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ये तो होना ही था: गठबंधन तोड़ने का इतिहास है मायावती का

raghvendra
Published on: 10 Jun 2019 7:22 AM GMT
ये तो होना ही था: गठबंधन तोड़ने का इतिहास है मायावती का
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श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: सपा-बसपा के हाथ मिलाने पर तो लोगों को काफी हैरानी हुई थी मगर गठबंधन टूटने पर लोगों को ज्यादा हैरानी नहीं हुई। गठबंधन होते समय ही यह तय माना जा रहा था कि सपा-बसपा का गठबंधन 2022 के विधानसभा चुनाव तक नहीं चल सकेगा। लेकिन यह इतनी जल्द टूट जाएगा, इसकी उम्मीद भी किसी को नहीं थी। उम्मीद थी तो केवल नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को जिन्होंने अपनी चुनावी सभाओं में हर बार यही कहा कि लोकसभा चुनाव खत्म होते ही सपा-बसपा की राहें जुदा हो जाएंगी।

सूबे की राजनीति में खासा असर रखने वाले इन दोनों दलों के बीच गठबंधन को मोदी को सत्ता में आने से रोकने की बड़ी कवायद माना जा रहा था। छब्बीस साल बाद दोनों दलों का एक मंच पर आना राजनीतिक पंडितों के लिए इसलिए भी अचरज भरा था क्योंकि गेस्ट हाउस कांड की घटना के बाद दोनों के बीच गठबंधन की उम्मीद नहीं के बराबर ही थी मगर दोनों दलों के गठबंधन के बाद मायावती ने मुलायम के इलाके तक में सभा कर डाली। लेकिन गठबंधन के भविष्य को लेकर जताई जा रही आशंकाएं आखिरकार सच साबित हुईं और चुनावी हार के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव समीक्षा ही करते रह गए और मायावती ने उन्हें करारा झटका दे दिया।

माना जा रहा है कि गठबंधन टूटने से पहले से ही ताकतवर भाजपा की राह और आसान हो जाएगी। लोकसभा चुनाव से पूर्व गोरखपुर, फूलपुर और कैराना सीटों पर उपचुनाव में गठबंधन के कारण ही विपक्ष की जीत मानी गई थी। इसी कारण गठबंधन की काट के लिए इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को मेहनत भी करनी पड़ी। यह बात दूसरी है कि सपा-बसपा के वोट ट्रांसफर न होने से भाजपा को कामयाबी मिली मगर अब चुनावी गणित में भाजपा और मजबूत साबित होगी।

मजबूरी में मिलाया था हाथ

दरअसल, बहुजन समाज पार्टी का इतिहास इसी तरह का रहा है। उसने पहले भी कई दलों से गठबंधन किए, लेकिन जब उसे राजनीतिक लाभ होता दिखाई दिया उसने अपने रास्ते अलग कर लिए। चाहे वह भाजपा के साथ उसका गठबंधन रहा हो अथवा कांग्रेस के साथ अथवा किसी अन्य दल के साथ। 17वीं लोकसभा के चुनाव के पूर्व इस गठबंधन से बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित हैरान रह गए थे, लेकिन हकीकत यह है कि इसके पीछे दोनों दलों की राजनीतिक मजबूरियां थीं। इसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को पांच सीटें मिली थीं जबकि बसपा का खाता भी नहीं खुल सका था। 2014 में कुल 80 लोकसभा सीटों में भाजपा ने 71 और गठबंधन में शामिल अपना दल ने दो सीटें जीतीं। इस प्रकार भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन को रिकॉर्डतोड़ 73 सीटें मिली थीं। कांग्रेस के खाते में सिर्फ दो सीटें आई थीं वह भी राहुल गांधी व सोनिया गांधी की।

उपचुनाव के नतीजों ने बढ़ाया उत्साह

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सपा-बसपा दोनों को लगने लगा था कि मोदी का विजय रथ रोकने के लिए एक मंच पर आना जरूरी है। इसके पहले तीन लोकसभा सीटों पर गोरखपुर, फूलपुर और कैराना सीटों पर उपचुनाव हुए तो दो सीटों फूलपुर और गोरखपुर पर सपा ने अपने उम्मीदवार खड़े किए जबकि कैराना में रालोद ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया। उम्मीद के विपरीत तीनों ही सीटों पर विपक्ष को सफलता मिली। इससे सपा-बसपा दोनों को लगा कि एक मंच पर आने से भाजपा को हराने में जरूरी कामयाबी मिलेगी। यही कारण था कि दोनों दलों ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया। वैसे इस मामले में भी सपा मुखिया अखिलेश यादव ने ज्यादा बेकरारी दिखाई। कई बार तो सपा समर्थकों को यहां तक लगा कि बसपा ने अच्छी सीटें लेकर अखिलेश को नीचा तक दिखाया मगर अखिलेश अंत तक पूरी ईमानदारी से गठबंधन धर्म निभाते रहे।

