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Punjab Politics: अकाली-बसपा गठजोड़ बना सबके लिए चुनौती, 25 साल पहले दिखाई थी ताकत

Punjab Politics: पंजाब की सियासत में दलित मतदाताओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है।

Anshuman Tiwari
Written By Anshuman TiwariPublished By Dharmendra Singh
Published on: 13 Jun 2021 11:30 AM GMT
25 years on, SAD, BSP join hands again
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मायावती और सुखबीर सिंह बादल (फाइल फोटो: सोशल मीडिया)

Punjab Politics: पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले सभी दलों ने अपने-अपने समीकरण दुरुस्त करने शुरू कर दिए हैं। केंद्र के नए कृषि कानूनों के मुद्दे पर अकाली-भाजपा गठजोड़ टूटने के बाद अभी तक कांग्रेस को सबसे मजबूत प्लेयर माना जा रहा था मगर अकाली दल ने बसपा के साथ हाथ मिलाकर सबके लिए खतरे की घंटी बजा दी है।

यह पहला मौका नहीं है जब पंजाब की सियासत में इन दोनों दलों ने हाथ मिलाया है। 25 साल पहले 1996 के लोकसभा चुनाव में भी अकाली दल और बसपा ने गठबंधन किया था और पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से 11 सीटों पर कब्जा कर लिया था। 1996 के बाद एक बार फिर दोनों दलों का हाथ मिलाना भाजपा, कांग्रेस और आप सभी सियासी दलों के लिए एक बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

किसानों के लिए मिलकर लड़ने का ऐलान

पंजाब में भाजपा से गठजोड़ टूटने के बाद अकाली दल की काफी दिनों से बसपा से गठबंधन के मुद्दे पर बातचीत चल रही थी। सिर्फ सीटों को लेकर पेंच फंसा हुआ था। हालांकि दोनों दलों के नेताओं ने सीटों का मुद्दा भी जल्द सुलझा लेने का दावा किया था। सीटों का पेंच सुलझ जाने के बाद शनिवार को दोनों दलों की ओर से गठबंधन का ऐलान कर दिया गया।
इस मौके पर अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल और बीएसपी के बड़े नेता सतीश मिश्रा भी मौजूद थे। दोनों दलों की ओर से किसानों, मजदूरों और गरीबों के मुद्दों पर मिलकर संघर्ष करने का ऐलान किया गया। दोनों नेताओं ने कहा कि अकाली दल और बसपा मिलकर विधानसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखाने के लिए तैयार हैं।

प्रेस कांफ्रेंस के दौरान सतीश मिश्रा, सुखबीर सिंह बादल व अन्य (फोटो: सोशल मीडिया)
पंजाब में दलित फैक्टर काफी अहम
पंजाब की सियासत में दलित मतदाताओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। राज्य में दलितों की आबादी करीब 32 फ़ीसदी है जो देश में सबसे ज्यादा है। अकाली दल की नजर इन दलित मतदाताओं पर है और इन्हें साधने के लिए ही पार्टी ने बसपा से हाथ मिलाया है।
पंजाब की सियासत में दलित मतदाताओं का वोट अभी तक किसी भी दल को एकमुश्त नहीं मिलता रहा है। राज्य का दलित वोट कांग्रेस, अकाली दल और बसपा के बीच बंटता रहा है। आम आदमी पार्टी भी इस वोट बैंक को साधने की कोशिश करती रही है।
अब अकाली दल ने बसपा के साथ हाथ मिलाकर इस वोट बैंक के अधिकांश हिस्से पर कब्जा करने की रणनीति बनाई है। यही कारण है कि इस गठजोड़ को राज्य में अन्य दलों के लिए बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

पहले भी दोनों दल दिखा चुके हैं ताकत

अकाली दल और बसपा मिलकर पहले भी अपनी ताकत दिखा चुके हैं। 1996 के लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच गठबंधन हुआ था। उस समय बसपा की कमान काशीराम के हाथों में थी और मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थी। उस चुनाव में अकाली-भाजपा गठजोड़ ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को चौंका दिया था।
राज्य में लोकसभा की 13 सीटें हैं और उस चुनाव में अकाली दल ने 8 और बसपा ने 3 सीटें मिलाकर 11 सीटों पर कब्जा कर लिया था। बाद के चुनावों में अकाली दल और बसपा का यह गठजोड़ टूट गया और अकाली दल ने भाजपा के साथ हाथ मिला लिया। नए कृषि कानूनों पर असहमति के बाद अकाली दल ने पिछले साल भाजपा के साथ गठजोड़ तोड़ लिया था और अब 25 साल बाद अकाली दल और बसपा एक बार फिर मिलकर चुनाव लड़ेंगे। अकाली दल बसपा गठजोड़ होने के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों दल और नए सिरे से रणनीति तैयार करने में जुट गए हैं।

