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’छन्न पकाइयां, छन्न पकाइयां, छन्न के ऊपर खाजा, सास मेरी राज रानी, ससुर मेरा राजा’
जैसे छंद, चुहलबाजी, हंसी ठिठौली और शोर वाली, रिश्तों में मिठास घोलती शादियां होतीं है अब भी। हमारे देश में शादी-ब्याह भी कई हजार करोड़ रुपए का कारोबार बन चुका है।
जैसे छंद, चुहलबाजी, हंसी ठिठौली और शोर वाली, रिश्तों में मिठास घोलती शादियां होतीं है अब भी। हमारे देश में शादी-ब्याह भी कई हजार करोड़ रुपए का कारोबार बन चुका है क्योंकि नवंबर से लेकर फरवरी तक चलने वाले इस विवाह सीजन में 38 लाख शादियां जो होने वाली हैं। हम लोग सेलिब्रिटीज की शादियों में बहुत दिलचस्पी रखते हैं क्योंकि आदतन हम उनके रहन-सहन और जीवन शैली को आदर्श मानते हुए उसमें ताक-झांक करने से खुद को कहां रोक पाते हैं। इसी सप्ताह पारंपरिक मैतेई रिवाजों से संपन्न हुई बॉलीवुड एक्टर रणदीप हुड्डा और उनकी मैतेई दुल्हन लिन लैशराम की शादी खूब चर्चा का विषय रही।
आजकल कवायद इस बात की है कि किस तरह से अपनी शादी को चमकदार कर, दूसरों की शादियों को फीका कर खुद को अधिक चर्चित बनाया जाए। जिसके कारण लोग भी और सेलेब्रिटीज भी अपनी शादी का स्पेशल और अधिक स्पेशल ट्रीटमेंट करवाना चाहते हैं, इसलिए भारत भर में डेस्टिनेशन वेडिंग और मंहगी शादियों का ट्रेंड चल रहा है। पिछले सप्ताह ही प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि अब लोग भारतीय पारंपरिक तरीकों से शादी विदेश में जाकर कर रहे हैं, जिससे हमारी आमदनी बाहर जा रही है और लोकल फॉर वोकल के स्वर को भी हम इग्नोर कर दे रहे हैं । आर्थिक संस्थानों और मीडिया ने भी इस बार के वैवाहिक सीजन को सबसे अधिक खर्चीला बताया है। यह हो भी क्यों न, एक बार जब शादी की तारीख तय हो जाती है, तब मेहंदी, पार्लर, वेन्यू, मैन्यू, इवेंट प्लानर्स, पंडित, वरमाला, डेकोरेशन, फोटोग्राफर, कोरियोग्राफर आदि आदि की एक बड़ी लंबी सी लिस्ट शुरू हो जाती है। तो तयशुदा बात यह है कि इससे जुड़े हर व्यक्ति को प्रत्येक शादी से कमाई होती है, तो इससे अर्थतंत्र भी मजबूत होता है। पर प्रेम तंत्र तो पंचतंत्र की कहानियों की भांति न तो सुनाया, समझाया या सिखाया जा सकता है जो कि किसी भी वैवाहिक संबंध का आधार होता है।
आप शादी पर कितना ताम-झाम कर रहे हैं वह भी दूल्हा- दुल्हन की वैवाहिक नींव की मजबूती को तय नहीं करता बल्कि उनका पारस्परिक तारतम्य ही यह तय करता है। लड़कों और लड़कियों दोनों को थोड़ा गंभीर होना ही पड़ेगा अपनी रिश्तों को लेकर, उनको निभाने के लिए। आधुनिक सभ्यता ने हमारी संस्कृति और मूल्यों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। शादी-ब्याह भी अब पूरी तरह से एक सोशल इवेंट में तब्दील हो चुके हैं, जिस पर बाजारवाद हावी है। अब शादी-ब्याह में शामिल नहीं हुआ जाता बल्कि उन्हें अटेंड किया जाता है। बाजारवाद के हिमायती क्यों कर सीधी -सादी शादी की वकालत करेंगे। वह तो अपने स्वार्थ के लिए हमारी संस्कृति , हमारे मूल्यों की आड़ लेकर उन्हें ही खत्म कर देने पर आमदा है और हम स्वयं भी उनके हाथों की कठपुतली बने हुए हैं क्योंकि हम भले ही आदर्श की बातें करें, सिद्धांतों की बातें करें, मूल्यों की बातें करें लेकिन हम सभी के अंतर्मन में सुविधाओं को लेकर, दिखावे वाली संस्कृति को लेकर आधुनिक आडंबरों को लेकर, चकाचौंध को लेकर ,सेलिब्रिटी टाइप शादियों को लेकर एक अलग ही आकर्षण होता है, जिसके लिए शादी -ब्याह या सामाजिक प्रदर्शन वाले मौकों पर अपने मूल्यों और सिद्धांतों को छोड़ देने से भी परहेज नहीं करते हैं।
