क्या गुल खिलाएगा ये मेल, वजूद बचाने के लिए सपा-बसपा के बीच हुआ गठबंधन

raghvendra
Published on: 9 March 2018 6:58 AM GMT
क्या गुल खिलाएगा ये मेल, वजूद बचाने के लिए सपा-बसपा के बीच हुआ गठबंधन
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अनुराग शुक्ला

लखनऊ: उत्तर प्रदेश एक बार फिर राजनीति की प्रयोगशाला बना है। इस प्रयोग में मोदी विरोध की अचूक बूटी खोजने की तैयारी है। अगर प्रयोग सफल रहा है तो महागठबंधन पार्ट-2 बन सकता है। उत्तर प्रदेश में नए राजनीतिक गठबंधन की वजह वजूद की लड़ाई है। सपा और बसपा लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मोदी के रथ के आगे रौंदे जाने के बाद मोदी विरोध के नाम पर साथ आए हैं। उन्हें लग रहा है कि एकता में शक्ति का मुहावरा और वोट बंटवारा रोकने का सियासी फार्मूला इस कोशिश को नई जान दे सकता है। लोकसभा उपचुनाव में सपा-बसपा के एक होने के पीछे दोनों की राजनीतिक मजबूरी है। दोनों को लगने लगा है कि एक-दूसरे का हाथ थामकर ही मोदी विरोध की जंग लड़ी जा सकती है।

एक न होने पर भाजपा आसानी से शिकस्त देने में कामयाब हो जाएगी। इसके अलावा इन दोनों के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो जाएगा। यही कारण है कि बसपा मुखिया मायावती ने प्रदेश में गोरखपुर व फूलपुर की दो लोकसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में सपा प्रत्याशी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। उपचुनाव में तो दोनों दल साथ आ गए हैं मगर अगले लोकसभा चुनाव तक अभी लंबा रास्ता तय होना है। इस लिहाज से यह कहना अभी दूर की कौड़ी है कि दो सीटों पर समर्थन की शक्ल में हुआ यह गठबंधन आगे चलकर महागठबंधन की शक्ल लेगा।

कैसे हुई शुरुआत

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में प्रयोग की ये टेस्ट ट्यूब यूं ही नहीं तैयार हो गयी। इसका तानाबाना काफी दिनों पहले से बुना जा रहा था। इसके पीछे बहुत से कारक हैं। यादव सिंह का केस इसमें अहम है। इसी कड़ी में एक बड़े सपा नेता की मुलाकात बसपा के बड़े गैरदलित नेता से हुई। इसके बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सपा और बसपा के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाई। उनकी कोशिश इन दोनों दलों के बीच एका कराकर नरेंद्र मोदी के अश्वमेध रथ को उत्तर प्रदेश में रोकने की है। अब यह कोशिश रंग लाती दिख रही है। ममता के सपा और बसपा जोड़ो अभियान के तहत ही पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी से मुलाकात की थी। भरोसेमंद सूत्रों की मानें तो इस मुद्दे को लेकर ममता बनर्जी की मुलाकात बसपा सुप्रीमो से होने वाली है।

सूत्रों के मुताबिक ममता की कोशिश दोनों को बराबर सीटों पर अगले लोकसभा चुनाव के लिए तैयार करना है। मायावती अपना वोट ट्रांसफर कराने की माहिर मानी जाती है। इसके अलावा उपचुनाव में गोरखपुर के दो स्थानीय नेताओं की भूमिका ने भी रंग दिखाया। इन नेताओं की कवायद के बाद बसपा सुप्रीमो ने एक आंतरिक सर्वे के बाद पाया कि भाजपा को रोकने के लिए बसपा का कॉडर सपा से समझौते को गलत नहीं मानता। इस समझौते में सपा से बसपा में गए कुछ नेताओं के कारक को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस समर्थन के अमली जामा पहनने से काफी पहले सपाई से बसपाई बने अंबिका चौधरी ने अपना भारत से इसका खुलासा किया था। उनके मुताबिक सपा- बसपा को एक साथ आना सियासी मजबूरी है। हम साथ आ गए तो भाजपा को रोक सकते हैं। यह वक्त की जरुरत है।

