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सिद्धांतविहीनता का ये दर्शन पूरे भारतीय समाज को अपनी चपेट में ले लेगा

चुनावों में भारतीय राजनीति ने सिद्धांतहीनता का एक नया निम्न स्तर छुआ है।

Raj Kumar Singh
Report Raj Kumar SinghPublished By Ragini Sinha
Published on: 3 Feb 2022 6:37 AM GMT (Updated on: 3 Feb 2022 6:38 AM GMT)
सिद्धांतविहीनता का ये दर्शन पूरे भारतीय समाज को अपनी चपेट में ले लेगा
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ब्रिटेन के प्रसिद्ध पादरी फ्रेडरिक लुइस डोनाल्डसन ने 1925 में जो सात समाजिक पाप बताए थे, उनमें सातवां पाप था- सिद्धांतविहीन राजनीति. आप सोच रहे होंगे आज तकरीबन सौ साल बाद भारतीय संदर्भ में इस सातवें पाप की चर्चा क्यों? दरअसल लगभग एक सदी बाद भारत में ये सातवां पाप अपने को परिमार्जित करता हुआ एक स्वाभाविक राजनीतिक कर्म में बदल गया है. राजनीतिज्ञों ने ही नहीं जनता ने भी इस सातवें पाप को स्वीकार लिया है. अब इसे पाप के बजाए एक सद्कर्म के रूप में देखा जाने लगा है, और इस पर कोई सवाल जवाब नहीं होता.

पांच राज्यों में चुनाव

इन दिनों हम उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के चुनावों से गुजर रहे हैं. इन चुनावों में भारतीय राजनीति ने सिद्धांतहीनता का एक नया निम्न स्तर छुआ है. उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में जिस तरह से नेताओं ने रातोंरात दल और दिल बदले हैं, उससे राजनीतिक सिद्धांतों की परिभाषा ही बदल दी है.

इन चुनावों में जिस तरह से मंत्रियों और विधायकों ने चुनावों के बीच में पाला बदला है वह इस बात का संकेत है कि आने वाले दिनों में दलीय सिस्टम और खोखला होता जाएगा. इसका एक कारण राजनीतिक दलों का कारपोरेट घरानों में बदल जाना भी है. नेता बेहतर पैकेज के लिए अपने दल उसी तरह बदल रहे हैं जिस तरह से निजी कंपनी के कर्मचारी करते हैं.

बस इसमें हैरानी का विषय जनता के बीच इसकी स्वीकार्यता बढना है. लोग अब दलबदल को एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में देखने लगे हैं. दल बदल करने वाले नेता आसानी से चुनाव जीत रहे हैं. पांच साल तक विरोधी दल और नेताओं को कोसने वाले नेताओं को जनता जिस आसानी से स्वीकार कर रही है वह समाजशास्त्रियों के लिए शोध का विषय होना चाहिए.

नेताओं से भी अधिक गिरावट अधिकारियों में देखी जा रही है

ऐसा नहीं है कि सिद्धांत का संकट नेताओं का ही पैदा किया है. इन नेताओं से भी अधिक गिरावट अधिकारियों में देखी जा रही है. ईमानदारी और निष्पक्षता का कोट पहन कर देश सेवा करने वाले अधिकारी रातों रात ये कोट उतार कर अपने असली स्वरूप में सामने आ रहे हैं. खादी का चोला ओढ़ ले रहे हैं. अपनी नौकरी से अचानक इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने वाले अधिकारियों की पूरी नौकरी पर सवाल लगना स्वाभाविक है.

हैरानी की बात ये है कि जनता और बुद्धिजीवियों सभी ने इसे स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया है. हम एक ऐसे दौर में हैं जहां अब समान्य नैतिक आचरण भी अपेक्षित नहीं रह गया है. वैसे राजनीति में नैतिकता का संकट पूरे विश्व में रहा है.

जैसा कि आधुनिक राजनीतिक दर्शन और आधुनिक राजनीति विज्ञान के पितामह इटली के निकोलो मैकियावली का ये विश्वप्रसिद्ध कथन है- राजनीति का नैतिकता से संबंध नहीं है. मैकियावली को यूरोप का चाणक्य भी कहा जाता है.

राजनीति ने दर्शन का स्थान ले लिया है

तो ये तो साफ है कि सिद्धांतविहीन राजनीति को भारतीय समाज ने स्वीकार लिया है. अब इस गिरावट का समाज के अन्य क्षेत्रों और वर्गों पर क्या असर होगा, ये देखने की बात होगी. असर तो होना सुनिश्चित है, क्योंकि राजनेताओं के समाज पर असर से इनकार नहीं किया जा सकता. हां पहला असर तो उन चुनाव क्षेत्रों में पड़ेगा जहां कोई प्रत्याशी पांच साल कर लोगों के सुख-दुख में काम आता था कि उसे आने वाले दिनों में चुनाव लड़ना है.

अब ऐसे नेता जनता के प्रति उदासीन हो जाएंगे क्योंकि उन्हें पता है कि चुनाव के समय कोई पैराशूट प्रत्याशी उतर आएगा.धीरे धीरे ही सही सिद्धांतविहीनता का ये दर्शन पूरे समाज में अपनी जड़ें और गहरी कर लेगा. जैसा कि अमेरकी पत्रकार और लेखक मार्टिन एल ग्रौस ने कहा है- हम उस दुनिया में रहते हैं जहां राजनीति ने दर्शन का स्थान ले लिया है.

Ragini Sinha

Ragini Sinha

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