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राहुल गांधी का लोकतंत्र
थोड़ा अटपटा लग सकता है। राहुल का लोकतंत्र क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र तो देश का होना चाहिए। देश का ही लोकतंत्र होता है। परन्तु इस सच्चाई से भी आंख नहीं चुराया जा सकता है कि हर आदमी के कामकाज और फैसला लेने के तौर तरीके बेहद अलग-अलग होते हैं। इतने अलहदा होते हैं कि उनमें अंतर साफ तौर पर पढ़ा जा सकता है। यही अंतर लोकतंत्र के अलग-अलग व्यक्ति के अलग-अलग तौर तरीकों में अपने ढंग से मुखरित होता है। पढ़ा जा सकता है। इन दिनों नरेन्द्र मोदी के लोकतंत्र और राहुल गांधी के लोकतंत्र का अंतर सबके लिए आसान समझ की बात है। इससे पहले भी जो हमारे देश में राजनेता रहे हैं। उनके भी कामकाज में उनका लोकतंत्र दिखता रहा है। पढ़ा गया है। कई बार यही लोकतंत्र अधिनायकवादी हो जाता है।
हाल के पांच राज्यों के चुनावी नतीजों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों ने जो जनादेश दिया है, उसमें लोकतंत्र का जो पाठ निहित है, वह यह बताता है कि वायदों और लोकलुभावन नारों से हासिल सत्ता को बनाये रखने के लिए काम की भी जरूरत है। नाम से सिर्फ काम चलने वाला नहीं। रोज-रोटी के सवाल धर्म और आस्था से बड़े हैंं। कांग्रेस मुक्त भारत का भाजपाई नारा अपनी चमक खोने लगा है। और तो और जब इन राज्यां के नतीजों के बाद प्रेस कांफ्रेस में राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में यह कहा कि उनका और उनकी पार्टी का कोई इरादा किसी से मुक्त भारत का नहीं है। वह भाजपामुक्त भारत के सवाल का जवाब दे रहे थे। राहुल ने किसान, नौजवान और आर्थिक मुददों के आसपास चुनाव को केन्द्रित रखा। उनकी इस सफलता ने भाजपा का यह भ्रम तोड़ा कि देश में सत्तारूढ़ दल का कोई विकल्प नहीं है। राहुल गांधी पप्पू नहीं हैं। उन्हांने संसदीय जनतंत्र में नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में ‘स्पेस’बनाना शुरू कर दिया है क्योंकि केवल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान ही नहीं, कर्नाटक, पंजाब और गुजरात में भी राहुल कांग्रेस को मजबूती से खड़ा करके दिखा चुके हैं। उन्होंने बीते दस सालों, उपहास, आलोचना, ट्रोलिंग जैसे अपमान झेले। नामदार, शाहजादा, पप्पू से नवाजे गये।
स्टार प्रचारक होने के बावजूद विधानसभा चुनाव में लगातार पराजय का सेहरा उनके सिर बंधता गया । वह आत्मनिर्भर, ईमानदार, चतुर, परिश्रमी, मीडिया और उद्योग जगत के प्रिय तथा विपक्ष को विस्मृत कर देने वाले आभामंडल से युक्त नेता नरेन्द्र मोदी के सामने दस साल तक चलते, लड़खड़ाते खड़े होते रहे। शूट-बूट की सरकार, चौकीदार चोर, सरीखे राहुल के बयान हिन्दुत्व और विकास की बैसाखी पर सवार होकर देश के राजनीतिक फार्मूले को बदलने वाले नरेन्द्र मोदी के समर्थकों को बेहद चुभते रहे। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप से लदी हुई कांग्रेस ने अपनी जीत के लिए उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल किया। जिन पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी गुजरात से दिल्ली पहुंच गये थे। भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी। राहुल ने सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह पकड़ी। बद्रीनाथ बनाम कैलाश मानसरोवर की दीवार खड़ी की। गोत्र विवाद हल किया। हर दौरे में किसी न किसी स्थापित मंदिर गये। यज्ञोपवीत धारण किया। अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून में संशोधन के नाते नाराज सर्वर्णों को खामोशी से कांग्रेस की ओर करने में कामयाबी पाई। हालांकि अंदरखाने मध्यप्रदेश में भाजपा द्वारा सपाक्स और राजस्थान में बेनवाल की मदद में भी राहुल को ही लाभ हुआ। चुनाव के दौरान भगवान हनुमान के दलित कहे जाने और रामजन्म भूमि के मुददे को सामने लाने का भी जवाब कांग्रेस ने इतने खूबसूरत ढ़ग से दिया कि लोगों को याद हो उठा कि यह वही कांग्रेस है जिसने रामलला की मूर्तियां रखवाई, ताला खुलवाया और शिलान्यास करवाया। अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया कि मंदिर भी हम ही बनवायेंगे। भाजपा सिर्फ इस पर सियासत करेगी।
