्म हो जाने के बाद दूसरे बचे हुए शख्स के पास हालात से लड़ने के चुक चुके माद्दे का बयान है। यह कहानी और इसके संदेश किसी एक जगह तक सीमित रहते तो यह उतनी बड़ी चिंता न होती, लेकिन अब यह कहानी उन गांवों तक चली गयी है जहां कभी किसी के मर जाने पर किसी के घऱ में चूल्हा नहीं जलता था और किसी के यहां शादी ब्याह होने पर पूरा गांव बंदोबस्त में जुटा और व्यस्त दिखता था।
जिन गांवों में भूख से कोई नहीं मरता था, उन गांवों में ही भूख से मरने के मामले सामने आ रहे है। सामंतवाद के पराभव के साथ उपजी बाजार व्यवस्था ने जिम्मेदारियों के ओढ़ने का रिश्ता खत्म कर दिया है। 3 अप्रैल से जून, 2017 के बीच हुए एजवेल फाउंडेशनद्वारा देश के 25 राज्यों के 300 जिलों में हुए सर्वे के मुताबिक गांवों में रहने वाले 39.19 फीसदी वृद्ध एकांकीपन के शिकार हैं, जबकि शहरों में यह आंकडा 64.1 फीसदी है। जबकि एकांकीपन के शिकार वृद्ध लोगों की औसत संख्या 47.49 फीसदी बैठती है। सर्वे के मुताबिक हर पांच में एक बुजुर्ग को इन दिनों एकांकीपन से उबरने के लिए मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग तक की नौबत आ गयी है।
हम अपने जीवन स्तर का आदर्श अमरीका और ब्रिटेन को मानते हैं। वहां यह स्थिति और भयावह है। इसी साल ब्रिटेन में एकांकीपन के अध्ययन के लिए जो कॉक्स कमीश्न आन लोनलीनेस बनाया गया था, उसके मुताबिक ब्रिटेन में तीन चौथाई बुजुर्ग एकांकीपन के शिकार हैं। अमरीका में अमरीकन एसोशिएशन आफ रिटायर्ड पर्सन्स नाम की संस्था ने लोनलीनेस स्टडी कराई। इसके नतीजे बताते हैं कि अमरीका में 45 साल से ऊपर के 4 करोड़ 26 लाख लोग क्रानिक लोनलीनेस यानी गंभीर एकांकीपन के शिकार हैं। अमरीका की कुल जनसंख्या 32 करोड़ से कुछ ज्यादा है। आस्ट्रेलिया में सितंबर 2016 में आए
लाइफलाइन सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 82 फीसदी आस्ट्रेलिया लोगों में एकांकीपन बढ़ रहा है।
ब्रिटेन के 65 साल के ऊपर के लोगों में एक संस्था एज यूके ने सर्वे किया जिसमें 2 लाख लोग ऐसे थे जिनकी बात अपने परिवार या दोस्तों से एक महीने से ज्यादा समय से नहीं हुई थी। इस आयुवर्ग के 3 लाख 60 हजार लोगों ने 1 हफ्ते से ज्यादा से अपने परिवार या दोस्तों से कोई बात नहीं की थी। 9 लाख 75 हजार लोग ऐसे निकले जो हमेशा एकांकीपन महसूस करते हैं। 12 लाख लोग गंभीर एकांकीपन के मरीज हैं। 10 लाख लोग ऐसे मिले जिन्होंने यह माना कि अपने परिवार के साथ उन्होंने कभी कोई वक्त नहीं गुजारा है।
मुंबई के ओशीवारा इलाके में 63 साल की आशा साहनी का बेटा रितुराज अमरीका में रहता था। आशा साहनी के पति का निधन 2013 में हो गया था। तीन साल बाद बेटा जब अपनी मां के पास लौटा तो उसे दरवाजा तोड़कर अंदर घुसना पड़ा, घर में उसकी मां का कंकाल मिला। उसने चार महीने से अपने मां से हेलो तक नहीं किया था। अगल बगल के लोगों को भी आशा की लाश की दुर्गंध नहीं पहुंच पाई थी। अब आप खुद सोचिए अपने बगलगिर का हालचाल आपने कब लिया था। अपने मां-बाप के साथ कोई पूरा एक दिन आपने कब गुजारा था। कभी एक घंटे तसल्ली से अपने लैपटाप और मोबाइल को किनारे रख मां-बाप के साथ मिल बैठे हैं आप। आप को कमाई और कैरियर की आन पड़ी है, आपके लिए ये अतीत है, अतीत में झांकना व्यर्थ है। लेकिन यकीन करिए आपका भविष्य भी यही है।
 


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Dr. Yogesh mishr

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