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अखाड़ों का इतिहास, भूगोल-नागरिक शास्त्र
लखनऊ: अखाड़ा नाम लेते ही दिमाग में एक अलग छवि उभरती है। वह छवि होती है पुलपुली जमीन पर मिट्टी में सने पहलवान एक-दूसरे पर कुश्ती के दांव आजमाते हुए। हमारे देश में इसकी पुरानी परंपरा रही है। साधु समाज में वही परंपरा दूसरे रूप में आई। इसकी शुरुआत आदि शंकराचार्य ने उस समय की जब सनातन धर्म पर विधर्मी शक्तियां जोर आजमाइश कर रही थीं। शंकराचार्य ने तभी शारीरिक रूप से बलिष्ठ साधुओं को एकत्र कर सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखाड़ा बनाया।
सधुक्कड़ी भाषा में अखाड़ा उसे कहते हैं जहां साधुओं का जमावड़ा रहता है। सीधे सपाट शब्दों में कहें तो अखाड़े शंकराचार्य की सेना के रूप में थे, जिन्हें धर्म की रक्षा के लिए तैनात किया गया था। एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला वाले सिद्धांत पर इन्हें शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा दी गई। व्यवस्था बनाई गई कि शंकराचार्य या उनके द्वारा नामित आचार्य जब कभी सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन अखाड़ों को शस्त्र उठाने का आदेश देंगे, यह अपना काम करेंगे। यानी सेना जैसा आचरण कि सेनापति या मुखिया के आदेश के बिना जैसे अपने विवेक से सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, अखाड़े भी मनमाना निर्णय नहीं ले सकते।
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बाद में संत बढ़ते गए, उनके संप्रदाय बढ़ते गए, इनमें शैव और वैष्णव विवाद होता गया। इनकी संख्या में उसी तरह इजाफा होता गया। इन दिनों 13 अखाड़े हैं। इनमें शैवों के सात, वैष्णवों या वैरागियों के तीन और उदासीनों के तीन अखाड़े हैं। ये अखाड़े कुंभ मेले के अवसर पर कुंभ स्थलों पर डेरा डालते हैं और शंकराचार्यों व अपने-अपने अखाड़े के महामंडलेश्वरों की अगुवाई में विशेष स्नान पर्वों पर स्नान करते हैं।
इसी को शाही स्नान कहा जाता है। शैव अखाड़ों मे दशनामी, नागा संत, शाक्त आदि उप संप्रदाय भी होते हैं। 1954 में हुआ अखाड़ा परिषद का गठन : 1954 के प्रयाग कुंभ मेले में स्नान को लेकर भगदड़ मची। बहुत लोग मारे गए। उसी समय अखाड़ों ने मिलकर अखाड़ा परिषद बनाया, जिसे अब अखिल भारतीय अखाडा़ परिषद कहा जाता है। इनका एक अध्यक्ष और एक महामंत्री होता है। व्यवस्था यह थी कि अगर अध्यक्ष शैव अखाड़े से होगा तो महामंत्री वैष्णव अखाड़े से, लेकिन समय-समय पर यह व्यवस्था भंग होती रही। जैसे कि इस समय है। इस समय शैव अखाड़े से ही अध्यक्ष भी हैं और महामंत्री भी वहीं से है। इसका भी विवाद चल रहा है।
बड़े पद के लिये बड़ा खर्चा
अखाड़ों के मुखिया के रूप में महंत, श्रीमहंत जैसे पद होते हैं। इनके ऊपर महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर के पद होते हैं। शास्त्रीय पांडित्य और योग्यतानुसार इनको पद दिए जाते हैं। यह परंपरा 18वीं शताब्दी में शुरू हुई थी। महामंडलेश्वर प्राय: बड़े यानी पैसे वाले संत बनाए जाते हैं जो अखाड़ों का खर्च भी उठाते हैं। समाज में उनका सम्मान भी ज्यादा होता है। एक एक अखाड़े में कई महामंडलेश्वर हो सकते हैं पर आचार्य महामंडलेश्वर का पद एक ही होता है। अखाड़ों से जुड़े संतों के अनुसार 2001 तक अखाड़ों में 100 के करीब महामंडलेश्वर थे। 2013 के प्रयाग कुंभ में यह संख्या 300 तक पहुंच गई थी। ऐसे ही वैष्णव अखाड़ों के महामंडलेश्वरों की संख्या 2013 के प्रयाग कुंभ में 700 तक बताई गई है।
शैव अखाड़े
इनमें प्रमुख रूप से सात अखाड़े हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, दारागंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, दारागंज, इलाहाबाद
3-श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा, हनुमान घाट, वाराणसी
4-श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा, दशाश्वमेध घाट, वाराणसी
5-श्री पंच अटल अखाड़ा, चौक, वाराणसी
6-श्री पंचदशनाम अग्नि अखाड़ा, गिरिनगर, भवनाथ, जूनागढ़, गुजरात
7-श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती, त्रयंबकेश्वर, नासिक, महाराष्ट्र
वैष्णव या वैरागी अखाड़े
वैष्णव या वैरागी संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं जिन्हें अनी अखाड़ा भी कहा जाता है। भगवान विष्णु इनके इष्ट हैं। इनमें वल्लभ, निम्बार्क, गौड़ीय ,सखी संप्रदाय, रामानंद, रामानुज ,माध्व आदि उप संप्रदाय हैं।
1-श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी, अयोध्या
2-श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा, धीर समीर मंदिर बंशीवट,वृंदावन, मथुरा
3-श्री दिगंबर अनी अखाड़ा, शामला जी खाक चौक मंदिर, सांभरकांठा, गुजरात
उदासीन संप्रदाय
उदासीन संप्रदाय के सनातनधर्मी इन संतों के अखाड़ों में सिख संत भी शामिल हैं।
1-श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन, कृष्णनगर, कीडगंज, इलाहाबाद
2-श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन, कनखल, हरिद्वार
3-श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल, हरिद्वार
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