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भाजपा को छोड़कर जाने वाले नेता क्यों नहीं हो पाते सफल, जानिए इसके पुख्ता कारण
राजनीति में कब किसकों ताज मिल जाए और किसकों सत्ता से हाथ धोना पड़े ये बात कोई नहीं बता सकता और नहीं कोई इसका सहज अंदाजा लगा सकता। कौन जानता था की भाजपा के दूसके पंक्ति के नेता को 2013 में प्रचार समिति के अध्यक्ष और फिर बाद में प्रधानमंत्री पद की कुर्सी मिल जाएगी। जबकि मोदी से कई वरिष्ठ नेता आगे ही बैठे हीं रह गए जैसे की मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज और तो और भाजपा के सबसे काबिल नेता लालकृष्ण आडवाणी को पितामह की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लखनऊ न्यूज। राजनीति में कब किसकों ताज मिल जाए और किसकों सत्ता से हाथ धोना पड़े ये बात कोई नहीं बता सकता और नहीं कोई इसका सहज अंदाजा लगा सकता। कौन जानता था की भाजपा के दूसके पंक्ति के नेता को 2013 में प्रचार समिति के अध्यक्ष और फिर बाद में प्रधानमंत्री पद की कुर्सी मिल जाएगी। जबकि मोदी से कई वरिष्ठ नेता आगे ही बैठे हीं रह गए जैसे की मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज और तो और भाजपा के सबसे काबिल नेता लालकृष्ण आडवाणी को पितामह की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लेकिन राजनीति में शह-मात का खेल तो चलता हीं रहता है और 2014 में नरेंद्र मोदी ने देश की बागड़ोर संभाली जो अभी तक कायम है। लेकिन कई नेता मोदी को पसंद नहीं करते थे इसी के कारण कई नेताओं ने अपने आप को साईड़ कर लिया तो कईयों ने पार्टी के खिलाफ अवाज उठाने लगे जिसका खामियाजा उन्हे राजनीति में नुकसान के तौर पर उठाना पड़ा। लेकिन ऐसी नहीं है की भाजपा को छोड़कर जाना सिर्फ मोदी राज में हीं हुआ है ये काम अटल-आडवाणी के समय भी हुआ करता था जैसे की यूपी में कल्याण सिंह तो एमपी में उमा भारती आदी।
हम आपको बताते चले कि भाजपा को छ़ोड़कर जाने वाले नेता की स्थिती दूसरे दलों में काफी कमजोर हो गई है या फिर वे राजनीति में हाशिए पर चले गए है। आखिर क्या है इसकी वजह, बात आज की ये बात उस समय की भी है जब भाजपा में अटल औऱ आडवाणी पार्टी को नेतृत्व किया करते थे तब से ही जो नेता पार्टी को छोड़कर गये उसमें से अधिकतर की राजनैतिक हैसियत अच्छी नहीं रही जैसे की गुजरात के कद्दावार नेता शंकर सिंह बाघेला ने पार्टी तोड़कर 48 विधायकों के साथ कांग्रेस की सहयोग सरकार बनाई।
गुजरात में बघेला ने छोड़ी थी भाजपा
लेकिन 1998 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह हारी व उनके खाते में सिर्फ 4 सीटें आई। जिसकें बाद उन्होंने अपनी पार्टी को कांग्रेस में विलय कर लिया जिसके बाद उनकी राजनैतिक हैसियत ढलान पर ही रही। भाजपा को छोड़कर जाने वालों कि लिस्ट लंबी है जो दूसरे दलों में जाकर बहुत कुछ हासिस नहीं कर पाए जिसमें अटल सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा, विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह, अरुण शौरी, शत्रुघन सिन्हा, क्रिकेट के बाद राजनीति के मैदान नें उतरे बिहार के दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद, महाराष्ट्र के भाजपा नेता नाना पटोले सहित कई दिगग्ज शामिल हैं।
जसवंत लड़े थे भाजपा के बिना चुनाव व राजस्थान के बड़ामेर से हारे
जसंवत सिन्हा को 2009 में पार्टी विरोधी गतिविधि के कारण बाहर कर दिया गया था जिसके बाद उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में भी टिकट नहीं दिया गया लेकिन बाडमेर से उनहोंने निर्दलीय चुनाव लड़े लेकिन वे हार गए। ठीक उसी तरह सत्रुघन सिन्हा व कीर्ति आजाद के साथ हुआ उन्होने भी भाजपा को 2019 में छोड़ा और कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन दोनों को चुनाव में हारना पड़ा। कीर्ती आजाद झारखंड़ के कोड़रमा से चुनाव लड़े थे तो वहीं सत्रुघन सिन्हा अपने परंपरागत सीट पटना साहिब से लेकिन दोनों को करारी हार का सामना करना पड़ा।
