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अगर लोकतंत्र खतरे में तो सवाल न्यायपालिका से भी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 14 Jan 2018 7:02 PM IST
लोकतंत्र खतरे में है। यह बात अभी तक राजनीतिक लोग कहते थे, वे भी वो लोग जो सत्ता में नहीं होते थे। लोकतंत्र के खतरे का कटु यथार्थ इमरजेंसी में भोगा था। देश को संचालित करने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका तीन संवैधानिक स्तंभ है। कोई ढांचा तीन स्तंभों पर खड़ा नहीं हो सकता इसलिए पत्रकारिता ने अघोषित चैथे स्तंभ की जिम्मेदारी अख्तियार की है। पत्रकारिता कभी भी संवैधानिक स्तंभ नहीं रहा। हालांकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हक संविधान में है। संवैधानिक स्तंभ नहीं होने की वजह से लोकतंत्र के खतरे में होने की बात अपने-अपने सुर में मीडिया करती रही है। लेकिन यह आजादी के बाद से अब तक पहली मर्तबा हुआ है कि संवैधानिक स्तंभों में से किसी ने लोकतंत्र के खतरे में होने की बात नहीं की है।

सर्वोच्च अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों- जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर यह ऐलान किया है- लोकतंत्र खतरे में है। यह प्रेस कांफ्रेंस मुख्य न्यायाधीश को इन चारों जजों द्वारा लिखी गयी चिट्ठी के बाद की गयी थी। लेकिन किसी भी न्यायाधीश ने नहीं बताया कि वे कौन से मामले हैं जिनके चलते लोकतंत्र खतरे में है। बाद में जस्टिस बृजगोपाल हरिकिशन लोया की मौत की जांच की ओर उन्होंने इशारा किया है। उनकी मौत की सीबीआई जांच की सुनवाई मुंबई हाईकोर्ट कर रही थी कि इसी बीच सर्वोच्च अदालत ने भी सुनवाई एक दूसरी याचिका पर शुरु कर दी है। पेंच यह है कि सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद यह मामला हाईकोर्ट नहीं सुन सकती है। जबकि हाईकोर्ट के बाद सर्वोच्च अदालत इस मामले को सुन सकती थी। जस्टिस लोया सीबीआई जज थे और इशरत जहां मुठभेड़ में भाजपा नेता अमित शाह की भूमिका के केस की सुनवाई कर रहे थे।

न्यायपालिक पर उंगली उठने का यह पहला मौका नहीं है। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत पर कई बार उंगली उठ चुकी है। हां, यह पहला मौका इसलिए जरुर है कि स्वर अंदर से आए। जस्टिस जस्टिस कर्नन ने प्रधानमंत्री को 20 भ्रष्ट जजों की सूची भेजी थी। जस्टिस कर्नन ने सर्वोच्च अदालत के सात न्यायाधीशों को पांच साल की सजा एससी-एसटी एक्ट के तहत सुना दी थी। न्यायाधीश दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए 75 सांसदों के पत्र की कहानी अभी पुरानी नहीं पड़ी है। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कोर्ट रुम में वकीलों की चीख पुकार पर कहा- कोर्टरुम को मछली बाजार नहीं बनने देंगे।

एक ही मामले में निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक अलग अलग फैसले सुना देते हैं। उत्तर प्रदेश में लखनऊ और इलाहाबाद में उच्चान्यायालय की पीठ है- मायावती ने सूबे भर में मुलायम सिंह यादव पर मुकदमे लिखवाए और लखनऊ खंडपीठ के एक जज ने क्षेत्राधिकार की चिंता किए बिना सब मुकदमे खत्म कर दिए। राजस्व अदालतों से कभी भी एक पीढी में बिरले ही फैसले आए हों। सुनवाई कितने दिन चलेगी इसकी कोई समय सीमा किसी मामले में नहीं है।