बसपा के पास खोने को कुछ नहीं

बसपा के इस समर्थन को लेकर यह आस बांधी जा सकती है कि मोदी विरोध दो धुर विरोधियों को एक कर सकता है, मगर इस गठजोड़ के बाद लाख टके का सवाल यह है कि क्या यह 2019 तक चलेगा। इसे लेकर बहुत से सवालों का उत्तर दिया जाना जरूरी है। बसपा के पास इस उपचुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं और पाने के लिए बहुत कुछ है। इन दोनों सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं। ऐसे में समर्थन करने का लाभ भी बसपा को है। यह अपने वोटों के बिखराव को रोकने और उपचुनाव में राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की चाल भी है। अगर समर्थित उम्मीदवार जीतता है तो श्रेय के साथ राजनीतिक आवाज की ताकत बढ़ेगी, अगर हार भी गया तो बसपा का कुछ खास जाने वाला नहीं है। उसके पास कहने के लिए होगा कि उसका उम्मीदवार होता तो नतीजा कुछ और होता।

समर्थन के जरिए राजनीतिक सौदेबाजी

बसपा पिछले विधानसभा चुनाव में महज 19 सीट जीत सकी और सपा के पास 47 सीट है। वहीं कांग्रेस के पास 7 सीट है। ऐसे में सपा राज्यसभा में एक उम्मीदवार जिता सकती है पर तीनों पार्टियां मिलकर दो उम्मीदवार जिता सकती हैं। यही वजह है कि बसपा ने भीमराव अंबेडकर को राज्यसभा प्रत्याशी बना दिया है। अब मोदी विरोध के नाम पर एका से बसपा इन्हें राज्यसभा पहुंचा सकती है। वहीं अगर बसपा के समर्थन के बाद सपा का उम्मीदवार जीतता है तो बसपा आगे की राजनीतिक सौदेबाजी में मजबूत होगी। वैसे भी भाजपा इसे अवसरवादी गठबंधन बता चुकी है।

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुताबिक यह गठबंधन तो बेर केर का संग है। वहीं प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, जो फूलपुर लोकसभा सीट पर अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहे हैं, ने गठबंधन से पहले ही मायावती और अखिलेश यादव को ललकार दिया था। उनके मुताबिक इस उपचुनाव में भी और आगे आम चुनाव में भी भाजपा के रथ को यह गठबंधन नहीं रोक सकता है।

राह में बहुत से रोड़े

इस समर्थननुमा गठबंधन से आगे की राह तलाश रहे राजनीतिक पंडितों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव का गठबंधन बहुत ही अलग होता है। उत्तर प्रदेश में 25 साल बाद एक तरफ दिखने वाले सपा-बसपा के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा इस राह का बड़ा रोडा है। इस समय लोकसभा हो या विधानसभा, दोनों जगहों पर सीटों के लिहाज से सपा बसपा से बड़ी पार्टी है। ऐसे में सपा बड़ा भाई बनकर रहना चाहेगी और मायावती किसी भी गठबंधन में जूनियर पार्टनर बनकर रहें, यह बहुत ही मुश्किल है। अतीत में सपा के साथ 1990 के दशक में हो या फिर भाजपा के साथ जैसे ही मायावती ड्राइविंग सीट से हटीं तो गठबंधन टूट गया था।

मायावती की राजनीतिक शैली को करीब से जानने वाले यह जानते हैं कि मायावती नंबर दो बन नहीं सकतीं और गठबंधन में बहुजन समाज पार्टी की स्थिति नंबर एक की दिखती नहीं। यह जरूर है कि स्टेट गेस्ट हाउस कांड को लेकर मायावती की टीस अखिलेश यादव की शैली ने जरूर कम दी है। उन्होंने अपने पिता मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से अपदस्थ करने के साथ ही अपने चाचा शिवपाल को पार्टी में हाशिये पर डाल दिया है।

