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तीन तलाक की बहस: परिवार अदालतों में सबसे ज्यादा मामले मुस्लिमों के

अधिवक्ता फखरे आलम कहते हैं कि पारिवारिक अदालत में मुस्लिम समुदाय से जुड़े तलाक संबंधी मामले न के बराबर होते हैं। वजह यह है कि मुस्लिमों में आमतौर पर तलाक के मामले अदालत से बाहर ही निपटा दिए जाते हैं। एक-दो मामले ही ऐसे होते हैं जहां दोनों पक्ष अदालत की राह चुनते हैं।

zafar
Published on: 20 Oct 2016 8:36 AM GMT
तीन तलाक की बहस: परिवार अदालतों में सबसे ज्यादा मामले मुस्लिमों के
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लखनऊ: गोंडा जिले के परिवार न्यायालय में कुल 2674 मामले लंबित हैं। इसमें हिन्दू और मुस्लिम का अनुपात 60-40 का है। सर्वाधिक मामले गुजारा भत्ता के हैं जिसमें 50 फीसदी मुस्लिम महिलाओं से जुड़े हुए हैं। परिवार न्यायालय में हर माह औसतन 250 से 300 वाद दायर होते हैं। हर महीने औसतन दो या तीन मामलों में ही तलाक का आदेश हो पाता है। परिवार परामर्श केन्द्र में बीते आठ वर्षों में मुस्लिम महिलाओं से संबंधित तलाक के एक हजार से अधिक ऐसे मामले आए, जिसमें पति द्वारा फोन पर या मौखिक तलाक देने की बात कही गई। यहां पारिवारिक विवाद के जो मामले आते हैं उनमें 40 फीसदी मुस्लिम परिवारों से संबंधित होते हैं। इसमें बमुश्किल 20 फीसदी में ही पति-पत्नी में मिलन हो पाता है जबकि हिन्दू दंपत्तियों में यह अनुपात 60 फीसदी है।

रायबरेली में एक चौथाई मामले मुस्लिमों के:

परिवार अदालत में इस साल जनवरी से अब तक कुल 397 मामले आए हैं। इनमें करीब एक चौथाई मामले मुस्लिमों के हैं। बीते नौ महीने में मुस्लिमों से जुड़े कुल 107 मामले आए हैं। इनमें ज्यादातर मामले तलाक के हैं जो कि महिलाओं की तरफ से दायर किए गए हैं। कुछ मामले बीवी को गुजारा भत्ता दिए जाने के हैं। उदाहरण के तौर पर, जहरुन्निशा (पत्नी अनवर केसरिया सलेमपुर रायबरेली) का मामला 18 अक्टूबर को फैमिली कोर्ट में आया। इस महिला की शादी को सात साल हो गए हैं। उसका पति उसे मारता पीटता है। जहरुन्निशा के तीन बच्चे थे लेकिन तीनों खत्म हो गए। पति की मार से तंग आकर जहरुन्निशा ने तलाक की अर्जी दी है।

महोबा में तीस फीसदी मामले मुस्लिमों से जुड़े:

महोबा में पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र पर हर महीने घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीडऩ तथा संबंध विच्छेदन से जुड़े लगभग 50 मामले दर्ज किए जाते हैं। इनमें से 20 से 30 फीसदी मामले अल्पसंख्यकों के होते हैं। इस समुदाय के मामलों में अधिकांश पारिवारिक विवाद या घरेलू बंटवारे से जुड़े होते हैं। तलाक के मामले दस फीसद ही होते हैं।

मेरठ: में प्रतिमाह आते हैं करीब 150 मामले:

पारिवारिक अदालत में प्रतिमाह करीब 150 मामले आते हैं। इनमें तलाक के करीब 70, खर्चे के 60 और शेष अन्य उत्पीडऩ के मामले होते हैं। पारिवारिक मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता फखरे आलम कहते हैं कि पारिवारिक अदालत में मुस्लिम समुदाय से जुड़े तलाक संबंधी मामले न के बराबर होते हैं। वजह यह है कि मुस्लिमों में आमतौर पर तलाक के मामले अदालत से बाहर ही निपटा दिए जाते हैं। एक-दो मामले ही ऐसे होते हैं जहां दोनों पक्ष अदालत की राह चुनते हैं। आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में परिवार अदालत में 1704 मामले आए जिनमें 565 मामले तलाक के थे। 329 सहमति से तलाक और 820 मामले साथ रहने के थे।

आगरा में 1873 मुकदमे मुस्लिमों के:

आगरा की परिवार अदालत में 12,239 मुकदमे लंबित हैं। इनमें 1873 मुकदमे मुस्लिमों से जुड़े हुए हैं। इनमें 783 गुजारा भत्ता और 1090 ममाले तलाक के हैं। इनके अलावा परिवार परामर्श केन्द्र में मुस्लिम महिलाओं से जुड़े करीब 239 केस चल रहे हैं।

