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Goa History Y Factor : गोवा के संघर्ष की कहानी, भारत की आज़ादी के बाद...
वास्को डी गामा २० मई, 1498 को भारत के कालीकट के तट पर उतरा। इसके 12 वर्षों के भीतर पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा...
वास्को डी गामा २० मई, 1498 को भारत के कालीकट के तट पर उतरा। इसके 12 वर्षों के भीतर पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्ज़ा जमा लिया था। सन 1510 से शुरू हुआ पुर्तगाली शासन गोवा के लोगों को 451 सालों तक झेलना पड़ा। 1961 में 19 दिसंबर को गोवा के लोगों को आज़ादी मिली । यानी भारत के आज़ाद होने के करीब साढ़े 14 साल बाद।
1954 में फ़्रांसीसी पांडिचेरी छोड़कर चले गए । मगर गोवा आज़ाद नहीं हो पाया। गोवा की आज़ादी की लड़ाई 1954 में शुरू हुई जब भारतीयों ने दादर और नागर हवेली के क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी शिकायत पुर्तगाली शासन ने द हेग स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में की थी। 1960 में इस कोर्ट का फैसला भारत के खिलाफ आया। कोर्ट ने गोवा पर पुर्तगालियों के कब्जे को सही बताया। इसके बाद भारत सरकार ने गोवा सरकार से लगातार बातचीत करने की कोशिश की । लेकिन हर बार यह पेशकश ठुकरा दी गई।
1 सितंबर , 1955 को भारत ने गोवा में मौजूद अपने कॉन्सुलेट को बंद कर दिया। इसके लिए गोवा, दमन और दीव के बीच में ब्लॉकेड कर दिया। गोवा ने इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने की पूरी कोशिश की। लेकिन यह कोशिश विफल साबित हुई। भारत सरकार ने 1955 में गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए ।
जिनके जवाब में पुर्तगाल ने नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन, पाकिस्तान से चावल और सब्ज़ियां और श्रीलंका (तब सीलोन) से चाय भेजी जाने लगी। पुर्तगाली आसानी से गोवा को छोड़ने के मूड में नहीं थे। वह नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नाटो) का सदस्य था। नेहरू किसी सैनिक टकराव से हिचक रहे थे। नवम्बर 1961 में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं । जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, इसके बाद माहौल बदल गया।
गोवा को भारत में शामिल करने के लिए बड़ी सैन्य कार्रवाई की गई थी। 30 मई 1987 को गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया ।जबकि दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। गोवा में मिली इसी जीत के नाम पर हर वर्ष 'गोवा मुक्ति दिवस' मनाया जाता है।
ऑपरेशन विजय
पुर्तगाली सैनिकों की गोलाबारी के बाद भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री केवी कृष्णा मेनन और नेहरू ने आपातकालीन बैठक की। 8 दिसंबर 1961 को आखिरकार वो दिन आया जब भारतीय सेना को गोवा पर चढ़ाई का आदेश दे दिया गया। आदेश के साथ ही सेना ने गोवा, दमन और दीव पर चढ़ाई कर दी । जिसे ऑपरेशन विजय का नाम दिया गया। भारतीय सेना की त्वरित कार्रवाई के बाद पुर्तगालियों की सेना बुरी तरह बिखर गई। भारतीय सेना गोवा में प्रवेश कर गई।
इस दौरान करीब 36 घंटे तक सेना ने गोवा में जमीनी, समुद्री और हवाई हमले किए गए। आखिरकार भारतीय सेना प्रमुख पीएन थापर के सामने पुर्तगाल के गवर्नर जनरल वसालो इ सिल्वा को आत्म समर्पण करना पड़ा था। ऑपरेशन विजय के दौरान मेजर जनरल केपी कैंडेथ को 17 इंफैंट्री डिवीजन और 50 पैरा बिग्रेड की कमान सौंपी गई थी। भारतीय सेना के पास उस वक्त 6 हंटर स्क्वाड्रन और 4 कैनबरा स्क्वाड्रन थे।
गोवा अभियान की हवाई कार्रवाई की जिम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के पास थी। भारतीय सेना ने अपने अचूक बमबारी से पुर्तगालियों को गोवा छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। ऑपरेशन विजय में 30 पुर्तगाली मारे गए थे, जबकि 22 भारतीय जवान शहीद हुए थे। इस ऑपरेशन में 57 पुर्तगाली सैनिक जख्मी हुए थे, जबकि जख्मी भारतीय सैनिकों की संख्या 54 थी। इस पूरे ऑपरेशन केदौरान भारत ने 4668 पुर्तगालियों को बंदी बनाया था। 18 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना गोवा बॉर्डर में जा घुसी।
इसके बाद दोनों तरफ से फायरिंग और बमबारी शुरू हुई। 30 हजार की भारतीय सेना के सामने 6000 पुर्तगाली टिक नहीं पाए। भारतीय सेना ने जमीनी, समुद्री और हवाई हमले किए। पुर्तगाली बंकरों को तबाह कर दिया गया। भारतीय वायुसेना ने डाबोलिम हवाई पट्टी पर बमबारी की। पुर्तगालियों के लिए यह निर्णायक हमला साबित हुआ । उन्होंने हथियार डाल दिए। इस तरह गोवा आजाद करा लिया गया।
लोहिया की भूमिका
गोवा की आज़ादी में डॉ राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। सन 46 में लोहिया अपने मित्र डॉ जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर गोवा गए थे। वहां उन्हें पता चला कि पुर्तगालियों ने किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखी है। गोवा में लोगों के किसी भी तरह के नागरिक अधिकार नहीं थे। लोहिया ने 200 लोगों को जमा करके एक बैठक की। जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा जाए। 18 जून, 1946 को लोहिया ने पुर्तगाली प्रतिबंध को पहली बार चुनौती दी।
