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सवाल यह है कि किताबें क्या देतीं हैं किसी को
जहां तक बात लिखने की है, तो लेखक बनना भी आसान नहीं होता। यह ठीक है कि आज धड़ल्ले से किताबें छप रहीं हैं पर सबसे महत्वपूर्ण बात है उनकी सामग्री। वह कितने पाठकों को वाकई आकर्षित करती है खुद को पढ़ने के लिए।
'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।'
संत कबीर का यह दोहा पुस्तकों के पढ़ने की बुराई नहीं करता है बल्कि वह यह बताता है कि अगर कोई प्रेम का ढाई अक्षर ही पढ़ ले तो भी वह सच्चा ज्ञानी बन सकता है । बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़ कर भी संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर उसके लिए पोथियां या बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने की जरूरत नहीं बताते हैं। लेकिन बड़ी-बड़ी किताबें पढ़कर या बड़ी-बड़ी किताबें न पढ़कर भी क्या हम प्रेम को सीख पाए हैं? क्या हम उसके ढाई अक्षरों का अर्थ समझ पाते हैं? जब हम उसके ढाई अक्षरों का अर्थ किताबों को पढ़कर या किताबों को बिना पढ़े समझ ही नहीं पाते हैं तो इस दोहे का ग़लत संदर्भ में उदाहरण देना क्या सही है?
हम आज जिस समाज में रहते हैं वहां पर अब पठन और पाठन की संस्कृति बहुत पीछे छूटती जा रही है। लोग पढ़ना ही नहीं चाहते हैं और अगर कोई अखबार या किताबें पढ़ता हुआ दिखाई दे जाता है तो यह माना जाता है कि इसके पास में कुछ करने को है नहीं या फिर इसके पास बहुत ही खाली समय है या फिर यह कोई किताबी कीड़ा जैसा व्यक्ति है, जिसे हर लिखे को पढ़ने की यानी चाटने की आदत है । और अगर महिलाएं या लड़कियां किताबें पढ़ती दिख जाएं या अखबार में दिमाग लगाने लग जाती हैं तब तो और भी बड़ा झोल। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।
हम इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं कि महिलाएं या लड़कियां इन अखबार या किताबों की दुनिया में उलझी हों, कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर। हमारे देश में आज भी यह माना जाता है कि जो लड़कियां ज्यादा पढ़ती हैं, उन्हें दुनिया की समझ ज्यादा होती है या नहीं पर वे ज्यादा तेज -तर्रार होती हैं। इसलिए उनका पढ़ना- लिखना, उनका दुनिया के बारे में ज्यादा जानकारी रखना या उसके बारे में अपना अपना मत रखना फिजूल का ज्ञान बांटने जैसा है। साक्षर व्यक्तियों की बढ़ती संख्या के बावजूद, किताबें पढ़ने में रुचि में वह बढ़ोतरी नहीं दिख रही है। यह बदलाव पढ़ने की आदतों को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में सवाल उठाता है।
बहरहाल हमारे देश में पढ़ने की संस्कृति कोई बहुत स्तरीय नहीं है। हम भले ही साक्षर होते जा रहे हैं पर हमारी पठनीयता का प्रतिशत बढ़ने की जगह कम ही होता जा रहा है। हम या तो पुस्तकें पढ़ते ही नहीं है और अगर पढ़तें भी हैं तो उसे हम बहुत शीघ्रता के साथ उलट-पुलट कर पढ़कर खत्म करते हैं और उस पर अपनी राय बना लेते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हमारे ऊपर किताब को पढ़ने का दबाव अधिक होता है कि जिससे उस पर अपनी बात कही जा सके। पर किताबें पढ़ना भी एक मूड आधारित कार्य होता है। आपका मन जिस तरह का होगा, आपको उस समय उस तरह की ही किताबें पढ़ने में रुचि आएगी या अच्छा लगेगा। अगर आप थोड़े खुशनुमा मुड में है तब कोई गंभीर साहित्य पढ़ना, उसके प्रति अन्याय करने जैसा होगा।
कहते हैं कि किताबें पढ़ने से नींद भी अच्छी आती है, इसीलिए लोगों को नाइट रीडिंग की आदत होती है। किताबें पढ़ना जीवन की भावना को और गहरा और व्यापक बनाता है। पढ़ना और लिखना दोनों ही जीवन के अनुभव होते हैं, इन शब्दों के माध्यम से हम अपने मन और दिमाग की कल्पना को बाहर निकलने का प्रयत्न करते हैं। हमारे देश में माना जाता है कि हमारा बुनियादी काम पढ़ना नहीं, बल्कि पढ़ने का अर्थ है समय काटना । यह उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती कि लोग पढ़ने के सुख के लिए पढ़ रहे होंगे।
