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विधानपरिषद से इस्तीफे: सपा की दरकती दीवार, अखिलेश की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थिति उस बाड़े की तरह हो गयी है जिसमें मुर्गियां बंद थीं और अब उसका गेट अचानक खुल गया हो।

tiwarishalini
Published on: 11 Aug 2017 11:12 AM GMT
विधानपरिषद से इस्तीफे: सपा की दरकती दीवार, अखिलेश की अग्नि परीक्षा
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अनुराग शुक्ला

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थिति उस बाड़े की तरह हो गयी है जिसमें मुर्गियां बंद थीं और अब उसका गेट अचानक खुल गया हो। अखिलेश यादव इस बाड़े के मालिक हैं तो उनकी हालत आसानी से समझी जा सकती है। प्रदेश में समाजवादी पार्टी विधानसभा में अपना संख्या बल गंवा चुकी है। विधानपरिषद में उसकी ताकत बरकरार है, पर 29 जुलाई के बाद से इसमें भी ऐसी सेंध लगी कि बहुमत के सैलाब का पानी लगातार रिसता जा रहा है। एक के बाद एक चार विधानपरिषद सदस्य परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके हैं। यशवंत सिंह ने इस्तीफा देने की शुरुआत की। फिर उसी दिन बुक्कल नवाब, दो दिन बाद सरोजनी अग्रवाल और 9 अगस्त को अशोक वाजपेयी ने इस्तीफा सौंप दिया।

इस्तीफा देने वाले विधायक मुलायम के करीबी

इन चारों इस्तीफों में कई समानताएं भी हैं। इस्तीफा देने वाले सभी विधायक मुलायम सिंह यादव के करीबी हैं। सभी ने पार्टी में उपेक्षा के आरोप लगाने के साथ ही यह आरोप भी लगाया कि वे पार्टी में नेताजी यानी मुलायम की उपेक्षा से नाराज हैं। अशोक वाजपेयी के मुताबिक जिस पार्टी में पार्टी के संस्थापक की इज्जत न हो उस पार्टी में मेरी क्या इज्जत होगी। जिसने पार्टी को खड़ा किया, उसकी ही उपेक्षा हो रही हैं। ऐसे में नेताजी की वजह से इस्तीफा दे दिया।

अशोक वाजपेयी

दरअसल, अशोक वाजपेयी को अब सपा के नए निजाम में किसी तरह की राहत नहीं दिख रही थी। उनके महत्व के दिन अब लदते दिख रहे थे। उन्हें पार्टी में कोई महत्व नहीं मिल रहा था। उनके गृहजनपद में सपा के कद्दावर नरेश अग्रवाल के रहने की वजह से उनकी अपने राजनीतिक घर में ही नहीं चल रही थी। इन दिनों नरेश अग्रवाल का कद बहुत ऊंचा है। अब उनकी विरासत उनके विधायक और अखिलेश सरकार में मंत्री रहे बेटे नितिन अग्रवाल ने संभाल ली है। नितिन का शुमार भी सपा की अगली पंक्ति की नेताओं में होने लगा हैं। इससे पहले सरोजनी अग्रवाल के इस्तीफे को भी मुलायम सिंह यादव के गुट की बगावत माना जा रहा है। सरोजनी अग्रवाल को मुलायम के बेहद करीबी आ$जम खान का करीबी माना जाता है।

राजा भइया की हो सकती है ताजपोशी

यशवंत सिंह को राजा भइया का करीबी माना जाता है और वह पहले भी भाजपा के करीबी रह चुके हैं। अब फिर से भाजपा में शामिल हो चुके हैं। कहा तो यह भी जाता है कि यशवंत के कहने पर ही राजा भैया ने मायावती सरकार से बगावत कर पार्टी को तोड़ दिया था। बीजेपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को समर्थन देकर उनकी सरकार बचाई थी। इसके बाद सपा ने यशवंत को पहली बार एमएलसी बनाया था।

फाइल फोटो : राजा भइया

सपा के समर्थकों और कार्यकर्ताओं ने उस समय इस फैसले का विरोध किया था, लेकिन सपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम ने सभी विरोधों को दरकिनार करते हुए यशवंत को एमएलसी बनाया था। राजा भैया इसकी मुख्य वजह थे। अब नेताजी की उपेक्षा और शिवपाल यादव को साइडलाइन किए जाने के बाद राजा भैया अखिलेश निजाम में सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं। माना जा रहा है कि डिप्टी एसपी जियाउल हक की प्रतापगढ़ में हुई हत्या के बाद से अखिलेश यादव के साथ राजा भैया सहज नहीं महसूस कर रहे थे और सिर्फ शिवपाल वह आखिरी सूत थे जिसने उन्हें सपा के साथ जोड़ रखा था। अब माना जा रहा है कि यशवंत का इस्तीफा सपा से संबंध टूटने की बानगी है। यह भी माना जा रहा है कि अब राजा भइया की एक बार फिर भाजपा की नई सरकार में ताजपोशी भी हो सकती है।