सपा को नहीं हुआ फायदा

चुनाव से पहले दावा किया जा रहा था कि सपा-बसपा ने जो जातीय गणित फिट किया है वह भाजपा के लिए हानिकारक होगा। लेकिन चुनाव नतीजों में साफ हुआ कि बसपा का वोट प्रतिशत जस का तस रहा, लेकिन उसकी सीटें शून्य से दस हो गयी लेकिन समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत तो गिरा ही परिवार की बहू डिम्पल और भाई-भतीजे भी चुनाव हार गए। नतीजों से साफ हुआ कि जो जातीय गणित का फॉर्मूला लगाया गया वो फिट नहीं हुआ और भारतीय जनता पार्टी ने सपा-बसपा के जातीय समीकरण में सेंध लगा दी। यही कारण रहा है कि भाजपा अकेले दम पर पूरे यूपी में 50 फीसदी वोट के साथ 64 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब हो गई। दूसरी ओर सपा-बसपा मिलकर 15 सीटें और 40 फीसदी के आसपास वोट शेयर पर ही सिमट गए।

यदि चुनावी इतिहास देखा जाए तो 2009 के लोकसभा चुनाव में 23.26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ समाजवादी पार्टी को 23, कांग्रेस को 18.25 प्रतिशत वोट के साथ 21 और भाजपा को 17.50 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दस सीटें मिलीं थीं। रालोद के खाते में पांच लोकसभा सीटें आई थीं। वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में इसी समाजवादी पार्टी को अकेले चुनाव लडऩे पर 224 सीटें मिलीं थीं। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सवर्ण मतदाताओं के भाजपा में शिफ्ट होने की बात सामने आई थी। उस चुनाव में भाजपा ने प्रदेश में प्रचंड बहुमत हासिल किया। बसपा ने 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। उस वक्त बसपा को महसूस हुआ था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन कर कोई फायदा नहीं हुआ। जबकि 2017 में समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस फायदेमंद नहीं साबित हुई। इसी कारण इस बार सपा-बसपा ने कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा।

क्यों टूटा गठबंधन

पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव बसपा सुप्रीमो मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की बात कहते रहे। दोनों दलों में यह तय हुआ था कि अखिलेश यादव प्रदेश सरकार पर हमला करेंगे और मायावती केन्द्र सरकार पर। सपाइयों को लग रहा था कि अगले विधानसभा चुनाव में मायावती अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए काम करेंगी, लेकिन चुनाव परिणामों से सपा कार्यकर्ताओं को निराशा ही हाथ लगी। उधर मायावती को लगा कि जिस तरह से उनकी पार्टी को लोकसभा में 10 सीटें हासिल हुई हैं उससे साफ है कि उन्हें मुसलमानों का समर्थन खूब मिला है। पश्चिम में प्रभाव वाली सीटों पर मायावती को चुनाव प्रचार में खूब जनसमर्थन दिखाई भी पड़ा। इसलिए उन्हें लगा कि 11 सीटों के उपचुनाव अपने दम पर ही क्यों न लड़े जाएं।

राजनीतिक चतुरता में अपनी विशेष पहचान रखने वाली मायावती ने इस बार सारा दोष यादव वोट बैंक और मुलायम परिवार पर ही मढ़ दिया। उनका इशारा शिवपाल सिंह यादव की तरफ था क्योंकि चुनाव बाद इस तरह की चर्चाएं शुरू हो चुकी थीं कि शिवपाल की पार्टी में वापसी हो सकती है। राजनीतिक तौर पर अनुभवी कहे जाने वाले शिवपाल सिंह यादव की वापसी की आशंका भी मायावती को नहीं भा रही थी। इसके अलावा मायावती गठबंधन में रालोद को नहीं चाहती थी। इसलिए उन्होंने कभी रालोद को लेने की बात नहीं कही। गठबंधन में भी उन्होंने सीटों की कटौती नहीं की। सपा ने ही अपने कोर्ट से तीन सीटें रालोद को दी थीं।

26 साल बाद हुआ था गठबंधन

भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने की गरज से 26 साल बाद सपा-बसपा ने हाथ मिलाया था। बसपा अध्यक्ष मायावती ने जब दिल्ली में हार के कारणों को लेकर बैठक बुलाई गयी तो प्रदेश की ग्यारह विधानसभा की सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अकेले लडऩे की घोषणा कर दी। उन्होंने चुनाव में गठबंधन के बेहतर प्रदर्शन न होने का ठीकरा समाजवादी पार्टी के सिर फोड़ दिया। कहा कि चुनाव में यादवों के वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुए। लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद से ही गठबंधन के भविष्य को लेकर पहले ही अटकलें शुरू हो गयी थीं और आखिरकार वही हुआ जिसकी आशंका थी।