तेज़ बारिश के बावजूद उन्होंने पहली बार एक जनसभा को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज़ उठाई। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। मड़गांव की जेल में रखा गया। महात्मा गांधी ने 'हरिजन' में लेख लिखकर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़ी आलोचना की।
लोहिया की गिरफ़्तारी पर सख़्त बयान दिया। पुर्तगालियों ने माहौल गर्माता देखकर लोहिया को गोवा की सीमा से बाहर ले जाकर छोड़ दिया। रिहाई के बाद लोहिया के गोवा में प्रवेश पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन वे अपना काम कर चुके थे। पुर्तगाली दमन से परेशान गोवा के हिंदुओं और कैथोलिक ईसाइयों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ली। ख़ुद को संगठित करना शुरू किया।
गोवा से पुर्तगालियों को हटाने के काम में एक क्रांतिकारी दल सक्रिय था, उसका नाम था- आज़ाद गोमांतक दल। विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरि नाईक, दत्तात्रेय देशपांडे और प्रभाकर सिनारी ने इसकी स्थापना की थी। इनमें से कई लोगों को पुर्तगालियों ने गिरफ़्तार करके लंबी सज़ा सुनाई। इनमें से कुछ लोगों को तो अफ़्रीकी देश अंगोला की जेल में रखा गया। विश्वनाथ लवांडे और प्रभाकर सिनारी जेल से भागने में कामयाब रहे। लंबे समय तक क्रांतिकारी आंदोलन चलाते रहे।
1954 में लोहिया की प्रेरणा से गोवा विमोचन सहायक समिति बनी, जिसने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के आधार पर आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र और गुजरात में आचार्य नरेंद्र देव की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने भी उनका भरपूर साथ दिया। लोहिया के कई युवा समाजवादी शिष्य गोवा की आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े । जिनमें मधु लिमये का नाम प्रमुख है । जिन्होंने गोवा की आज़ादी के लिए 1955 से 1957 के बीच दो साल गोवा की पुर्तगाली जेल में बिताए।
प्राचीन इतिहास
गोवा क्षेत्रफल में छोटा जरूर था लेकिन रणनीतिक तौर पर काफी अहम था। छोटे आकार के बावजूद यह बड़ा ट्रेड सेंटर था। यहां पर विदेशी व्यापारी काफी आते थे। इसकी भौगोलिक स्थिति की वजह से ही मौर्य, सातवाहन और भोज राजवंश भी इसकी तरफ आकर्षत हुए थे। गोवा पर काफी समय तक बहमनी सल्तनत और विजयनगर सम्राज्य की हुकूमत रही है।
गोवा के लंबे इतिहास की शुरुआत तीसरी सदी ईसा पूर्व से शुरू होती है । जब यहां मौर्य वंश के शासन की स्थापना हुई थी। बाद में पहली सदी के शुरुआत में इस पर कोल्हापुर के सातवाहन वंश के शासकों का अधिकार स्थापित हुआ। फिर बादामी के चालुक्य शासकों ने इस पर वर्ष 580 से 750 तक राज किया। इसके बाद के सालों में इस पर कई अलग अलग शासकों ने अधिकार किया। वर्ष 1312 में गोवा पहली बार दिल्ली सल्तनत के अधीन हुआ । लेकिन उन्हें विजयनगर के शासक हरिहर प्रथम द्वार वहां से खदेड़ दिया गया।
अगले सौ सालों तक विजयनगर के शासकों ने यहां शासन किया। 1469 में गुलबर्ग के बहामी सुल्तान द्वारा फिर से इसे दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया गया। बहामी शासकों के पतन के बाद बीजापुर के आदिल शाह का यहां कब्जा हुआ जिसने गोआ-वेल्हा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
इस शहर पर मार्च 1510 में अलफांसो-द-अल्बुकर्क के नेतृत्व में पुर्तगालियों का आक्रमण हुआ। गोवा बिना किसी संघर्ष के पुर्तगालियों के कब्जे में आ गया। पुर्तगालियों को गोवा से दूर रखने के लिए यूसूफ आदिल खां ने हमला किया। शुरू में उन्होंने पुर्तगाली सेना को रोक तो दिया । लेकिन बाद में अल्बुकर्क ज्यादा बड़ी सेना के साथ लौटे। एक दुःसाहसी प्रतिरोध पर विजय प्राप्त कर उन्होंने शहर पर फिर से कब्जा कर लिया। एक हिन्दू तिमोजा को गोवा का प्रशासक नियुक्त किया।
गोवा पूर्व दिशा में समूचे पुर्तगाली साम्राज्य की राजधानी बन गया। इसे लिस्बन के समान नागरिक अधिकार दिए गए। 1575 से 1600 के बीच यह उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा। 1809-1815 के बीच नेपोलियन ने पुर्तगाल पर कब्जा कर लिया। पुर्तगाली 1510 में भारत आए थे। वह यहां पर आने वाले पहले यूरोपीय शासक थे। वहीं 1961 में वह भारत छोड़ने वाले भी अंतिम यूरोपीय शासक थे। एक ख़ास बात यह थी कि गोवा में पुर्तगालियों का शासन अंग्रेजों से काफी अलग था। यहां के शासकों ने गोवा के लोगों को वही अधिकार दिए थे तो पुर्तगाल के लोगों को थे।
वैसे उच्च वर्ग के हिंदुओं और ईसाइयों के साथ अमीर लोगों को कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त थे। साधन संपन्न लोग शासकों या सरकार को संपत्ति कर भी देते थे। 19वीं शताब्दी के मध्य में उन्हें मताधिकार का अधिकार भी मिल गया था।