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अंत्योदयी समाजवाद
कभी-कभी इतिहास भी बड़ी गलतियां करता है। गलतियां करने के लिए मजबूर किया जाता है। इतिहास में ऐसे हस्तक्षेप किए जाते हैं कि वह ऐसी अहम गलती कर बैठे कि एक लंबे समय बाद इतिहास के पाठक को वह गलती सच नजर आने लगे। ऐसा ही काम भारतीय जनता पार्टी के प्रतीक व विचार पुरुष पंडित दीनदयाल उपाध्याय और समाजवाद के पुरोधा पुरुष ड़ा. राम मनोहर लोहिया को लेकर हुआ। इन दोनों के बीच ऐसी विभाजक रेखा खींची गई कि ये एक-दूसरे के शत्रु नजर आने लगे। ऐसी कोशिश की गई कि पीढ़ियों को यह पता लगे कि जहां दीनदयाल जी होंगे वहां लोहिया जी न तो होंगे, न होना चाहेंगे, न उनके समर्थक उन्हें रहने देंगे। कमोवेश यही स्थिति दूसरी ओर भी है। जहां ड़ा. लोहिया होते है, उनके भी समर्थक नहीं चाहते हैं कि वहां दीनदयाल जी भी रहें। यह धारणा इतिहास में हस्तक्षेप करके तैयार की गई है। यह ऐतिहासिक गलती है। इसे सुधारने के लिए न तो इनके समर्थक और अनुयायी आगे आ रहे हैं। न ही इनका नाम लेकर सियासत करने वाले दिग्गज नेता।
इन दोनों को ठीक विपरीत बताने। इन दानों को धर्म निरपेक्षता और सांप्रदायिकता के खांचे में फिट करने की निरंतर जारी कोशिश परवान चढ़ गई। क्योंकि इसे काउंटर करने की शक्तियां इतिहास की इस गलती को समझने-समझाने को तैयार नहीं थी। यही वजह है कि लोहिया जी और पं. दीनदयाल जी आज धुर विरोध के स्वर हैं। जबकि इन दोनों नेताओं में सत्य की निष्ठा तथा वैक्तिक विश्वास एवं चारित्रिक प्रमाणिकता एक सरीखे थी। दोनों कोई भी बात चुनावी हार-जीत के लिहाज से नहीं कहते थे। जनता के दुख-दर्द को जीते थे। अपने सिद्धांतों के प्रति इनकी प्रतिबद्धता जीवनपर्यंत रही। इनके चिंतन में देशज मनःस्थिति के साथ बुनियादी कर्तव्य की मौलिक शक्ति पढ़ी जा सकती है। कोरे सिद्धांत की दुहाई देकर राजनीति चलाना इनकी मंशा नहीं थी। दोनों यह चाहते थे कि परिणामपरक कार्यक्रमों द्वारा बुनियादी क्रांति लाई जाए।
चित्रकूट के स्फटिक शिला पर खड़े होकर ही लोहिया जी को लगा था कि उन्हें दिल्ली को जीतना है। यहीं उनके मन में रामायण मेला और संसद में पहुंचने की अनिवार्यता समझ में आई। राममंदिर आंदोलन के बाद दीनदयाल जी की राजनीतिक विचारधारा, जो अब भारतीय जनता पार्टी बन चुकी थी, का भी संसद में सरकार का मार्ग खुला। लोहिया जी भारतीय प्रतीकों को गौरव मानते थे। यही धारणा दीनदयाल जी की भी थी। लोहिया जी यमुना को राग और रस वाली नदी मानते थे। सरयू को मर्यादा और गंगा को भक्ति की नदियों में शुमार करते थे। जब वह नदियों, रामायण, राम आदि से अपना रिश्ता बताते थे। वह कहते थे कि मेरी मां मिथिला की और मैं सरयू तट पर जन्मा हूं। इसलिए दोनों भूखंडों से मेरा गहरा रिश्ता है। भारतीय प्रतीकों से वे अपने रागात्मक संबंध स्थापित करते थे। गीता के निष्काम कर्म को