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ये बुजुर्ग नहीं, आंगन के पेड़ हैं....

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 May 2018 12:50 PM IST
बीते मदर्स डे पर आप सबने सोशल मीडिया पर माताओं के लिए बधाई संदेश, माताओं पर लिखी गयीं कविताएं खूब देखी होंगी। मदर्स डे पर जिस तरह सोशल मीडिया पर माताओं को याद किया गया उसे देख समझकर इस फैसले पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि बुजर्गों की दशा को लेकर मचाया जा रहा शोर-शराबा बेमानी है। लेकिन यह आभासी दुनिया का सच है। प्रायः आभासी दुनिया वास्तविक दुनिया से इतर होती है। महात्मा गांधी के पौत्र कनु रामदास गांधी दिल्ली के एक वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। कभी देश भर में निर्वाचन आयोग की साख बनाने वाले टीएन शेषन भी जिंदगी के अंतिम दिन  ओल्ड एज होम में गुजार रहे हैं।
यह तो नामचीनों की स्थिति है अगर उत्तर प्रदेश के वृंदावन और बनारस के मंदिर और गलियों से गुजरें तो विधवा स्त्रियां और उनकी दशा देखकर थोड़े भी संवेदनशील व्यक्ति के आंख में खून उतर आएगा। देश में निरंतर ओल्ड एज होम बढ़ रहे हैं। वैसे तो इनका होना ही समाज के लिए कलंक है इनका बढ़ना यह बताता है कि संयुक्त परिवार टूट चुके हैं। जीवन जीने की कला बुजुर्गों से सीखी जा सकती है लेकिन आज नई पीढ़ी की सोच में इस कदर बदलाव हुआ है कि उसका सीधा असर परिवार पर दिखता है। हम वृद्धाश्रम को पश्चिमी सभ्यता की विकृति मानने को तैयार नहीं है।
बुजर्गों के प्रति उपेक्षा का कारण हम समय का अभाव देकर छुट्टी पा लेते हैं पर हकीकत यह है कि यह संस्कृति का पराभव है। यह सोच का संकुचित हो जाना है। क्योंकि वृद्धाश्रम हमारी समस्या का विकलांग समाधान हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक हर पांच में एक बुजुर्ग परिवार नामक संस्था से अलग रहने को विवश हैं। देश के 10 करोड़ बुजुर्गों में से 5 करोड़ भूखे पेट सोने को अभिशप्त हैं। बुजुर्ग आदमी महीने में औसतन 11 दिन बीमार रहता है। दुनिया भर में 80 साल से अधिक उम्र के लोगों की तादाद 16 फीसदी के आसपास है। जीवन निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर रहने वाले बुजुर्गों की संख्या सबसे अधिक केरल में है जो 43 फीसदी बैठती है, जबकि महिलाओं के मामले में असम आगे है जिसमें 81 फीसदी महिलाएं दूसरों पर निर्भर हैं। सबसे कम 21 फीसदी जम्मू कश्मीर में बुजुर्ग दूसरों पर निर्भर हैं। बुजुर्ग महिलाओं में से 42 फीसदी गरीब हैं इनमें 4 फीसदी अकेले जीवन बिताती हैं। 49 फीसदी विधवा हैं। 71 फीसदी बुजुर्गों की आबादी गांव में रहती है पिछले 2001 से 2011 के दशकों में बुजर्ग आबादी की बढोत्तरी दर 35.5 फीसदी रही है।
तकरीबन, 68 फीसदी परिवारों में 60 साल या इससे अधिक की उम्र का कोई नहीं है। ग्रामीण भारत में यह आंकडा 67.5 फीसदी और शहरी इंडिया में 71.2 फीसदी का है। सिर्फ 21.6 फीसदी देश में ऐसे घऱ हैं जहां एक व्यक्ति 60 साल या इससे अधिक उम्र का है। जबकि 9.9 फीसदी घरों मे इस बुजुर्गों के दो व्यक्ति से अधिक नहीं रहते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो इस समय बुजुर्ग है उसे अपनी पिछली पीढ़ी से यह नहीं मिला है उसने तो अपनी पीढ़ी की देखभाल की पर उसे यही देखभाल नहीं मिल रही है।
एक चौथाई से कम घरों में भी बुजुर्गों के बाद भी उनकी उपेक्षा के सवाल समाज में निरंतर जगह पा रहे है। रोज उनके साथ उत्पीड़न की खबरें प्रकाश में आ रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवाह जागरुकता दिवस नामित कर चुका है जो 15 जून को मानाया जा सकता है। हेल्प इंडिया के सर्वे में अधिकांश बुजुर्ग यह कहते हों कि वह अपने ही घर में बेगाने हैं। 61 फीसदी बुजर्ग अपनी बदहाली के लिए बहुओं को जिम्मेदार ठहराते हों। तब समझा जा सकता है कि हम किस ओर जा रहे है। बाजार वाद और वैश्वीकरण पुरानी चीजों के प्रति हमारे नजरिये में बड़ा बदलाव किया है। प्राइवेट नौकरियों के पैकेज ने और युवाओं मे कैरियर को होड़ ने आदमी को सुख, सुविधाएं, धन और ऐश्वर्य कमाने की मशीन बनादिया है। वह आज की भौतिकवादी दौड़ में इतना मशगूल हो जाता है कि से अतीत विस्मृत हो जाता है। वह भूल जाता है कि उसके निर्माण में माता-पिता, भाई बंधु सरीखे तमाम लोगों का योगदान होता है। वह इसे उनका कर्तव्य मान लेता है। उनके कर्तव्य को वह अधिकार देने को तैयार नहीं होता। वह अपने उन्हीं बच्चों को बेहतर भविष्य देने में उसने अपना जीवन होम किया है यह गलती भी वह इसलिए करता है क्योंकि उसे अपने बच्चे से जुड़ने का भी समय नहीं मिल पाता है। हालांकि वह उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति करना अपना परम कर्तव्य समझता है। नई पीढ़ी यह भूल रही है कि जब उनके अपने बच्चे बुजुर्गों के साए में पलते हैं तो उनका आत्मविश्वास बेहतर होता है, नीर-क्षीर को अलग करने का विवेक बनता और बढ़ता है और वह भौतिकवादी वस्तुओं को ललचाई नज़रों से नहीं देखता है।
हमें याद रखना चाहिए कि हम अनुभव को पीछे नहीं छोड़ सकते हम वरिष्ठता की दौड़ तो जीत सकते हैं। बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि तुम्हें क्या कब करना है यह बताना बुद्धि का काम है पर कैसे करना है यह अनुभव ही बताता है। यह अनुभव तब आएगा और समाएगा जब आप अनुभव की थाती समेटे बुर्जग से गुफ्तगू करेंगे। उसे अपना समय देंगे। पर आज  की नौजवान पीढ़ी के पास समय नहीं जो समय है उसके लिए उसने मिनट-मिनट प्रोग्राम कर रखे हैं। कभी खुद को गफलत ड़ालने में, कभी आभासी दुनिया में वास्तविक जिंदगी जी लेने के , कभी आभासी दुनिया मे प्रेम परोस देने के। वह एक ऐसे मायावी स संसार में जीने लगता है कि उसमें सिर्फ उसे खुश करने के लिए पल भर में सबकुछ रचा जा सकता है।

वह भूल जाता है कि-



फल न देगा सही



छांव तो देगा तुमको.



पेड़ बूढ़ा ही सही,



आंगन में लगा रहने दो।



 


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Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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