यह सब तो जनता ने राहुल गांधी के लोकतंत्र के लिए किया। लेकिन जिस तरह मुख्यमंत्रियों के चयन में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दिग्गज नेताओं के समर्थक सड़क पर उतरे और दो-दो हाथ किया तथा सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा। उससे राहुल के लोकतंत्र की भद हुई। मध्यप्रदेश में जब पार्टी के पास संसाधन नहीं थे तब पार्टी ने कमलनाथ के आगे घुटने टेके और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान के साथ-साथ मुख्यमंत्री बनाये जाने का आश्वासन दिया था। फिर भी रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम उछलकर सामने आया। राहुल को टॉलस्टाय के कोट के साथ सिंधिया और कमलनाथ की फोटो ट्वीट करनी पड़ी। राजस्थान में सचिन पालयट के लोगों ने राहुल के लोकतंत्र को पलीता लगाया। सचिन को समझाने के लिए उनकी मां रमा पायलट की मदद लेनी पड़ी और सिंधिया के लिए सोनिया और प्रियंका को उतरना पड़ा। तीनों राज्यों के दावेदार सड़को पर उतरे। कई जगह आमने-सामने आये, पोस्टरबाजी हुई। वह भी तब जब राहुल गांधी ने ऑडियो संदेश के माध्यम से तीनों राज्यों के 7.3 लाख पार्टी कार्यकर्ताआें से मुख्यमंत्री के नाम पूछने की लोकतांत्रिक शुरूआत। छत्तीगढ़ में जिस भूपेश बघेल ने पार्टी को खड़ा किया। रमन सिंह के खिलाफ पांच साल लड़े। उनके प्रशिक्षण शिविर को देखने खुद राहुल गांधी गये। वहां भी रेस में कई लोग थे। कमलनाथ और अशोक गहलोत ऐसे लीडर हैं जो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी के साथ काम कर रहे हैं। दोनों केन्द्र में मंत्री रहे हैं। गहलोत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री और पांच बार लोकसभा सदस्य रहे हैं। कमलनाथ भी नौ बार सांसद रहे हैं। इसके बावजूद रेस में सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया का होना गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राजनीति अनंत महात्वाकांक्षाओं के कभी भी पूरे हो जाने का मुकाम होता है। लेकिन जिस तरह इनके समर्थक एक-दूसरे के सामने आये। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मे मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नेताओं ने जो कुछ किया। वह यह बताता है कि जनता ने भले ही राहुल गांधी का लोकतंत्र स्वीकार कर लिया हो पर उनकी पार्टी उनके लोकतंत्र को कुबूल करने को तैयार नहीं है। राहुल की अगली परीक्षा अपनी पार्टी के अंदर एक ऐसे लोकतंत्र की स्थापना की है। जिसमें सड़क पर कुछ न हो। जनता, कार्यकर्ता और राहुल गांधी की राय इस कदर एकाकार होकर दिखे कि लगे राहुल का लोकतंत्र यहां भी जिंदा है।
हाल के पांच राज्यों के चुनावी नतीजों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों ने जो जनादेश दिया है, उसमें लोकतंत्र का जो पाठ निहित है, वह यह बताता है कि वायदों और लोकलुभावन नारों से हासिल सत्ता को बनाये रखने के लिए काम की भी जरूरत है। नाम से सिर्फ काम चलने वाला नहीं। रोज-रोटी के सवाल धर्म और आस्था से बड़े हैंं। कांग्रेस मुक्त भारत का भाजपाई नारा अपनी चमक खोने लगा है। और तो और जब इन राज्यां के नतीजों के बाद प्रेस कांफ्रेस में राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में यह कहा कि उनका और उनकी पार्टी का कोई इरादा किसी से मुक्त भारत का नहीं है। वह भाजपामुक्त भारत के सवाल का जवाब दे रहे थे। राहुल ने किसान, नौजवान और आर्थिक मुददों के आसपास चुनाव को केन्द्रित रखा। उनकी इस सफलता ने भाजपा का यह भ्रम तोड़ा कि देश में सत्तारूढ़ दल का कोई विकल्प नहीं है। राहुल गांधी पप्पू नहीं हैं। उन्हांने संसदीय जनतंत्र में नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में ‘स्पेस’बनाना शुरू कर दिया है क्योंकि केवल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान ही नहीं, कर्नाटक, पंजाब और गुजरात में भी राहुल कांग्रेस को मजबूती से खड़ा करके दिखा चुके हैं। उन्होंने बीते दस सालों, उपहास, आलोचना, ट्रोलिंग जैसे अपमान झेले। नामदार, शाहजादा, पप्पू से नवाजे गये।
