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संसाधन सुविधा हैं या समस्या

Dr. Yogesh mishr
Published on: 2 April 2018 3:42 PM IST

संसाधन सुविधा हैं या समस्या। यह बहस पुरातन काल से अर्वाचीन तक निररंतर जारी है। कोई ठोस अंतिम निष्कर्ष नहीं निकल पाता है। पक्ष-विपक्ष निरंतर बना है। संसाधन को लेकर कभी कोई बहस निष्कर्ष के किसी अंतिम छोर पर नहीं पहुंची है। संसाधनों को लेकर कोई निष्कर्ष बिना आत्मघटित नहीं मिलता है। आप यह नहीं कह सकते हैं कि आत्म अनुभव आपको संसाधनों के उपयोग के बारे में सुविधा या समस्या के किसी छोर पर पहुंचा दे।
प्रगति के अति उत्तर आधुनिक काल में हालांकि इस प्रश्न की अनिवार्यता बढ़ गई है। क्योंकि नतीजे भी आने लगे हैं। संसाधन अपनी महत्तम मात्रा में, संख्या में इस्तेमाल भी होने लगे हैं। कम से कम भारत में तो ऐसा ही होता है कि हम संसाधनों के उपयोग से ऊपर उठ जाते हैं। महत्तम उपयोग करने लगते हैं। यह हमारी विकासशील परिवेश की मानसिकता भी है। आदमी अपने संसाधनों में इजाफा गणीतिय संख्या के मुताबिक नहीं चाहता है। उसका अभीष्ट होता है कि उसके पास, उसके आसपास संसाधन बेशुमार और बिना किसी क्रम के हों। यही वजह है कि हमें जब भी कुछ हाथ लगता है तो हम उसका इतना उपयोग करते हैं कि वह संसाधन हमारे लिए समस्या बन जाता है। बहस फिर वहीं आकर रुकती है कि संसाधन वरदान भी है और समस्या भी! निष्कर्ष-निष्पति उसके उपभोग के तौर-तरीकों पर निर्भर करती है।
ब्रिटेन में स्मार्ट फोन का उपयोग हद की वह सीमा लांघ गया कि इन दिनों वहां पैदा होने वाले बच्चों की ऊंगलियों में इतनी भी ताकत नहीं है कि वे खाने के लिए अपना चम्मच उठा सकें। यह स्थिति तब है जब पश्चिम तकनीकी के, संसाधन के, हाथ लगते ही उसके नुकसान के बारे में भी जागरूक रहता है। हम लोग नुकसान तो एक-दो पीढ़ियों बाद या फिर आत्मघटित के साथ ही जान पाते है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले महीने कहा है कि वीडियो गेम और दुनिया में बढ़ रही हिंसा आपस में जुड़े हुए हैं। उन्होंने इंटरटेनमेंट साफ्टवेयर एसोसिएशन की बैठक में शोध रिपोर्टों का हवाला देते हुए यह बात कही। हालांकि फिर वहां भी संसाधन सुविधा या समस्या की बहस दोहराई गई। वीडियो गेम बनाने वाले विशेषज्ञों ने दूसरा पक्ष चुनते हुए यह कह दिया कि वर्चुअल हिंसा से दुनिया में हिंसा नहीं बढ़ती। अमेरिका में बंदूक संबंधित हिंसा से हर साल तीन हजार लोग मारे जाते हैं। अमेरिका के चार बड़े विश्वविद्यालयों ने यह निष्कर्ष जुटाया है कि क्लास रूम या बैठकों में मोबाइल, टैबलेट और लैपटाप पर नोट करने की जगह पेन और कागज का इस्तेमाल ज्यादा मुफीद है। लास एंजिल्स स्थित यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी, यार्क यूनिवर्सिटी और मैकमास्टर यूनिवर्सिटी ने इस तरह के कई प्रयोग किए। इन प्रयोगों में उसे यह निष्कर्ष हाथ लगा कि जिन छात्रों ने लैपटाप, टैबलेट अथवा मोबाइल का इस्तेमाल किया उनकी समझ कागज और पेन इस्तेमाल करने वाले छात्रों की तुलना में खराब थी।
