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सेंध बढ़ी तो ढ़ह सकता है किला
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
अगले लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर इस तरह की आशंका का इन दिनों उठना लाज़मी है। नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनका निर्वाचन भले पांच साल के लिए हुआ था पर आम चर्चा यह थी कि उन्होंने 10 साल के कालखंड के लिए स्थान खुद के लिए और अपनी पार्टी के लिए सुरक्षित कर लिया है। यह बात विपक्ष के लोग भी दबे जुबान मानने लगे थे। जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तो सार्वजनिक तौर पर इसे कुबूल भी कर लिया था। लेकिन आज जब 10 साल में छह वर्ष बाकी हैं, दूसरी पारी की शुरुआत का भी एक साल बाकी तब यह आशंका जताई जाने लगी है कि अटल बिहारी वाजपेयी के फीलगुड की तरह ही कहीं अच्छे दिन लाने के संकल्प का हश्र न हो जाय।
यह आशंका तब है जब भारतीय जनता पार्टी ने सचमुच राष्ट्रीय स्वरुप ग्रहण कर लिया है। कश्मीर से कन्या कुमारी तक और कच्छ से बंगाल की खाड़ी तक पार्टी के अश्वमेघ का घोड़ा बेरोक टोक दौड़ रहा है। जिन राज्यों में खाता तक नही खुलता था उनमें भाजपा सरकार बना रही है। 22 राज्यों में एनडीए की सरकार है। भाजपा की अपनी सरकार 16 राज्यों में है। करीब 68 फीसदी आबादी वाले इलाकों पर उसका परचम लहरा रहा है। बिहार, दिल्ली पंजाब को छोड़ दें तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने नित नए कीर्तिमान लिखे हैं। कभी अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर तक सिमट कर भारत की धरोहर जैसे नारों से नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पार्टी को बाहर निकाला है। हिंदुत्व के साथ विकास नया काकटेल तैयार किया है।
पार्टी को अगड़ों और व्यापारियों की पार्टी की तोहमत से अलग लाकर खड़ा कर दिया है। शहरों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा की जड़ें गांवों में भी फैला दी है। बावजूद इसके एनडीए के सहयोगियों के किनारकसी का सिलसिला शुरु हो गया है। चंद्रबाबू नायडू ने अलग राह पकड़ ली है। हद तो यह है कि पहली बार लाए जा रहे अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वह खड़े हो गये है। सोनिया गांधी के आमंत्रण पर 20 राजनीतिक दल एकजुट होने की तैयारी में हैं। उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनाव ने अखिलेश यादव और मायावती को एक होने का मौका मुहैया कर दिया है। इनकी जोड़ी ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की सीटें हथिया ली हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकसभा सीट तकरीबन 3 दशक बाद विपक्ष झटकने में तैयार हो गया।
वैसे तो उपचुनाव के नतीजों को कोई महत्व नहीं देता है। लेकिन इन दोनों सीटों के नतीजों ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों में बड़ी और नई संभावनाओं को जन्म दे दिया है। पूरी की पूरी कास्ट कमेस्ट्री बदल कर रख दी है। सपा और बसपा का गठजोड़ एक बेहद मजबूत और अकाट्य वोट बैंक का नुस्खा बन गया है। भाजपा के पास अब उत्तर प्रदेश में अगड़ों पर केंद्रित होने तथा अति दलित और अति पिछड़ों के अलावा कोई रास्ता नहीं है। पहला लोकसभा का चुनाव ऐसा होगा जिसमें भाजपा को देश और उत्तर प्रदेश के लिए अलग अलग रणनीति बनानी होगी। सुशासन के अलावा भाजपा के पास एकजुट हो रहे विपक्ष, गढ़े जा रहे नए गठबंधनों का कोई जवाब नहीं है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि सुशासन के मामले मे उसकी राज्य सरकारें बेहद फिसड़्डी हैं।
नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार जो ठीक-ठाक करती है उस पर राज्य सरकारों के काम काज पलीता लगा देते हैं। नतीजतन, राज्यों में नरेंद्र मोदी के परिवर्तन और विकास के वादे आकार नहीं ले पा रहे हैं। उन्होंने राज्यों के चुनाव में अपनी साख को दांव पर लगाते हुए परिवर्तन और विकास के जो वादे किए थे। उनमें परिवर्तन अदृश्य है और विकास लापता। राज्य सरकारें विकास के नाम पर ढोंग कर रही हैं। वे काम की जगह कानून बता रही हैं। आदर्श परोस रही हैं। नतीजतन, भाजपा कार्यकर्ता बेहद मायूस है। उत्तर प्रदेश की सपा और बसपा सरकारों के कार्यकाल में कार्यकर्ताओँ की पौ बारह रहती है। लेकिन आज योगी सरकार तक भी उसकी सीधी पहुंच संभव नहीं हो पा रही है।
पारदर्शिता के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें लाभान्वित वे लोग हो रहे हैं जिनका श्रम भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने में काम नहीं आया था। तीन-चार मंत्रियों को छोड़ दिया जाय तो सरकारी दफ्तरो में भ्रष्टाचार वैसा ही है जैसा सपा और बसपा के कार्यकाल में था। मंत्रियो में सत्ता का नशा नैतिकता और ईमानदारी की आवरण छिप कर इस कदर चढ़ा हुआ है कि उसका सीधा खामियाजा कार्यकर्ताओं उठाना पड़ रहा है। सरकार दावे कर रही है पर यह भूल जा रही है कि पारदर्शिता के इस युग में उसके दावों की पल-पल परख जनता कर रही है जिनमें दावे निरंतर बेमानी निकल रहे हैं। किसान सिर्फ आश्वासन पा रहा है, नौजवान को उम्मीद बांटी जा रही है। गांव के विकास की कहानी इतनी दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने के बाद भी सिर्फ 10 फीसदी सांसद अपने कार्यकाल के खत्म होने तक दो गांव को गोद लेकर संतृप्त कर पाए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौकरशाहों से कहा था कि आप अपनी पहली तैनाती के स्थान जाइए, अपने परिवार के साथ जाइए। वहां योगदान दीजिए। कितने लोग गये यह जानकारी नहीं रहस्य हो गया है। अनुभव हीन मुख्यमंत्रियों की फौज सीखने को भी तैयार नहीं दिखती। दूसरे दलों से आए नेताओँ ने पार्टी विद ए डिफरेंस का मंत्र बेमानी कर रखा है।
मोदी की लोकप्रियता कायम है उनकी बातों पर विश्वास है लेकिन जनता मुख्यमंत्रियों को सबक देते हुए सबक सिखाने का मन बनाए हुए है। उसे लगता है कि जब तक सिर्फ ज्ञान दे रही और प्रवचन कर रही राज्य सरकारें लोकतांत्रिक पराजय नही झेलेंगी तब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उन्हें दंड और पुरस्कार की कसौटी पर नहीं कसेंगे। ऐसे में लम्हों की खता और सदियों की सज़ा की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। यही वजह है कि 2019 में कौन का सवाल उठ रहा है। चुनाव से पहले हो रहे उपचुनाव में भाजपा निरंतर पराजय का दंश झेल रही है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह को 2019 में कौन के सवाल का उत्तर देने के लिए अपनी केंद्र सरकार की जगह राज्य सरकारों पर फोकस करना होगा। जो केंद्रीय योजनाएं राज्यों में चल रही हैं उनकी जमीनी समीक्षा करनी होगी। केंद्र की योजनाओं को गांव गांव तक ले जाना होगा नहीं तो राज्य सरकारों के खिलाफ गुस्सा कास्ट कमेस्ट्री के मार्फत किसी नई संभावना का द्वार न खोल दे।
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