पांच महीने ही चल पाया गठबंधन

लोकसभा चुनाव से पहले इसी साल जनवरी में लखनऊ के फाइव स्टार होटल में दोनों दलों के बीच गठबंधन की घोषणा हुई थी। रालोद तो इस गठबंधन में बाद में शामिल हुआ। गठबंधन के समय दोनों दलों को चौंकाने वाले परिणामों की उम्मीद थी। इस गठबंधन के बाद भाजपा भी अपने भविष्य को लेकर सशंकित थी, लेकिन अंडर करंट ने भाजपा के साथ ही गठबंधन को भी चौंकाया। गठबंधन जहां पन्द्रह सीटों पर सिमट गया तो भाजपा गठबंधन को 64 सीटें मिली। चुनाव में गठबंधन होने के बावजूद सपा को मात्र पांच सीटें मिलने के बाद से ही यादवी कुनबे मेें खासी बैचेनी थी। बैचेनी इस बात को लेकर भी थी कि सपा में मुखिया अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव और दोनों भाई धर्मेन्द्र यादव व अक्षय यादव को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा। इससे सपा के गठबंधन बने रहने के सारे दावों की हवा निकलनी शुरू हो गयी थी।

सियासी हल्कों में हैरानी नहीं

हालांकि गठबंधन के इस हश्र को लेकर सियासी हल्कों में कोई हैरानी नहीं है। हो भी क्यों? बसपा अपने इसी चरित्र के लिए जानी जाती है। इस गठबंधन में रालोद की स्थिति शामिल बाजे जैसी थी। इसलिए उसकी स्थिति पर बहुत ज्यादा असर पडऩे वाला नहीं था। रही बात सपा की तो उसके लिए कोई नया अनुभव नहीं था। इस गठबंधन से सबसे ज्यादा मुनाफे में जहां बसपा रही तो सपा जहां की तहां रह गई। उसके लिए सबसे ज्यादा झटका यह रहा कि उसके कुनबे के ही लोग धराशायी हो गए जबकि बसपा फायदे में रही। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता नहीं खुला था और 2017 के विधानसभा चुनाव में एड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद भी बसपा को मात्र 19 सीटें मिली थी। इन दोनों चुनावों में मिली विफलता के बाद ही मायावती सपा से गठबंधन को तैयार हुई थीं। वैसे गठबंधन करने और तोडऩे में मायावती को महारत हासिल है।

लोकसभा चुनावों से पहले मायावती ने 2018 में छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी के नेतृत्व वाली जन कांग्रेस से गठबंधन किया था मगर अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद उन्होंने गठबंधन तोड़ दिया और ठीकरा जोगी के सिर फोड़ दिया था। इसी तरह मायावती ने हरियाणा में इनेलों से भी गठबंधन किया जो ज्यादा दिनों तक नहीं चला। यूपी में मायावती का हर दल का साथ रहा। तीन बार वे भाजपा के समर्थन से सरकार में रही। 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़ा। बाद में उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। हालांकि भाजपा और कांग्रेस का साथ करने से पहले यूपी में सबसे पहले सपा-बसपा का पहला गठबंधन 1993 में हुआ था। तब इसी गठबंधन की सरकार बनी और उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव बने थे। लेकिन उस समय भी यह गठबंधन सरकार अपना दो साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी और मायावती भाजपा के समर्थन से पहली बार सीएम बनी थी।

सांप-सीढ़ी की तरह घटता बढ़ता रहा मत प्रतिशत

अगर देखा जाए तो पिछले करीब दो दशकों से इन्हीं दो पार्टियों की सत्ता रही है और सपा-बसपा का वोट बैंक सांप-सीढ़ी के खेल की तर्ज पर घटता- बढ़ता रहा है। बाबरी ढांचा विध्वंस के बाद जब कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त हो गयी और एक साल बाद 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई तो भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए 1993 में सपा-बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा जिसका उन्हें लाभ मिला और प्रदेश की सत्ता पर गठबंधन सरकार काबिज हो गयी। इस चुनाव में आपसी सहमति के आधार पर समाजवादी पार्टी ने 256 प्रत्याशी मैदान में उतारे जिसमें 109 चुनाव जीते और वोटों का प्रतिशत 17.94 रहा। इस विधानसभा चुनाव में बसपा ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा और बसपा ने 67 सीटों पर। इस तरह दोनों दलों ने मिलकर 176 सीटों पर कब्जा किया। प्रदेश में मुलायम सिंह के नेतृत्व में गठबंधन की साझा सरकार बनी। इस गठबंधन के बावजूद बीजेपी ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रही थी। बीजेपी को 1993 के विधानसभा चुनाव में 177 सीटें मिली थीं। वहीं वोट शेयर की बात करें तो एसपी और बीएसपी का वोट शेयर 29.06 प्रतिशत रहा था। जबकि बीजेपी 33.3 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रही थी। डेढ़ साल बाद गठबंधन में जब खटास पैदा हो गई तो 1996 का विधानसभा चुनाव सपा ने अपने दम पर लड़ा।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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