स्टार प्रचारक होने के बावजूद विधानसभा चुनाव में लगातार पराजय का सेहरा उनके सिर बंधता गया । वह आत्मनिर्भर, ईमानदार, चतुर, परिश्रमी, मीडिया और उद्योग जगत के प्रिय तथा विपक्ष को विस्मृत कर देने वाले आभामंडल से युक्त नेता नरेन्द्र मोदी के सामने दस साल तक चलते, लड़खड़ाते खड़े होते रहे। शूट-बूट की सरकार, चौकीदार चोर, सरीखे राहुल के बयान हिन्दुत्व और विकास की बैसाखी पर सवार होकर देश के राजनीतिक फार्मूले को बदलने वाले नरेन्द्र मोदी के समर्थकों को बेहद चुभते रहे। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप से लदी हुई कांग्रेस ने अपनी जीत के लिए उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल किया। जिन पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी गुजरात से दिल्ली पहुंच गये थे। भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी। राहुल ने सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह पकड़ी। बद्रीनाथ बनाम कैलाश मानसरोवर की दीवार खड़ी की। गोत्र विवाद हल किया। हर दौरे में किसी न किसी स्थापित मंदिर गये। यज्ञोपवीत धारण किया। अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून में संशोधन के नाते नाराज सर्वर्णों को खामोशी से कांग्रेस की ओर करने में कामयाबी पाई। हालांकि अंदरखाने मध्यप्रदेश में भाजपा द्वारा सपाक्स और राजस्थान में बेनवाल की मदद में भी राहुल को ही लाभ हुआ। चुनाव के दौरान भगवान हनुमान के दलित कहे जाने और रामजन्म भूमि के मुददे को सामने लाने का भी जवाब कांग्रेस ने इतने खूबसूरत ढ़ग से दिया कि लोगों को याद हो उठा कि यह वही कांग्रेस है जिसने रामलला की मूर्तियां रखवाई, ताला खुलवाया और शिलान्यास करवाया। अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया कि मंदिर भी हम ही बनवायेंगे। भाजपा सिर्फ इस पर सियासत करेगी।
यह सब तो जनता ने राहुल गांधी के लोकतंत्र के लिए किया। लेकिन जिस तरह मुख्यमंत्रियों के चयन में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दिग्गज नेताओं के समर्थक सड़क पर उतरे और दो-दो हाथ किया तथा सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा। उससे राहुल के लोकतंत्र की भद हुई। मध्यप्रदेश में जब पार्टी के पास संसाधन नहीं थे तब पार्टी ने कमलनाथ के आगे घुटने टेके और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान के साथ-साथ मुख्यमंत्री बनाये जाने का आश्वासन दिया था। फिर भी रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम उछलकर सामने आया। राहुल को टॉलस्टाय के कोट के साथ सिंधिया और कमलनाथ की फोटो ट्वीट करनी पड़ी। राजस्थान में सचिन पालयट के लोगों ने राहुल के लोकतंत्र को पलीता लगाया। सचिन को समझाने के लिए उनकी मां रमा पायलट की मदद लेनी पड़ी और सिंधिया के लिए सोनिया और प्रियंका को उतरना पड़ा। तीनों राज्यों के दावेदार सड़को पर उतरे। कई जगह आमने-सामने आये, पोस्टरबाजी हुई। वह भी तब जब राहुल गांधी ने ऑडियो संदेश के माध्यम से तीनों राज्यों के 7.3 लाख पार्टी कार्यकर्ताआें से मुख्यमंत्री के नाम पूछने की लोकतांत्रिक शुरूआत। छत्तीगढ़ में जिस भूपेश बघेल ने पार्टी को खड़ा किया। रमन सिंह के खिलाफ पांच साल लड़े। उनके प्रशिक्षण शिविर को देखने खुद राहुल गांधी गये। वहां भी रेस में कई लोग थे। कमलनाथ और अशोक गहलोत ऐसे लीडर हैं जो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी के साथ काम कर रहे हैं। दोनों केन्द्र में मंत्री रहे हैं। गहलोत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री और पांच बार लोकसभा सदस्य रहे हैं। कमलनाथ भी नौ बार सांसद रहे हैं। इसके बावजूद रेस में सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया का होना गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राजनीति अनंत महात्वाकांक्षाओं के कभी भी पूरे हो जाने का मुकाम होता है। लेकिन जिस तरह इनके समर्थक एक-दूसरे के सामने आये। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मे मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नेताओं ने जो कुछ किया। वह यह बताता है कि जनता ने भले ही राहुल गांधी का लोकतंत्र स्वीकार कर लिया हो पर उनकी पार्टी उनके लोकतंत्र को कुबूल करने को तैयार नहीं है। राहुल की अगली परीक्षा अपनी पार्टी के अंदर एक ऐसे लोकतंत्र की स्थापना की है। जिसमें सड़क पर कुछ न हो। जनता, कार्यकर्ता और राहुल गांधी की राय इस कदर एकाकार होकर दिखे कि लगे राहुल का लोकतंत्र यहां भी जिंदा है।
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