उन्होंने निराशा के कर्तव्य नामक अपने लेख में अद्भुत व्याख्या की थी। उन्होंने कहा था- ’’निष्काम कर्म करना संभव नहीं है। कामना सहित कर्म करना स्वार्थ हो जाता है। निराश रहना और फिर भी कर्तव्य करते जाना संभव है। यानी तात्कालिक असफलता के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। उन्होंने वाल्मिकी और वशिष्ठी परंपरा पर भी एक विचारोतेजक लेख लिखा था। उनकी कोशिश जन-जीवन के उन मूल स्रोतों को जगाना था जो हजारों वर्ष से सुप्त पड़े थे। इन्हीं भावनाओं को केंद्र में रखकर उन्होंने कई सांस्कृतिक आंदोलनों को स्वरूप दिया था। वे मिथकों, किंवदतिंयों, परंपराओं और उत्सवों के माध्यम से इतिहास की तथ्यात्मकता को विश्लेषित करते थे। उन्होंने इतिहास को संस्कृति का अनुगामी बनाकर उसका नवीनीकरण किया। वह मानते थे कि मशीनों के संस्कार भी देश की मिट्टी और संस्कृति से जुड़कर बनते हैं। अपनी कंबोज और वियनाम यात्रा में लोहिया जी ने जम्बूद्वीप की अवधारणा पर काफी चर्चा की।
अन्याय के खिलाफ अकेले खड़े होने का साहस इन दोनों नेताओं में मिलता है। दोनों यह जानते थे कि अन्याय का विरोध सिर्फ जीतने के लिए नहीं किया जा सकता। अन्याय के खिलाफ हारी गई लड़ाई भी यह संदेश देती है कि आततायी के दुस्साहस को चुनौती मिलेगी ही। यह चुनौती देना भी एक मूल्य है। दोनों गुदड़ी के लाल थे।
पहला चुनाव लोहिया जी भी चंदौली से हार गए थे। दीनदयाल जी भी पहला चुनाव जौनपुर से हारे। दोनों अखंड राष्ट्रीयता में विश्वास करते थे। साधनहीनता के कारण दोनों की तेजस्विता पूरी तरह नहीं उभर पाई। दोनों को हिंदुस्तान के गरीब लोग अपना आदमी, अपना प्रतिनिधि मानते थे। सत्ता और सामर्थ्य के प्रतीकों से जुड़ाव दोनों के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं था। लोहिया जी ने सेक्युलरिज्म शब्द के खतरे के बारे में लोकसभा में कहा था- ’’जिस एक अंग्रेजी शब्द ने हमारा बड़ा नुकसान किया है, वह सेक्युलरिज्म। सेक्युलरिज्म का अर्थ बहुत कम लोग ही जानते हैं। धर्म निरपेक्ष जिसे कहते हैं वह तो इसका बड़ा छोटा से अर्थ है। सेक्युलरिज्म का अर्थ है- इह लोकवादी।’’ सेक्युलरिज्म को लेकर राजनीतिक अस्पृश्यता दीनदयाल जी की जनसंघ और भाजपा को झेलनी पड़ी है।
लोहिया जी गंगा साफ करने की बात करते थे। दीनदयाल जी का अंत्योदय और लोहिया जी समाजवाद की असमानता दूर करने की बात करते हैं। अंतर सिर्फ विपन्न लोगों तक पहुंचने के तरीके में है। लक्ष्य एक ही है। लोहिया जी दीनदयाल जी के साथ आरएसएस की बैठकों में गये थे, वे एक पुरुष-एक पत्नी के समर्थक थे। नरेंद्र मोदी की भाजपा का तीन तलाक पर स्टैंड उसी ओर जाता है।