यशवंत सिन्हा ने छोड़ी भाजपा बने टीएमसी के उपाध्यक्ष
वहीं भाजपा छोड़कर गए महाराष्ट्र के नेता नाना पटोले व बिहार से राजनीतिक ताल्लुक रखने वाले यशवंत सिन्हा व पंजाब में भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए नवजोत सिंह सिद्धू को भी थोड़े बहुत सफल माना जाएगा क्योंकी पटोले को कांग्रेस हाईकमान ने महाराष्ट्र के पीसीसी चीफ बनाया है तो वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यममंत्री ममता बनर्जी ने सिन्हा पर भरोसा रखते हुए उन्हे अपनी पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया है। राजनीतिक विशलेषक बद्रीनाथ यशवंत सिन्हा के सफल होने के कारण को रेखांकित करते हुए बताते हैं की सिन्हा का पृष्टभुमि समाजवाद से जुड़ा हुआ है और वे अटल-आडवाणी के राजनीति स्कूल में पढ़ें हैं अतः वे कोई भी विचारधारा में अपने आप को ढ़ाल लेते हैं।
सिद्धू ने कांग्रेस का थामा हाथ
वहीं अभी सबसे चर्चित राजनीतिक घटनाक्रम पंजाब में चल रहा है जहां पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ भाजपा को छोड़कर कांग्रेस में गए नवजोत सिंह सिद्धू अपनी राजनीति वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आपको बता दे कि भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए सिद्धू ने विधानसभा चुनाव लड़ा था और रिकार्ड़ वोटो से जीत हासिल की जिसके बाद अमरिंदर सिंह ने उन्हे अपने मंत्रिमंड़ल में जगह भी दी लेकिन कुछ दिनों के बााद दोनों में राजनीतिक रस्साकसी जारी हो गई जिसकें कारण सिद्दधू को मंत्री पद से इस्तिफा देना पड़ा।
येदूरप्पा ने भी एक समय छोड़ा था भाजपा
इसी कड़ी में बात करते है दक्षिण के उस नेता की जो अपने साथ दस प्रतिशत लिंगायतस समुदाय के वोटो के साथ 2013 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनावी मैदान में था और उसने भाजपा के सत्ता में आने के सारे दरवाजे बंद कर दिया था। लेकिन परिणाम आने के बाद दोनों में संधि हुई और 2018 का विधानसभा चुनाव भाजपा के पूर्व बागी नेता बीएस येदूरप्पा के नेतृत्व में लड़ा गया और भाजपा ने जोरदार प्रदर्शन किया और सौ से अधिक सीट लाकर सिंगल लारजेस्ट पार्टी के तौर पर उधरी थी। लेकिन कांग्रेस व जद(एस) के गठबंधन के बाद सरकार एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में बना लेकिन साल-ड़ेढ साल के बाद सत्ता दल के विधायकों के टुटने के बाद सरकार अल्पमत में आ गई और सरकार को जाना पड़ा। जिसके बाद बीएस येदुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी।
क्यों नहीं सफल हो पाते भाजपा के बागी नेता दूसरे दलों में
राजनीति के जानकार बद्रीनाथ बताते है कि भाजपा कम्युनिस्टों की तरह एक कैड़र बेस्ड़ पार्टी है और उसका कैड़र इतना मजबूत है कि नेता छोड़कर जा सकता है लेकिन उसके कैड़र के लोग वहीं के वहीं जमे हुए रहते हैं। भाजपा के कार्यकर्ता को पार्टी से लागाव है उसके विचारधारा से नहीं नेता से इसी कारण अगर कोई नेता पार्टी को छोड़कर जाता है तो उसके साथ कार्यकर्ताओं उस ओर शिफ्ट नहीं होते हैं जैसा की चुनाव में देखने को मिलता है।
यूपी में कल्याण सिंह ने पार्टी छोड़कर फिर भाजपा में शामिल हुए थे
वहीं नेता उसी जगह से चुनाव जीतता है और पार्टी बदलने पर उसकी वोटों की संख्या लाख तक भी नहीं पहुंच पाती है। दूसरा कारण ये है की भाजपा के नेता अपने विचारधारा से इतने बंधे हुए होते है की वे दूसरे दलों में अपने आप को फिट नहीं बैठा पाते हैं कुछ अपवाद को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर मामलों में यही मिलता है। जैसे की उमा भारती भाजपा से बाहर गई दूसरी पार्टी भी बनाई लेकिन फिर भाजपा में वापस आ गई।
दूसरा उदाहरण कल्याण सिंह का है उनकी अटल बिहारी से नहीं बनती थी इसी कारण पार्टी ने उन्हे हटा दिया था लेकिन वे फिर पार्टी में आ गए जैसा की येदुरप्पा के साथ हुआ, झारखंड़ के पूर्व सीएम बाबुलाल मरांड़ी के साथ हुआ वे पुनः भाजपा में शामिल हो गए ऐसे कई उदाहरण है जो अलग पार्टी बना कर फिर भाजपा में शामिल हुए