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राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप ताजपोशी कई मायने में अहम

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 8:43 AM GMT
राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप ताजपोशी कई मायने में अहम
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आरबी त्रिपाठी

लखनऊ। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कह रहे हों कि कांग्रेस को औरंगजेबी राज मुबारक हो, जब कांग्रेस के कारिंदे शहजाद पूनावाला यह टिप्पणी कर रहे हों कि यह इलेक्शन नहीं सेलेक्शन है, जब गुजरात के कसमसाते चुनावी माहौल में आरोपों की चौतरफा बौछार हो रही हो, ऐसे में राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप ताजपोशी कई मायने में अहम हो जाती है। ताजपोशी के बाद राहुल के सामने फूलों के हार और गुलदस्ते जरूर होंगे, लेकिन कांटों का इतना घना जंगल इंतजार कर होगा जिसे पार करना उनके लिए बड़ी चुनौती साबित होगा।

इन्हीं जिम्मेदारियों और तानाकसी के बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद प्रमोद तिवारी की टिप्प्णी काबिल-ए-गौर हो जाती है। वे कहते हैं कि राहुल गांधी चुनौतियों के बीच पले-बढ़े, चुनौतियों भरा राजनीतिक जीवन जिया और सियासी हमलों का जवाब देते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं।

प्रमोद तिवारी की यह बात कांग्रेस जनों के लिए किसी बड़ी रोशनी से कम नहीं है कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस और ताकतवर बनेगी। पार्टी से युवाओं का जुड़ाव तेजी से होगा और गुजरात क्या हम सारे चुनाव जीतेंगे। लेकिन इन्हीं टीका-टिप्पणियों के बीच यह जेरे बहस है कि नेहरू गांधी वंश की नई पीढ़ी के इस नेता को पार्टी का नेतृत्व उस मुकाम पर मिल रहा है जब देश के मात्र 10 से 15 फीसदी हिस्से में ही कांग्रेस का शासन है। नेहरू के काल में कांग्रेस देश के 90 प्रतिशत हिस्से में राज कर रही थी।

चुनाव के बीच ताजपोशी का मतलब: जिस मौके पर राहुल गांधी की ताजपोशी की जा रही है, यह गुजरात में विधानसभा चुनाव का वक्त है। अब ऐसे में विरोधी यह सवाल उठाने में नहीं चूक रहे कि राहुल को चुनाव की नहीं, अपने ओहदे की पड़ी है। पिछले कुछ सालों से राहुल के अध्यक्ष बनने की चर्चाएं रह-रहकर उठने के बाद थम जाती थीं, लेकिन अबकी बार सोनिया गांधी ने खुद इस दिशा में पहल की। अपनी सेहत की वजह से उन्होंने बेटे को कुर्सी सौंपना तय कर दिया। यह कांग्रेस की सोची समझी रणनीति का ही एक हिस्सा है। चुनाव में कांग्रेस उबर गई तो बल्ले-बल्ले और डूब गई तो राहुल के मत्थे बड़ा दाग भी नहीं होगा।

अध्यक्ष बनने वाले वंश के छठे सदस्य: राहुल गांधी नेहरू-गांधी वंश की पांचवीं पीढ़ी के छठे सदस्य हैं जो कांग्रेस के अध्यक्ष बन रहे हैं। 132 साल पुरानी कांग्रेस की कमान 45 साल तक इसी वंश के सदस्यों के हाथों रही है। सोनिया गांधी सबसे लंबे समय 19 साल से कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। इतना मौका तो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी को भी नहीं मिला। इन 19 सालों में कांग्रेस 10 साल तक सत्ता में रही है।

राज्यों में भी उसका अच्छा खासा प्रभाव रहा है। पंडित नेहरू 11 साल तक कांग्रेस के अध्यक्ष थे जबकि इंदिरा गांधी 7 साल, राजीव गांधी 6 साल और मोतीलाल नेहरू महज 2 साल तक ही अध्यक्ष थे। 71 साल की सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति से अवकाश जरूर ले रही हैं, लेकिन जिस तरह के हालात हैं, उनके बीच राहुल गांधी को उनकी सलाह मिलती रहेगी, ऐसा कांग्रेसजन भी मान रहे हैं।

मां-बेटे में मतभेद भी रहे

सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने 13 साल तक साथ-साथ काम किया, लेकिन इस दरम्यान कई मौके ऐसे आए जब राहुल गांधी अपनी मां से अलग दिशा में जाते दिखे। जिस वंशवाद की वह बेल हैं, उसी वंशवाद शब्द पर उनकी तल्ख टिप्पणियां समय-समय पर सोनिया गांधी को व्यथित करती रही हैं। जब राहुल गांधी यह कहते हैं कि अगर मैं नेहरू गांधी खानदान का न होता तो मंच पर नहीं, आप लोगों के बीच बैठा होता।

विपक्ष उनकी इस बात पर उनका उपहास करने में भी पीछे नहीं रहता था। राहुल गांधी में पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र बहाल करने की बेचैनी सोनिया गांधी को कई मौकों पर बेचैन करती रही है। इसीलिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सोनिया गांधी के प्रिय पात्र उन्हें यह समझाने में पीछे नहीं रहते थे कि राहुल गांधी को युवा संगठनों तक ही सीमित रखा जाए। बतौर पार्टी महासचिव वह मुख्य धारा के कांग्रेसियों को बदलने में बहुत हद तक कामयाब नहीं हो पाए थे।