लोहिया जी ने जहीरुद्दीन बाबर को लुटेरा कहा था वे सत्य शोधक संघ के संयोजक थे। पुणे निवासी हमीद दलवई के साथ लोहिया जी बातचीत की थी कि हिंदू-मुस्लिम सौहार्द दृढ़ बनाने के लिए अयोध्या, मथुरा और काशी की ऐतिहासिक विकृतियों को शांतिपूर्वक सहमति के साथ सही किया जाय। धर्म और धर्मांतरण पर भी लोहिया जी के विचार दीनदयाल जी से अलग नहीं हैं। दोनों मानते थे कि राजनीति का संस्कृति, समाज और अध्यात्म से जीवंत संबंध उसे उद्देश्य मूलक बनाता है। फिर आखिर दोनों के एक दूसरे के ठीक उलट क्यों खड़ा किया गया है जबकि दीनदयाल जी का अंत्योदय और लोहिया जी का समाजवाद मिलकर अंत्योदयी समाजवाद के दर्शन के जरिए भारतीय समस्याओँ का देशज हल देता है। दे सकता है।
इन दोनों को ठीक विपरीत बताने। इन दानों को धर्म निरपेक्षता और सांप्रदायिकता के खांचे में फिट करने की निरंतर जारी कोशिश परवान चढ़ गई। क्योंकि इसे काउंटर करने की शक्तियां इतिहास की इस गलती को समझने-समझाने को तैयार नहीं थी। यही वजह है कि लोहिया जी और पं. दीनदयाल जी आज धुर विरोध के स्वर हैं। जबकि इन दोनों नेताओं में सत्य की निष्ठा तथा वैक्तिक विश्वास एवं चारित्रिक प्रमाणिकता एक सरीखे थी। दोनों कोई भी बात चुनावी हार-जीत के लिहाज से नहीं कहते थे। जनता के दुख-दर्द को जीते थे। अपने सिद्धांतों के प्रति इनकी प्रतिबद्धता जीवनपर्यंत रही। इनके चिंतन में देशज मनःस्थिति के साथ बुनियादी कर्तव्य की मौलिक शक्ति पढ़ी जा सकती है। कोरे सिद्धांत की दुहाई देकर राजनीति चलाना इनकी मंशा नहीं थी। दोनों यह चाहते थे कि परिणामपरक कार्यक्रमों द्वारा बुनियादी क्रांति लाई जाए।
चित्रकूट के स्फटिक शिला पर खड़े होकर ही लोहिया जी को लगा था कि उन्हें दिल्ली को जीतना है। यहीं उनके मन में रामायण मेला और संसद में पहुंचने की अनिवार्यता समझ में आई। राममंदिर आंदोलन के बाद दीनदयाल जी की राजनीतिक विचारधारा, जो अब भारतीय जनता पार्टी बन चुकी थी, का भी संसद में सरकार का मार्ग खुला। लोहिया जी भारतीय प्रतीकों को गौरव मानते थे। यही धारणा दीनदयाल जी की भी थी। लोहिया जी यमुना को राग और रस वाली नदी मानते थे। सरयू को मर्यादा और गंगा को भक्ति की नदियों में शुमार करते थे। जब वह नदियों, रामायण, राम आदि से अपना रिश्ता बताते थे। वह कहते थे कि मेरी मां मिथिला की और मैं सरयू तट पर जन्मा हूं। इसलिए दोनों भूखंडों से मेरा गहरा रिश्ता है। भारतीय प्रतीकों से वे अपने रागात्मक संबंध स्थापित करते थे। गीता के निष्काम कर्म को उन्होंने निराशा के कर्तव्य नामक अपने लेख में अद्भुत व्याख्या की थी। उन्होंने कहा था- ’’निष्काम कर्म करना संभव नहीं है। कामना सहित कर्म करना स्वार्थ हो जाता है। निराश रहना और फिर भी कर्तव्य करते जाना संभव है। यानी तात्कालिक असफलता के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। उन्होंने वाल्मिकी और वशिष्ठी परंपरा पर भी एक विचारोतेजक लेख लिखा था। उनकी कोशिश जन-जीवन के उन मूल स्रोतों को जगाना था जो हजारों वर्ष से सुप्त पड़े थे। इन्हीं भावनाओं को केंद्र में रखकर उन्होंने कई सांस्कृतिक आंदोलनों को स्वरूप दिया था। वे मिथकों, किंवदतिंयों, परंपराओं और उत्सवों के माध्यम से इतिहास की तथ्यात्मकता को विश्लेषित करते थे। उन्होंने इतिहास को संस्कृति का अनुगामी बनाकर उसका नवीनीकरण किया। वह मानते थे कि मशीनों के संस्कार भी देश की मिट्टी और संस्कृति से जुड़कर बनते हैं। अपनी कंबोज और वियनाम यात्रा में लोहिया जी ने जम्बूद्वीप की अवधारणा पर काफी चर्चा की।