इस्तीफों के पीछे भाजपा का खेल

वहीं इन इस्तीफों का सीधा संबंध भाजपा से है। सपा से यशवंत व बुक्कल नवाब और बसपा से जयवीर सिंह ने भाजपा का दामन थाम भी लिया है। भाजपा को दरअसल पांच सीटें रिक्त चाहिए ताकि वह अपने मुख्यमंत्री, दोनों उपमुख्यमंत्रियों और दो मंत्री स्वतंत्र देव सिंह और मोहसिन रजा को विधायक बना सके। छह महीने की मियाद पूरी होने से पहले इन पांचों लोगों को किसी न किसी सदन का सदस्य बनना होगा। वहीं भाजपा नहीं चाहती कि जब पूरे देश में माहौल उसके अनुकूल चल रहा हो तो विपक्ष उत्तर प्रदेश में किसी भी सीट पर उपचुनाव के बहाने एकजुटता दिखा सके। यह तय माना जा रहा है कि अगर उपचुनाव होते हैं तो कम से कम सपा और कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़ेंगे और कोशिश यह भी की जाएगी कि बसपा भी विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारने को सहमत हो। ऐसे में साफ है कि यूपी का संदेश पूरे देश और लोकसभा 2019 को भी प्रभावित कर सकता है। वैसे भी अखिलेश ने मायावती को सदन में पहुंचाने में अपनी पार्टी की मदद की पेशकश उसी दिन कर दी थी जब उनकी पार्टी के दो सदस्यों ने इस्तीफा दिया था।

अखिलेश की अग्निपरीक्षा

वहीं अखिलेश ने इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक भ्रष्टाचार करार दिया है पर वह यह भी जान रहे होंगे कि यह मामला सिर्फ विधायकों के जाने का नहीं बल्कि उनके रसूख से जुड़ा है। यह बात और है कि ज्यादातर इस्तीफा देने वाले सदस्यों में मुलायम कैंप के लोग हैं पर पार्टी की विधानपरिषद में पतली होती हालत की जवाबदेही से वह बतौर अध्यक्ष बच नहीं सकते। वहीं अखिलेश यादव की आने वाले दिनों में परेशानी तब और बढ़ सकती है जब उनके ही कैंप के दो एमएलसी इस्तीफा दे सकते हैं। माना जा रहा है कि अगले हफ्ते यह दो इस्ती$फे हो सकते हैं। अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी पर तो कब्जा कर लिया पर एक के बाद एक विफलता और परिवार में बढ़ रहे तनाव से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है। दरअसल जिन पांच सीटों पर सपा के उम्मीदवार जीते हैं उनमें भी इस समय उथलपुथल है। ऐसे में आने वाले दिन अखिलेश यादव के लिए अग्निपरीक्षा से कम नहीं होंगे।

तकनीकी आधार पर दिया इस्तीफा : अंबिका चौधरी

बसपा ने भले ही अपने पत्ते नहीं खोले हैं पर उसके नेता अभी से विपक्षी एकता की बात करने लगे हैं। यह बात और है कि बसपा नेताओं के टूटने और छूटने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। 9 अगस्त को ही सपा के टिकट पर चुने जाने के बाद अब बसपा में आ चुके अंबिका चौधरी ने विधानपरिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

अंबिका चौधरी

यह बात और है कि अंबिका चौधरी ने newstrack.com/अपना भारत से एक्सक्लूसिव बातचीत में बताया कि मैं सपा के टिकट पर विधानपरिषद में चुना गया था। अब बसपा में हूं। इस वजह से इस्तीफा दे रहा हूं। मैं बसपा में हूं। मेरे इस्तीफे का कोई मतलब न लगाया जाय। मुझे इस्तीफा पहले ही देना था मगर परिस्थितियों की वजह से नहीं दे सका। मैं किसी तरह की दलबदल जैसी छोटी लड़ाइयों में नहीं पडऩा चाहता था। इस वजह से इस्तीफा दे दिया। मेरे इस्तीफे का अपने दल के प्रति निष्ठा से कोई संबंध नहीं है। मैने अपने नेतृत्व से बात कर ली है। ऐसे में यह बेहद तकनीकी आधार पर दिया गया इस्तीफा है।

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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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