एक रिपोर्ट के मुताबिक आयरलैंड के डबलिन शहर को 2010 में चौथा 'यूनेस्को सिटी आफ लिटरेचर' घोषित किया गया था। वहां पर साहित्य, किताबों और प्रकाशकों पर अधिक फोकस रहता है। इसी कारण आयरलैंड को साहित्य के चार नोबेल और छह बुकर पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। वर्तमान में भी आयरलैंड के निवासी किताबों को पढ़ने, साहित्य, संस्कृति के बारे में सोचने में विश्वास रखता है। वहां बुक शॉप, लाइब्रेरी व प्रकाशक सभी बहुतायत में है। यह हमारे लिए भले ही मजाक की या आश्चर्य की बात हो पर यह बिल्कुल सच है कि वहां किताबों के लिखने के प्रोजेक्ट पर अच्छी खासी राशि भी खर्च की जाती है। वहां किताबों की रिकॉर्ड बिक्री होती है। आंकड़ों के अनुसार वहां 2023 में 1598 करोड रुपए की किताबें बिकी, जो कि 2022 से 9 करोड रुपए अधिक है। कलाकारों की आय पर करों में छूट भी देने का प्रावधान है। आश्चर्य इस बात का नहीं है कि वह देश ऐसा कर पा रहा है बल्कि इस बात का है कि पढ़ने की यह संस्कृति हमारे देश में इतनी उपेक्षित क्यों हैं? सिटी आफ लिटरेचर'..... क्या हम भारत में ऐसे किसी शहर के बारे में सोच सकते हैं? जिसे हम सिटी आफ लिटरेचर का दर्जा दे सके? हमारे देश में क्यों पढ़ने- लिखने को और वह भी शौकिया पढ़ने- लिखने को एक मजाक के तौर पर देखा जाता है। कारण यह है कि हमारे यहां पर आज भी लिखने- पढ़ने का अर्थ स्कूल या कॉलेज की नौकरी से ही जुड़ा हुआ है। हम इसको इसके अतिरिक्त और कहीं भी रोजगार से नहीं जोड़कर देख पाते हैं। एक शेर याद आया-
'खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को'
- नज़ीर बाक़री
नीलसन इंडिया बुक मार्केट रिपोर्ट 2015 के अनुसार भारतीय पुस्तक बाजार विश्व में छठवें स्थान पर था। 2020 तक 19.3 प्रतिशत बढ़कर भारतीय पुस्तक बाजार लगभग 739 अरब होने का अनुमान लगाया गया था। वहीं भारत अपने नौ हजार प्रकाशकों के साथ अंग्रेजी भाषा का दूसरा सबसे बड़ा प्रिंट प्रकाशक है। 2012 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 'यूथ ऑफ नॉर्थ-ईस्ट इंडिया: डेमोग्राफिक एंड रीडरशिप' नामक रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट में भारत में उत्तर-पूर्वी राज्यों के युवा अन्य राज्यों के युवा की तुलना में किताब पढ़ने में आगे थे। नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम के 67 प्रतिशत (85 प्रतिशत शहरी और 59 प्रतिशत ग्रामीण) युवा पाठक थे। 41 प्रतिशत के साथ असम (55 प्रतिशत शहरी और 38 प्रतिशत ग्रामीण) राज्य था, जबकि महाराष्ट्र 34 प्रतिशत के साथ इन राज्यों से पीछे था। सर्वे में पाया गया था कि उत्तर-पूर्वी राज्य के 43 प्रतिशत पाठक युवा थे।
नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि भारतीय आबादी का केवल 3% हिस्सा अंग्रेजी में किताबें पढ़ता है, जबकि अधिकांश लोग क्षेत्रीय भाषाओं की किताबें पसंद करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका - जाहिर है, अमेरिका में हर साल करीब 275,232 किताबें पढ़ी जाती हैं। वे पुस्तक खरीदारों के बाजार हिस्से का 30% हिस्सा बनाते हैं। चीन में हर साल औसतन 208,418 किताबें पढ़ी जाती हैं, और यह कुल खरीदी गई किताबों का लगभग 10% है। आजकल सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि वे हड़बड़ी में पढ़ते हैं। पढ़ लेना और पढ़ने का सुख पाने दोनों में फर्क होता है। पढ़ने के लिए समझ, धीरज, समय और संवेदना की जरूरत होती है। वह मिलता ही तब है, जब पाठक भाषा के प्रति और पढ़ने के प्रति सजग हो।
जहां तक बात लिखने की है, तो लेखक बनना भी आसान नहीं होता। यह ठीक है कि आज धड़ल्ले से किताबें छप रहीं हैं पर सबसे महत्वपूर्ण बात है उनकी सामग्री। वह कितने पाठकों को वाकई आकर्षित करती है खुद को पढ़ने के लिए। एक अच्छा लेखक वह नहीं है जिसकी लिखी हुई किताबों की गिनती ज्यादा हो बल्कि वह है जिसके लिखे को पाठक मिलें। लेखक को अपने देश के विविध लोक साहित्य, अपने देश के इतिहास, विभिन्न पूर्ववर्ती लेखकों, समकालीन लेखकों, तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक बदलावों पर भी नजर रखनी चाहिए। एक लेखक को अपने लिखे को किसी की स्वीकृति या आलोचना का इंतजार करें बिना स्वयं समझना चाहिए कि वह किस स्तर पर लिख रहा है और उसका लक्ष्य क्या है। अगर आप अपने अंदर कुछ नया सीखकर, परिवर्तनों को शामिल नहीं करते हैं तो आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं। फिर तो किताबें लिखते रहें और उसे सजावट का हिस्सा बनाते रहें ।