गोरखपुर में बदनसीबी झेल रही सैकड़ों महिलाएं:

बस्ती-गोरखपुर मंडल में तीन तलाक से पल भर में मजाक बनीं मुस्लिम महिलाओं की खासी तादाद है। सिद्धार्थनगर, महराजगंज, संतकबीर और कुशीनगर में सैकड़ों महिलाएं बदनसीबी झेल रही हैं। सिद्धार्थनगर की महदेवा निवासी तस्नीम को सऊदी अरब में रह रहे शिक्षक पति ने व्हाट्सएप से तलाक का संदेश भेजा था। तस्नीम आज तीन साल के दिव्यांग बेटे और सात माह की बिटिया के साथ अपने हक की जंग लड़ रही हैं। कुछ मुस्लिम प्रगतिशील महिलाएं इस मुद्दे पर मुखर हो रही हैं। ऐसी ही एक हैं पडरौना की सामाजिक कार्यकत्री फातिमा बेगम, जो तीन तलाक जैसी सामाजिक बुराई के प्रति महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वे कहती हैं कि मुस्लिम पुरुषों में चार विवाह और तीन तलाक जैसी कुरीति अब नहीं चलेगी। गोरखपुर में हिन्दू तलाक के 326 मुकदमे लंबित हैं लेकिन मुस्लिमों से जुड़ा एक भी मामला लंबित नहीं है।

कानपुर में पांच फीसदी मामले ही पहुंचते हैं कोर्ट तक:

कानपुर में परिवार अदालत में कुल 5143 मामले हैं। इनमें से 416 मुस्लिम समुदाय के हैं। असल में मुस्लिम समुदाय से जुड़े अधिकांश मामले न्यायालय तक नहीं पहुंचते हैं। क्योंकि मौलाना, पारिवारिक या रिश्तेदारों के स्तर पर आपस में समझौता कराया जाता है। आंकड़े बताते हैं कि मुश्किल से 2 से 5 प्रतिशत मामले ही कोर्ट तक पहुंचते हैं। परिवार अदालत में मुस्लिम समुदाय के अधिकतर मामले पारिवारिक प्रताडऩा और लड़ाई-झगड़ों के ही आते हैं। फिलहाल इस तरह के लगभग 217 मामले चल रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में तलाक के मामले आपसी बातचीत से हल करने का प्रयास किया जाता है। इसके बाद भी अदालत में तलाक के करीब 91 मामले चल रहे हैं।

फतेहपुर में सर्वाधिक मामले मुस्लिमों के:

फतेहपुर जिले की कुल आबादी लगभग 38 लाख है जिसमें मुस्लिम 16 प्रतिशत हैं लेकिन पारिवारिक न्यायालयों में चल रहे मामलो में सबसे ज्यादा संख्या मुस्लिम परिवारों की है। गुजारा भत्ता देने के आदेश के बावजूद पीडि़त महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं दिलाया जा पा रहा है। उदाहरण के तौर पर, पारिवारिक अदालत से दो वर्ष पूर्व आदेश होने के बाद भी शबा तस्कीम नाम की महिला अपने पति वहीदुल्ला खान से न तो एक पैसा गुजारा भत्ता पा सकी है और न ही प्रशासन अदालती आदेश के आधार पर 1.35 लाख रुपए की रिकवरी करा सका है। शबा तस्कीम की गरीबी और बेचारगी को देखते हुए अदालत के कर्मचारी ही चन्दा करके उसकी मदद कर रहे हैं।

‘‘मुस्लिम लॉ में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी’’

सरकार या न्यायालय समाज सुधार के बहाने मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव नहीं कर सकते हैं। हमारा देश आजाद है और यहां पर सभी धर्मों को मजहबी आजादी हासिल है। ऐसे में मुस्लिम लॉ में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

- मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी, मोहतमिम (वीसी), दारुल उलूम, देवबंद

‘‘इस ज्यादती का जवाब देना होगा’’

केंद्र सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लागू करना चाहती है जिसका यह पहला कदम है। सरकार अपने घोषणा पत्र की लाइन पर काम कर रही है। लेकिन आर्टिकल 25 में सभी को मौलिक अधिकार हैं। शादी, निकाह, तलाक, हलाला इसी में आता है। ऐसे में किसी पर भी कोई कानून थोपा नहीं जा सकता है। देश के प्रधानमन्त्री देश से ज्यादा विदेश में रहते हैं। विदेशों में भी उन्हें इस ज्यादती का जवाब देना होगा।

- जफरयाब जीलानी,

सदस्य आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, यूपी के एडीशनल एडवोकेट जनरल

(साथ में लखनऊ से शारिब जाफरी, आजमगढ़ से संदीप अस्थाना, आगरा से मानवेन्द्र मल्होत्रा, मेरठ से सुशील कुमार, कानपुर से सुमित शर्मा, गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव, गोंडा से टी.पी.सिंह व महोबा से इरफान)

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