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Violence: हिंसा परमों धर्म:
Violence: देश में भी अलग-अलग राज्यों में जो हिंसा होती है चाहे वह सांप्रदायिक हिंसा हो, चाहे जातीय हिंसा हो, राजनीतिक हिंसा हो या आपसी हिंसा, उसे रोकने के लिए क्या किया जा रहा है? हमारे देश में या पूरी दुनिया में भी ऐसा कोई अभियान, ऐसा कोई आंदोलन चलाया जाता नहीं दिख रहा है जो कि हिंसा का प्रतिरोध करे।
Violence: 5 साल के मासूम की उसी के शर्ट से मुंह दबाकर हत्या, ताश खेलने को लेकर हुए झगड़े में एक युवक की पीट-पीटकर हत्या, रॉड मार कर पड़ोसी को छत से फेंकने से उसकी मौत, मरीज के बेटे ने डॉक्टर पर किया चाकू से वार, चुनावी ड्यूटी पर तैनात जवान के सिर पर गोली मारी, पटाखे चलाने को लेकर संघर्ष, घर में घुसकर परिवार के साथ मारपीट की............... क्या है यह? ये सिर्फ खबरें मात्र नहीं है बल्कि विश्व के अलग-अलग स्थान पर होती हिंसा से अलग यह हिंसा हमारे बदलते समाज का चेहरा आईने में दिखा रही है।
अब हम पहले से अधिक मुखर हो चले हैं , साथ ही साथ पहले से अधिक खामोश भी। दो विपरीत बातें एक साथ कैसे संभव है। अब हम अहिंसा की बात करने वाले हिंसक समाज से ताल्लुक रखते हैं। इस समय हमारे चारों हिंसा ही अधिक फैली हुई है और कहा यह जाता है कि अहिंसा की स्थापना के लिए हिंसा का सहारा लेना जरूरी है। यानी विश्व में शांति लाने के प्रयासों का ही एक हिस्सा है विभिन्न देशों के बीच होने वाले हिंसक युद्ध। और हम हैं कि सोशल मीडिया पर या कहीं और भी अपने विचारों को, अपनी बातों को मुखर रूप से रखते हैं लेकिन जहां बोलना होता है वहां हम खामोश हो जाते हैं, हमारे पास कुछ भी बोलने के लिए नहीं होता है।
हिंसा का भी एक बाजार बना डाला
देश में भी अलग-अलग राज्यों में जो हिंसा होती है चाहे वह सांप्रदायिक हिंसा हो, चाहे जातीय हिंसा हो, राजनीतिक हिंसा हो या आपसी हिंसा, उसे रोकने के लिए क्या किया जा रहा है? हमारे देश में या पूरी दुनिया में भी ऐसा कोई अभियान, ऐसा कोई आंदोलन चलाया जाता नहीं दिख रहा है जो कि हिंसा का प्रतिरोध करे। यूक्रेन - रूस के बीच 2 साल पूरे करता युद्ध हो या इजरायल- गाजा पट्टी का हिंसक खेल या कुछ अन्य देशों के बीच चलती हिंसक गतिविधियां। कौन है जिम्मेदार इन युद्ध का? कौन है जिम्मेदार जिन्होंने इस हिंसा का भी एक बाजार बना डाला है? कौन है जो इन युद्ध को खत्म नहीं होने देता? इस एटमी दुनिया में हिंसा का अब जो मोल है वह अहिंसा का कहां? दुनिया ने इस युद्धजनक स्थिति में न जाने कितनी जानें इस हिंसा में जाती हैं, फिर भी यह हृदयविदारक दृश्य अब किसी को प्रभावित नहीं करते, किसी को रुलाते भी नहीं और न ही किसी की संवेदना को छू पाते हैं। हर साल 16 लाख से भी अधिक मौतें इस हिंसा में होती है और यह मौतें दो सेनाओं या समूह के बीच लड़ते हुए नहीं बल्कि उस लड़ाई में नागरिक के मारे जाने की संख्या होती है। रोते-बिलखते परिजन, बच्चे, स्त्रियां, बुजुर्गों के ये दृश्य अब हमारे जीवन को प्रभावित नहीं करते, हम इतने आत्म केंद्रित हो चले हैं कि अब हम शांति प्रार्थना भी नहीं करते उनके लिए।
मॉब लिंचिंग से लेकर सैन्यकर्मियों की हत्या
रोज देश में ऐसी हजारों घटनाएं होती हैं, जहां हिंसा में अनेक लोगों की जान जाती है। चूंकि हमारे साथ यह नहीं हुआ है इसलिए हम निगाहों से ऐसी खबरों को निकाल कर आगे बढ़ जाते हैं। यह हिंसा हमारी संस्कृति का भी नाश करती है। बल्कि इन हिंसाओं के जरिए अपने वर्चस्ववादी रवैया का वो विस्तार किया जाता है जो कि रामायण, महाभारत काल में अश्वमेघ यज्ञ के अश्व के द्वारा भी नहीं किया जा सका। अब इस हिंसा के लिए नागरिक, सामाजिक समर्थन का वातावरण बनाया जाता है, कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता। मॉब लिंचिंग से लेकर सैन्यकर्मियों की हत्या भी इस हिंसा का ही एक रूप है ।
स्त्री के प्रति यौन हिंसा
अपने देश में स्त्रियों के प्रति जितनी हिंसा होती है हम वह सोच भी नहीं सकते हैं। प्रतिकार करती स्त्री घर में किसी को पसंद नहीं आती है, न ही बाहर। स्त्री ही क्यों वंचित या कमजोर तबका जब भी विरोध का स्वर उठाने लगता है तो वह हिंसा का शिकार होता ही है। स्त्री पर हिंसा कहां नहीं होती है, घर से दफ्तर तक, सड़क से ट्रेन तक स्त्री के प्रति हिंसा, स्त्री के प्रति यौन हिंसा की जो घटनाएं होती हैं वे भी एक तरह का डर पैदा करने के लिए ही होती हैं। विस्तारवादी प्रवृत्ति चाहे दो देशों के बीच हो या अपने घर में एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी पर अपना वर्चस्ववादी रवैया बनाए रखने का अहं भी तो हिंसा का ही एक रूप है। घरों में मानसिक और मौखिक हिंसा इस विश्व में होने वाली हिंसा से कहीं भी कम तो नहीं है। अहं का टकराव इसका सबसे बड़ा कारण है। घर के जो लोग इस तरह दूसरों को मानसिक यंत्रणा देकर खुश होते हैं, उनमें उनके प्रति इस यातना से कोई संवेदना नहीं उपजती है, वे तो पहले से ही हृदय विहीन, संवेदनाविहीन हैं। अपनी इच्छानुसार दूसरों को ना चला पाने से उनके मन में जो तकलीफ होती है उसे वह मानसिक और मौखिक हिंसा के द्वारा पूरा करते हैं। दूसरों का अपमान करके उनका अहम तुष्ट होता है। इस प्रकार वे शक्ति का केंद्र बनकर अपने आत्म केंद्रित होने का नया पन्ना लिखते हैं।
क्या होगा ऐसी हिंसा का जो मनुष्य को मनुष्य न रहने दे, जो मनुष्य में रंच मात्र भी मनुष्यता ना छोड़े। अगर यह हिंसा बंद हो जाए तो ये सारी हथियार बनाने वाली कंपनियां दिवालिया ना हो जाएं। अगर घरेलू हिंसा खत्म हो जाए तो उस वर्चस्ववादी पीढ़ी का जीना दूभर ना हो जाए, जो कि यह समझती है कि उसकी सत्ता का सूरज कभी नहीं डूबेगा।