सीट शेयरिंग का मुद्दा भी सुलझा

अकाली दल और बसपा के बीच सीट शेयरिंग का फार्मूला भी तय हो गया है। अकाली दल ने बसपा के लिए 20 सीटें छोड़ने का ऐलान किया है। राज्य में विधानसभा की 117 सीटें हैं। इस तरह 97 सीटों पर अकाली दल और बाकी बची 20 सीटों पर बसपा प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमाएंगे। बसपा को माझा में 5, दोआबा में 8 और मालवा इलाके में 7 सीटें दी गई हैं। अकाली दल को बसपा के लिए सीटें छोड़ने में कोई दिक्कत इसलिए नहीं हुई क्योंकि पहले भी पार्टी भाजपा के लिए एक 23 सीटें छोड़ा करती थी।

एक कार्यक्रम के दौरान मायावती (फोटो: न्यूजट्रैक)
मायावती ने बताया ऐतिहासिक कदम

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अकाली दल के साथ गठजोड़ को राजनीतिक और सामाजिक पहल का ऐतिहासिक कदम बताया है। अकाली दल के साथ गठजोड़ होने के बाद मायावती ने लगातार तीन ट्वीट किए और कहा कि दोनों दलों का गठजोड़ राज्य में जनता के बहुप्रतीक्षित विकास, प्रगति व खुशहाली के नए युग की शुरुआत करेगा।
अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने इसे पंजाब की राजनीति का नया सवेरा बताया। गठजोड़ के ऐलान के बाद अकाली दल के संरक्षक प्रकाश सिंह बादल ने मायावती से फोन पर बातचीत करके उन्हें जल्द से जल्द पंजाब बुलाने की बात कही है।
भाजपा का दलित सीएम का दांव
पंजाब की सियासत में दलित मतदाताओं का फैक्टर इतना अहम हो गया है कि अब दलित सीएम और डिप्टी सीएम का मुद्दा भी गरमा गया है। अकाली दल की ओर से सत्ता में आने पर दलित डिप्टी सीएम का दांव खेला गया है तो भाजपा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए चुनाव जीतने की स्थिति में दलित समुदाय के नेता को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कर डाला है।
भाजपा की ओर से की गई इस घोषणा को दलित मतदाताओं को रिझाने की बड़ी कोशिश माना जा रहा है। सियासी जानकारों के अनुसार कांग्रेस की ओर से भी अब दलित डिप्टी सीएम का दांव चला जा सकता है। आम आदमी पार्टी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं मगर वह भी दलितों को रिझाने की कोशिश में जुट गई है।

आंतरिक कलह से जूझ रही है कांग्रेस

कांग्रेस के लिए भी पंजाब के विधानसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं। पंजाब अब उन गिने-चुने राज्यों में रह गया है जहां कांग्रेस की अपनी सरकार है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब का मजबूत नेता माना जाता है मगर पंजाब कांग्रेस में चल रहे झगड़े की वजह से पार्टी की चुनावी संभावनाओं को लेकर शंकाएं भी जताई जा रही हैं।
पार्टी के झगड़े को शांत करने के लिए बनाई गई सुलह कमेटी की रिपोर्ट पर अब पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को फैसला लेना है। अब देखने वाली बात यह होगी कि सोनिया ऐसा कौन सा फार्मूला निकालती हैं जिससे कैप्टन अमरिंदर सिंह और असंतुष्ट नेता नवजोत सिंह सिद्धू दोनों को संतुष्ट किया जा सके। वैसे अकाली दल की राय देखी जाए तो सुखबीर सिंह बादल का मानना है कि आंतरिक झगड़ों की वजह से कांग्रेस इस बार चुनाव में पिछड़ जाएगी।










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