13 साल से विपक्ष के निशाने पर: राहुल गांधी भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष अब बन रहे हैं, लेकिन विपक्ष उन्हें पहले से ही अध्यक्ष जैसा माने बैठा था। इसलिए सोनिया गांधी से ज्यादा सियासी निशाना उन पर साधा जाता रहा है। 2010 में सबने देखा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अध्यादेश को राहुल गांधी ने कैसे फाड़ कर फेंक दिया था। यह अध्यादेश राजनीति में भ्रष्ट और दोषी करार दिए गए लोगों की जगह बनाए रखने के लिए था।

विपक्षी आलोचना से घिरे राहुल गांधी को कुछ ही दिनों में मनमोहन सिंह से माफी मांगते भी देखा गया। राहुल गांधी वैसे तो एक साफ़-सुथरी छवि वाले नेता के रूप में उभरे जो पारदर्शिता और सुशासन की वकालत करता रहा हो, लेकिन उनकी छवि पर संप्रग सरकार के मंत्रियों के आचरण ने बट्टा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

विपक्ष ने इन्हीं हालात का फायदा उठाया और लगातार तानेबाजी करता रहा। यह अलग बात है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार के सीधे आरोप कभी नहीं आए। उनके बहनोई राबर्ट वाड्रा के जमीन संबंधी मामले भाजपा ने जरूर उठाए पर आज तक उन पर प्रभावी कार्रवाई नहीं कर पाई।

कितनी दूर होगी दरबारगीरी

दरबारगीरी कांग्रेस का पुराना रोग है। अभी तक यही होता आया है कि जो कांग्रेसजन अपने नेता की दरबारगीरी करते थे, वही काफी कुछ हासिल करते थे। जो सही बात कहते थे, उन्हें दरकिनार किया जाता रहा है। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और सोनिया गांधी तक यही चलता रहा है।

राहुल गांधी वैसे दरबारगीरी के हामी तो नहीं दिखे पर वह युवाओं की जिस चौकड़ी से घिरे रहे हैं, उस पर जब-तब सवाल जरूर उठते रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का ही एक तबका इन आरोपों को खारिज करता रहा है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री शिवशंकर पांडेय कहते हैं कि राहुल गांधी छोटे से छोटे कांग्रेसी से घुल-मिलकर बातें करने वाले नेता हैं। वह सबकी सुनते हैं, लेकिन करते वही हैं जिसमें पार्टी का और जनता का हित हो।

लक्ष्य और दिशा तय करने की चुनौती: 47 साल के राहुल गांधी के सामने बतौर अध्यक्ष कई तरह की चुनौतियां हैं। एक तो उन्हें पुरानी और नई पीढ़ी के बीच संतुलन साधने की बड़ी कवायद करनी होगी। एक पुराने कांग्रेसी नेता कहते हैं कि राहुल को एकला चलो की नीति आत्मसात करनी पड़ेगी वरना पार्टी की चंडाल चौकड़ी अपनी कलाबाजी दिखाने में पीछे नहीं रहेगी। तब कई नई समस्याएं सामने आएंगी। सिद्धांतों नहीं बल्कि व्यावहारिक पक्षधरता ही पार्टी के लिए जरूरी होगी। चंडाल चौकड़ी से दूर रहते हुए राहुल गांधी को ऐसे लोगों को अपने इर्द-गिर्द रखना होगा जो नीतिगत और विचारधारागत विषयों में प्रवीण माने जाते हैं।

मोदी और शाह के लिए बड़ी चुनौती

राहुल ने वैसे तो 2004 में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था। विभिन्न पद और जिम्मेदारियां सौंपने के बाद सोनिया गांधी ने 2013 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया था। गुजरात चुनाव में राहुल नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी किए हुए हैं। देखने वाली बात यह होगी कि वे कितना आक्रामक ढंग से भाजपा की इस जोड़ी को जवाब देते हैं।

राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि राहुल गांधी भाजपा की सुपर जोड़ी के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। आर्थिक नीतियों पर भी राहुल गांधी की सोच अलग है। इस पहलू पर सोनिया गांधी मनमोहन सिंह व पी चिदंबरम पर भरोसा करती थी, लेकिन राहुल गांधी ने नोटबंदी, जीएसटी या ग्रोथ रेट से जुड़े मुद्दों पर अपनी बेबाक राय जाहिर की है। गुजरात के चुनाव प्रचार में उनका सारा फोकस इसी पर है। वे जानते हैं कि गुजरात में आर्थिक मामले कितने अहमियत रखते हैं।

अध्यक्षी से क्या होगा बदलाव

राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से देश और कांग्रेस की सियासत में क्या कुछ बदल जाएगा, इस पर विश्लेषकों की राय जुदा-जुदा है। सियासी जानकार रशीद किदवई जहां नेतृत्व में फेरबदल के समय को दिलचस्प मानते हैं, वहीं वरिष्ठ पत्रकार रामनरेश त्रिपाठी का कहना है कि यह कांग्रेस का रणनीतिक दांव हो सकता है।

किदवई कहते हैं कि इस समय गुजरात का चुनाव चल रहा है और कांग्रेस की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। कांग्रेस गुजरात के सहारे देश की राजनीति में बदलाव की उम्मीद लगाए हुए है। ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन का फैसला दिलचस्प लग रहा है। दूसरी ओर त्रिपाठी का दावा है कि यह एक रणनीतिक दांव अधिक महसूस होता है। अगर कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया तो इसका पूरा श्रेय राहुल गांधी को ही जाएगा।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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