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अब वक्त की जरुरत है अकाउंटेबिलिटी टू लर्निंग

Dr. Yogesh mishr
Published on: 28 Nov 2017 12:31 PM IST
कभी राजीव गांधी ने शिक्षा की चुनौतियां शीर्षक से भारतीय शिक्षा पर एक श्वेत पत्र सरीखा  दस्तावेज  जारी किया था। इन दिनों संसद की प्राकलन समिति भारतीय शिक्षा की पड़ताल कर रही है। हालांकि प्राकलन समिति ने अपनी पड़ताल का केंद्र उच्च शिक्षा को बनाया है। प्राकलन समिति की कमान डा मुरली मनोहर जोशी के हाथ है वे देश के मानव संसाधन विकास मंत्री भी रह चुके हैं।
ऐसे में एक बार फिर शिक्षा पर सरकार का ध्यान जाना यह बताता है कि हम मैकाले के बोझ से उबरने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। भारत सरकार ने भी इस बार अपने प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा की गुणवत्ता का पता लगाने के लिए अपना एक सर्वे कराया है जो नवंबर की 13 तारीख को खत्म हुआ है। दिसंबर महीने की इसी तारीख तक इसी सर्वे के नतीजे अपलोड किए जाने की उम्मीद  है। मूलतः शिक्षा को लेकर हमारी चिंता आजादी के समय होनी चाहिए थी। सत्तर साल बाद जिस विषय को लेकर हमारी चिंता है उस पर अगर आज भी हम निष्कर्ष के तौर पर कुछ कर पाने में सफल हों तो भी यह श्रम साध्य कार्य हमारी आने वाली पीढ़ियों को दिशा देगा।
अभी तक हम जिस शिक्षा प्रणाली का संचालन कर रहे हैं वह ज्ञान नहीं देती है। वह किताब देती है, कपड़े देती है, खाना देती है, जूते देती और डिग्री देती है। कुछ को रोजगार भी देती है। शिक्षा को लेकर समय समय पर वाद-विवाद और वितंडा होता चला आ रहा है। सत्तर साल से सर्वाधिक आलोचना के केंद्र में शिक्षा है। अगर डाक्टर के हाथ एक मरीज मर जाता है तो उसके परिजन उत्पात करते हैं, गुस्सा जताते हैं। किसी स्कूल में अगर बच्चा फेल हो जाता है तो आखिर मास्टर के खिलाफ कोई गुस्सा क्यों नहीं होता है। हमने 70 साल में अकाउंटेबिलिटी टू लर्निंग क्यों नहीं लागू की। यह नहीं करने का नतीजा है कि शिक्षक राजनीति करने वाले यहां तक कहते हैं यह किस एक्ट में लिखा है कि टीचर पढाएगा, कितने घंटे पढाएगा ?
हम स्कूलों को जो अनुदान देते हैं उसे ब्लाक ग्रांट के रुप में क्यों देते हैं उसे स्कूल ग्रांट बेस्ड आन स्टूडेंट (छात्र आधारित विद्यालय अनुदान) के आधार पर क्यों नहीं देते। टीचर से हम पढाई के अलावा ढेर सारे और काम क्यों लेते हैं। देश में भाषाएं भले ही एक ही अनेक हों पर पाठ्यक्रम तो एक हो ही सकता है। हम अपने बच्चे को छुटपन से नैतिक शिक्षा की तालीम क्यों नहीं देते। क्यों हम उन्हें प्रकृति, पर्यावरण, प्रदूषण, बिजली, पानी की समस्या और यातायात के नियमों के बारे में जानकारी नहीं देते। हम उन अपने पूर्वजों के बारे मे क्यों नहीं बताते जिनके योगदान के बिना हम आज जहां हैं वहां नहीं हो सकते थे।
हमने शिक्षा को जातीय खांचे में बांट दिया है। हमारा नौजवान हमारे महापुरूषों को जातीय चश्मे से देखने लगा है। हमारा कृषि स्नातक फार्म हाउस में खेती करता है जबकि हमारे किसान की औसत जोत आधा हेक्टेयर से काफी कम है (0.38 हेक्टेयर)। डेयरी इंजीनियरिंग की पढाई करने वाला बच्चा अपने पूरे कैरियर में गाय भैंस के थन से दूध निकालना नहीं सीख पाता है। शिक्षा में हो यह हो रहा है कि जो नीति बनाने वाले लोग हैं वे प्रैक्टिशनर नहीं हैं और जो प्रैक्टिशनर है वे नीति निर्धारक नहीं है। यही विषमता हमारी शिक्षा को सिद्धांत और व्यवहार में बांटकर निरंतर अऩुपयोगी बना रहा है।
सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा के लिए एक बच्चे पर 4610/- रुपये ग्रामीण इलाकों में सरकार खर्च करती है जबकि शहरी इलाकों में यह 10 हजार 83 रुपये है (10083 रुपये)। गैर सहायता प्राप्त निजी संस्थान में अगर कोई बच्चा प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करता है तो उसे 10623/- औसतन देने पड़ते हैं। यह सरकारी और गैरसरकारी के बीच सिर्फ 540 रुपये का अंतर बैठता है।
देश में 26 प्रतिशत छात्र कोचिंग के सहारे पढाई करते हैं। शहर के तकरीबन बराबर धनराशि खर्च करने के बाद सरकारी स्कूल  अपनी प्रासंगिकता नहीं जता पा रहे हैं। वे केवल मिड डे मील के मुकाम बनकर रह गये हैं। हमारे सरकारी स्कूलों की प्रार्थनाएं लाचारी से लदी हुई हैं वे सत्य निष्ठा और अहिंसा का पाठ बेचारगी में पढ़ाती हैं। शहर के कानवेंट स्कूल  ‘कनेक्ट गॉड’ कर देते हैं । उसमें याचना भगवान से नहीं ‘गॉड’ से हो जाती है। भगवान और गॉड का भेद बिम्बात्मक और सांस्कृतिक है। जो सतह से देखकर नहीं समझा जा सकता है। अगर सरकार प्राथमिक शिक्षा पर खर्च की जाने वाली धनराशि का बाउचर दे सके तो शायद ज्यादा बच्चों को अच्छी तालीम दिला सकती है। अमरीका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने यह प्रय़ोग किया था, अगर बच्चे बाउचर पाएंगे और बाउचर पाने वाले बच्चों को बड़े स्कूल में प्रवेश का कोटा मिल जाएगा तो शहर और गांव, अमीर और गरीब के बीच के तालीम का भेद मिट जाएगा। पर हम ऐसा करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि शिक्षा हमारी अब सिर्फ ज्ञान के लिए नहीं रह गयी है, यह सियासत का बड़ा सबब है।
हमें उच्च शिक्षा के लिए एक समान पाठ्यक्रम लागू करने होंगे। जो जितना पढ़े उतना अनुपयुक्त न हो जाय इसक ख्याल रखना होगा। अंतः विषय (इंटर डिस्पलिनरी) तालीम पर जोर दिया जाना चाहिए। शिक्षा को हमने चिकित्सा की तरह विशेषज्ञता का सबब बना दिया है। अर्थशास्त्र का महत्व समाजशास्त्र के बिना संभव नहीं है, मनोविज्ञान के बिना अर्थशास्त्र संचालित हो नहीं सकता। इस तरह के समशैक्षिक समविषय अध्यय अध्यापन  की छूट दी जानी चाहिए। विश्वविद्यालयों को भविष्य निर्माण और प्राथमिक पाठशालाओं को चरित्र निर्माण का केंद्र बनाया जाना चाहिए। कक्षा 5 तक बच्चों को परीक्षा की कसौटी से दूर रखा जाना चाहिए। उनमें दो तीन भाषाओं की परिपक्वता करनी चाहिए। विशेषज्ञता करनी चाहिए। उनके आगे की जिंदगी में जो चीजें  उसे संकटकाल रचेंगी वे उनसे निपटने के लिए उनका उपयोग और उपभोग किस तरह करें। समाज और देश को देखने का नजरिया क्या हो इस पर बल दिया जाना चाहिए। अगर प्राथमिक विद्यालय चरित्र और उच्च शिक्षा भविष्य निर्माण करने में सफल नहीं होती है तब इस बार भी प्राकलन समिति की कोशिश अतीत का एक अध्याय बनकर रह जाएगी।
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Dr. Yogesh mishr

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