भारतीय शादियां दिन पर दिन महंगी और महंगी लेकिन कम टिकाऊ होती जा रही हैं। हम अपने से पहले वाली पीढ़ियों के विवाह के स्वर्ण वर्ष और कहीं-कहीं हीरक वर्ष में भी मना रहे हैं। हमारी पीढ़ी अपने रजत वर्ष में प्रवेश कर रही है पर अब बाद की पीढ़ी का क्या होगा ? शादियों के महंगे आयोजनों से सिर्फ और सिर्फ बाजार को ही फायदा होता है, समाज को नहीं । इन शादियों का जल्दी-जल्दी विघटन सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था की जड़ों को बहुत ही अधिक चोट पहुंचाता है। अब लड़का चॉकलेटी लवर बॉय नहीं रहा और न हीं लड़कियां चुहल भारी शर्मीली। दाढ़ी और बड़े बाल नया लुक है लड़कों का तो बोल्ड एंड ब्यूटीफुल लड़कियों का।
शादियां अरेंज मैरिज हो या लव मैरिज, बुराई दोनों में ही नहीं होती है। बुराई तब शुरू होती है जब उस रिश्ते में तारतम्यता न हो, धैर्य खत्म हो जाए, सम्मान खत्म हो जाए, सुख-दुख में साथ निभाने के वादे ही खत्म हो जाएं। एक वैवाहिक रिश्ते में दोनों की एक दूसरे पर डिपेंडेंसी हुआ करती थी लेकिन जैसे-जैसे लड़कियां आर्थिक और सामाजिक रूप से स्वतंत्र होती जा रही हैं ,सशक्त होती जा रही है वैसे ही वह भली स्त्री से स्मार्ट स्त्री बनती जा रही हैं, ऐसे में टूटे पारिवारिक संबंध तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। हमारे पास में हर क्षेत्र में रोल मॉडल मिलेंगे, चाहे विज्ञान का क्षेत्र हो ,राजनीति हो, फैशन हो, खेल हो, शिक्षा हो कुछ भी हो लेकिन पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में कौन रोल मॉडल है, जिसे हम स्वीकार करते हैं ।
हमारे यहां शादी -ब्याह भले ही नए तरीकों से, खूब चकाचौंध में संपन्न होने लगे हैं पर शादी के बाद की स्क्रिप्ट अधिकांशतः वही पुरानी ही होती है ,जहां पात्र बदलते जाते हैं, जगह बदलती जाती है लेकिन उस पुरानी स्क्रिप्ट में अब कोई भी नई भूमिका निभाने को तैयार नहीं होता है। रिश्तों का यह वैवाहिक गठबंधन भले ही कितने महंगे कपड़े से गांठा जाए उसमें जब तक एक दूसरे के प्रति विश्वास, सुरक्षा का भाव , मजबूत साथ और सम्मान नहीं होगा तो हर समय गठबंधन की गांठ ढीली पड़ने की, टूटने की आशंका और डर दिखाई देता ही रहेगा। मेहंदी और हल्दी के रंग भले ही पहले से अधिक गहरे चढ़ते हैं पर अब मेहंदी का गहरा रचना पति के प्यार का पैमाना नहीं होता।
हल्दी की रस्म में भले ही पार्लर की कई महीनों की मशक्कत और खर्चों पर सुनहरी दमकती काया दिखावा कर रही होती है लेकिन वह भी इसको आजीवन टिकाए रखने की गारंटी नहीं देती। पहले शादी - ब्याह में बहुत से मीठे -खट्टे किस्से बना करते थे ,कई प्यार परवान चढ़ा करते थे जो कि आगे एक और विवाह की नींव हुआ करते थे। पर आज डीजे पर थिरकने के बाद और भारी भरकम मेन्यू के बीच, फोटोग्राफरों के विभिन्न पोस की पिक्चराइजेशन के बीच अब यह प्रश्न हवा में तैरने लगा है कि क्या लड़कियों को ज्यादा पढा़ना या आर्थिक निर्भर बनाना ही वैवाहिक संबंधों में बढ़ती दरार का कारण है। इस कारण पर आप सभी विचार कीजिएगा । अगर हां, तो इसको कैसे संभाला जाए और अगर न तो वैवाहिक संबंधों में बढ़ती दरार का कारण क्या है?
वर्ष का आखिरी महीना अलसाया दिसंबर शुरू हो चुका है और यह एक बेहतर समय है कि पिछले पूरे साल में हमने क्या खोया ,क्या पाया, उस पर हम अभी से विचार करना शुरू कर दें, जिससे आगे वाले साल में हमें क्या करना है वह निकाला जा सके। इस गुलाबी ठंड में और विवाह के इस सीजन में खूब खुशियां मनाइएं।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं। )