क्या कहते हैं वो जो पहले थे करीबी और जिन्हें है वास्ता

कभी मायावती के करीबी रहे और अब बसपा छोड़ चुके दद्दू प्रसाद का मानना है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति के नए प्रयोग की उम्र तभी बढ़ सकती है जब नेता अपना स्वार्थ छोडक़र समाज का हित सोचें वरना यह गठबंधन महज राज्यसभा तक ही चल सकेगा। दद्दू प्रसाद ने इशारों-इशारों में कई बातें कहीं। उनके मुताबिक नेता को लोकनायक होना चाहिए, स्वार्थी नहीं। दद्दू प्रसाद बसपा में मायावती के करीबी नेताओं में शुमार थे पर मायावती पर पैसे लेने का आरोप लगाते हुए वह पार्टी छोडक़र अपना राजनीतिक मोर्चा बना चुके हैं। दद्दू प्रसाद के मुताबिक यह गठबंधन को राज्यसभा चुनाव को ध्यान में रखकर बना है। यह तो मायावती जी

की प्रेस कांफ्रेंस से ही जाहिर हो रहा है। देखिए यह गठबंधन वक्त की जरुरत है। इसे होना भी चाहिए पर इसे खाद पानी तभी मिलेगा जब नेता समाज का हित देखें। खुद का नहीं। नेता स्वार्थी बने तो यह गठबंधन नहीं चल सकता है। नेता अगर समाज के प्रति समर्पित रहे तो यह गठबंधन चलेगा वरना अभी तो लगता है कि यह राज्यसभा को लेकर किया गया गठबंधन है। नेता लोकनायक हुआ तो यह गठबंधन सिर्फ लोकसभा नहीं 2022 के विधानसभा चुनाव तक भी चलेगा। वहीं मायावती के करीबी नसीमुद्दीन सिद्दीकी जो अब कांग्रेस में शामिल हो गये हैं, कहते हैं कि इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, कांग्रेस अपना उम्मीदवार मजबूती से लड़ा रही है।

हम उसी पर केंद्रित हैं। इसके अलावा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर ने तो इस गठबंधन को ही लालच का गठबंधन करार दिया है। इस गठबंधन की गांठे कितनी मजबूत हैं इसकी बानगी तो फूलपुर में ही देखने को मिलने लगी है। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे बाहुबली अतीक अहमद ने तो सरेआम यह ऐलान कराया है कि बसपा सपा को नहीं बल्कि उन्हें समर्थन दे रही है। हर छोटी से छोटी बात पर प्रेसनोट से लेकर प्रेस कांफ्रेंस तक करने वाली मायावती और उनकी पार्टी इस मुद्दे पर खामोश है।

बड़ी सियासत के बड़े सवाल

यूपी में सपाई से बसपाई हुए अंबिका चौधरी का मानना है कि सपा-बसपा को साथ आना होगा। दबी जुबान से मायावती के करीबी भी यह मान चुके हैं, पर बसपा में फैसला मायावती ही लेती हैं। ऐसे में कुछ न खोकर समर्थन देने का फैसला तो उन्होंने कर लिया पर सीटों के बंटवारे से लेकर गठबंधन की शक्ल पर कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि बिहार में भी गठबंधन तभी बना था जब लालू ने नीतीश को नेता और गठबंधन का चेहरा माना था। हालांकि राज्य के कारकों की वजह से यह गठबंधन भी नहीं चल सका और भाजपा ने अपनी तिकड़मबाजी से लालू को आखिरकार एक किनारे कर दिया। योगी के गढ़ में अखिलेश य़ादव की भीड़ यह तो बता रही है कि इस गठबंधन का असर जमीन पर दिख तो रहा है पर यह वोट में तब्दील हो तब ही बात बन सकेगी। इस गठबंंधन का असर तभी दिखेगा जब मायावती अपना वोट ट्रांसफर का चमत्कार दिखा सकेंगी। पर इसे तो परिणाम ही तय करेगा।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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