अन्याय के खिलाफ अकेले खड़े होने का साहस इन दोनों नेताओं में मिलता है। दोनों यह जानते थे कि अन्याय का विरोध सिर्फ जीतने के लिए नहीं किया जा सकता। अन्याय के खिलाफ हारी गई लड़ाई भी यह संदेश देती है कि आततायी के दुस्साहस को चुनौती मिलेगी ही। यह चुनौती देना भी एक मूल्य है। दोनों गुदड़ी के लाल थे।
पहला चुनाव लोहिया जी भी चंदौली से हार गए थे। दीनदयाल जी भी पहला चुनाव जौनपुर से हारे। दोनों अखंड राष्ट्रीयता में विश्वास करते थे। साधनहीनता के कारण दोनों की तेजस्विता पूरी तरह नहीं उभर पाई। दोनों को हिंदुस्तान के गरीब लोग अपना आदमी, अपना प्रतिनिधि मानते थे। सत्ता और सामर्थ्य के प्रतीकों से जुड़ाव दोनों के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं था। लोहिया जी ने सेक्युलरिज्म शब्द के खतरे के बारे में लोकसभा में कहा था- ’’जिस एक अंग्रेजी शब्द ने हमारा बड़ा नुकसान किया है, वह सेक्युलरिज्म। सेक्युलरिज्म का अर्थ बहुत कम लोग ही जानते हैं। धर्म निरपेक्ष जिसे कहते हैं वह तो इसका बड़ा छोटा से अर्थ है। सेक्युलरिज्म का अर्थ है- इह लोकवादी।’’ सेक्युलरिज्म को लेकर राजनीतिक अस्पृश्यता दीनदयाल जी की जनसंघ और भाजपा को झेलनी पड़ी है।
लोहिया जी गंगा साफ करने की बात करते थे। दीनदयाल जी का अंत्योदय और लोहिया जी समाजवाद की असमानता दूर करने की बात करते हैं। अंतर सिर्फ विपन्न लोगों तक पहुंचने के तरीके में है। लक्ष्य एक ही है। लोहिया जी दीनदयाल जी के साथ आरएसएस की बैठकों में गये थे, वे एक पुरुष-एक पत्नी के समर्थक थे। नरेंद्र मोदी की भाजपा का तीन तलाक पर स्टैंड उसी ओर जाता है।
लोहिया जी ने जहीरुद्दीन बाबर को लुटेरा कहा था वे सत्य शोधक संघ के संयोजक थे। पुणे निवासी हमीद दलवई के साथ लोहिया जी बातचीत की थी कि हिंदू-मुस्लिम सौहार्द दृढ़ बनाने के लिए अयोध्या, मथुरा और काशी की ऐतिहासिक विकृतियों को शांतिपूर्वक सहमति के साथ सही किया जाय। धर्म और धर्मांतरण पर भी लोहिया जी के विचार दीनदयाल जी से अलग नहीं हैं। दोनों मानते थे कि राजनीति का संस्कृति, समाज और अध्यात्म से जीवंत संबंध उसे उद्देश्य मूलक बनाता है। फिर आखिर दोनों के एक दूसरे के ठीक उलट क्यों खड़ा किया गया है जबकि दीनदयाल जी का अंत्योदय और लोहिया जी का समाजवाद मिलकर अंत्योदयी समाजवाद के दर्शन के जरिए भारतीय समस्याओँ का देशज हल देता है। दे सकता है।
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