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जानिए यूपी में कब से सियासी जातीय रैलियों की आई बाढ़ ?
राजकुमार उपाध्याय
लखनऊ। यदि यूपी में चुनाव हों और जाति-धर्म की बात न हो। यह दृश्य जरूर हैरान करने वाला होगा। देश की सियासत की धुरी मानी जाने वाली यूपी से प्राप्त जनादेश ही दलीय नेताओं को रातों-रात नायक बना देता है। चुनाव दर चुनाव यहां अलग-अलग समाज बन गए, जातियां भी तमाम उपजातियों के रूप में अलग-अलग दिखायी देती है। क्या आप जानते हैं कि असल में यूपी में सियासी रैलियों की बाढ़ आनी कब से शुरू हुई?
आपको मंडल-कमंडल यानि आरक्षण लागू होने के दौर के बाद अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद याद होगा। उसके बाद ही 20 जनवरी 1994 को राष्ट्रीय निषाद संघ की तरफ से राजधानी के बेगम हजरत महल पार्क में एक रैली आयोजित की गई थी। इसमें सपा-बसपा गठबंधन सरकार के सीएम मुलायम सिंह यादव मुख्य अतिथि थे। यह रैली प्रदेश के निषाद, कश्यप, बिंद समाज के लोगों को अनुसूचित जाति में शामिल करने को लेकर थी। पिछड़े वर्ग के लोग मत्स्य पालन और बालू, मौरंग खनन के अधिकार की मांग कर रहे थे।
निषाद संघ के लौटन राम निषाद कहते हैं, कि उस रैली में फूलन देवी की माँ मूल देवी व बड़ी बहन रुक्मिणी देवी भी मौजूद थी। वह लोग रैली में मौजूद जनता से फूलन देवी को रिहा कराने का निवेदन कर रही थी। ऐसे में जब मुलायम सिंह मंच पर आएं तो मौजूद भीड़ अपनी मूल मांगों को छोड़कर फूलन देवी को रिहा करो के नारे लगाने लगी। यह सुनकर मुलायम सिंह अवाक रह गएं। तब उन्होंने मंच से कहा कि फूलन देवी के सारे मुकदमे वापस लिए जाते हैं। सरकार के इस निर्णय के बाद 20 फरवरी को फूलन देवी को ग्वालियर जेल से रिहा कर दिया गया।
उनका कहना है कि यह रैली इतनी सफल रही कि उसके बाद ब्राहमण, क्षत्रिय, प्रजापति, राजभर, चौहान, कुशवाहा आदि जातियों की रैलियां लखनऊ में होनी शुरू हो गईं। जातियों के नाम पर रैलियों में जुटने वाली भीड़ सियासी दलों को भाने लगीं। फिर सपा—बसपा गठबंधन टूटने के बाद सियासी दलों ने अलग-अलग जातीय रैलियां करनी शुरू कर दी। बसपा ने उस समय की रैली के परिणाम को आधार बनाकर खूब जातीय रैलियां की। उन्हें उसके अच्छे परिणाम भी मिलें। भाजपा भी इसमें पीछे नहीं रही और जातीय रैलियों का यह सिलसिला अब तक जारी है।
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