लखनऊ में सेवानिवृत्ति से ठीक पहले सपा सरकार में खनन मंत्री रहे गायत्री प्रजापति को जमानत दे दी। जस्टिस रहे मार्कंडेय काटजू ने 50 फीसदी भारतीय जजों को भ्रष्ट बताकर हंगामा खड़ा कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस भरूच ने 20 फीसदी जजों के प्रति सवाल उठाए थे। जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने यह टिप्पणी की थी इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ गलत हो रहा है। उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त के नाम के चयन के मामले में सर्वोच्च अदालत को गलत जानकारी देकर मनमाफिक फैसले करवाने के खिलाफ उत्तर प्रदेश के मुख्यन्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड को भारत के प्रधान न्यायाधीश को लंबा खत लिखना पड़ा। देश के कानून मंत्री रहे शांतिभूषण ने हलफनामा दाखिल कर कहा कि 16 न्यायाधीश ठीक नहीं हैं। अयोध्या विवाद में अदालत से लोग फैसला मांगने गये थे उसने हिस्सेदारी तय कर दी थी। 2 जी घोटाले में कोई दोषी ही नहीं पाया गया। हिट एंड रन में सलमान खान निर्दोष करार दिए जाते हैं। कई ऐसी हत्याएं हुईं जिनमें अदालत किसी को दोषी नहीं ठहरा पाई। सेवानिवृत्त सीजेआई पी सथासिवम जो राष्ट्रपित को शपथ दिलाने के अधिकारी हैं वे राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत राज्यपाल के पद पर रिटायमेंट के बाद काम कर रहे हैं। प्रोन्नति में आरक्षण न देने की बेंच में सदस्य जस्टिस के जी बालाकृष्णन भी थे पर रिटायरमेंट के बाद वे खुद प्रोन्नति में आरक्षण देने का अभियान खुद ही चला रहे हैं।

आखिर इस तरह की छोटी बड़ी आवाजें क्यों अनदेखी की जाती रही हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा है -जस्टिस टू लांग डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। यानि विलंबित न्याय, न्याय की कोटि में नहीं आता है। स्थगन आदेश और जमानत को छोड़ दिया जाय तो भारतीय न्याय व्यवस्था कभी भी समय से न्याय देने की कसौटी पर खरी उतरती नहीं दिखी है। कोई न्यायाधीश अपने पूरे कार्यकाल में कितने फैसले देगा यह बिलकुल तय नहीं है। न्यायाधीशों के लिए बनी एक अलग दुनिया और उनके हाथ में मानहानि का हंटर इतना खराब है कि वे लोकतंत्र की कसौटी पर कसे ही नहीं जा सकते हैं। कोई फैसलों पर उंगली नहीं उठा सकता, मीडिया खबरें नहीं कर सकता है, संगीत घरानों से अधिक घराने न्यायपालिका में हैं। मुट्ठी भर परिवारों के बीच जज की कुर्सियां सिमट कर रह गयी है। कोलेजियम और एनजेसी को लेकर सरकार और न्यायाधीश किस तरह आमने-सामने हुए यह सबने देखा। आखिर अकाउंटेबिलिटी से भागना क्यों चाहिए। अगर अदालती फैसले में अन्याय होता है तो उसके खिलाफ खबरें क्यों नहीं होनी चाहिए। खबरों को मानहानि की चाबुक से क्यों डराया जाना चाहिए।

जस्टिस चेलमेश्वर ने धारा 60 ए को अपने रद करने के फैसले में लिखा है कि असहमति, समर्थन या अपने विचार को आगे बढ़ाना और भड़काना- इनमें शुरुआती दोनों तरीके चाहे जितने अलोकप्रिय हों, बने रहना चाहिए, बढावा देना चाहिए किन्तु तीसरे तरीके को तो रोकना ही होगा। जिस तरह जस्टिस लोया के बेटे ने प्रेस कांफ्रेंस कर अपने पिता की स्वाभाविक मौत के बारे में बयान दिया है उससे यह तो कहा जा सकता है कि चारो जजों ने तीसरे तरीके का भी अख्तियार किया है। जिस सरपंच पर पंचों का भरोसा उठ जाय उस पंचायत की कौन मानेगा यह सवाल लोकतंत्र से पहले खुद न्यायपालिक के सामने अनुत्तरित खड़ा है। लेकिन इसका जवाब अब एक नहीं चारों स्तंभ को जनतंत्र के सामने देना होगा।


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Dr. Yogesh mishr

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