विकसित हो रहे दिमाग पर तकनीकी के ओवर एक्सपोजर से सीखने की क्षमता में बदलाव, ध्यान न लगना, हाईपर एक्टिव होना तथा खुद को अनुशासित व नियमित न रख पाने की समस्याएं पैदा होती हैं। टेक्नोलाजी के इस्तेमाल से शारीरिक विकास पिछड़ जाता है। बच्चे में मोटे होने का जोखिम 30 फीसदी बढ़ जाता है। बड़े होने पर पैरालिसिस और दिल की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। संसाधनों की बढ़ती दखल नींद प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि अकेले मोबाइल के अधिक उपयोग से रेडिएशन जोखिम की अधिक संभावना रहती है। संसाधन हमारी आत्म निर्भरता खत्म करता है। हमें परजीवी बनाता है। कैलकुलेटर ने हमारी गणीतीय दक्षताएं घटा दी। गूगल के आने के बाद हम कुछ भी याद नहीं करते , न कर पाते हैं क्योंकि एक क्लिक पर हम निर्भर हो गये हैं। मोबाइल ने स्मृति पर असर डाला है। पारिस्थितिक संसाधनों के उपभोग ने हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम की हैं। संसाधन भले ही जीवन को सरल बनाने में, सहज बनाने में, हमारी मदद करते हों। लेकिन वे हमारे चैन के पल छीनते हैं। भले हमारी जिंदगी आसान कर रहे हों। हम संसाधनों का उपयोग नहीं, उपभोग करते हैं।
आवश्यकतावीहिनता (वांटलेसनेस) और संस्टनेबल कंजमप्शन किताबी शब्द होकर रह गए हैं। संसाधन हमारी सोच और हमारी संस्कृति को भी प्रभावित करते हैं। हमारे संस्कार भी इसी से निर्मित होते हैं। संसाधनों पर आश्रित होना अथवा उन पर परजीवी हो जाना संस्कार, संस्कृति और समाज तीनों के लिए पीड़ादायक होता है। हमारी संस्कृति में भौतिकवाद नहीं था। उसके आधार, जड़, मूल, फल कहीं भी भौतिकवाद की जगह नहीं थी वहां कुछ था तो केवल भाववाद। भाव ने ही एक-दूसरे का बांध रखा था। संसाधनों ने इस बंधन को ढीला किया है। कभी लोग किसी शहर जाते थे तो वहां अपने किसी रिश्तेदारों के यहां रुकते थे। अब शादी-विवाह में भी रिश्तेदारों के ठहरने के लिए घर से अलग व्यवस्था की जाने लगी है। कभी मांगलिक कार्यों को घर में करने के लिए बहाने तलाशे जाते थे। अब मांगलिक कार्यक्रम होटल, रेस्टोरेंट और बैन्क्वेट में हो रहे हैं। हद तो यह है कि शादी विवाह में लड़की की विदाई भी होटल से होने लगी है। हम एक दिन में ही मुंबई, दिल्ली, कोलकाता सरीखे दूर-दराज क्षेत्रों में जाते हैं और अपना काम निबटा कर लौट आते है। इतराते हैं कि हम कितना काम कर रहे है। और भूल जाते हैं कि दूरी नापने की इस दौड़ में उस शहर में रह रहे अपने कितने लोगों को बिना याद किए हम चले आए। एसी शरीर में विटामिन डी कम कर रहा है। संसाधानों के अधिकतम उपयोग से बीमार होने वालों का तो पता लगाना मुश्किल है। लेकिन संसाधन हर साल लाखों लोगों का निगल रहे हैं, इसके आंकड़े मौजूद हैं। एक लीटर बोतलबंद पानी कितने लोगों को पानी से महरूम करता है। यह और इस तरह के अनेक सवाल हमारी चिंता से बाहर हो गए हैं। यह भी संसाधन का ही प्रभाव है।
हमारी दार्शनिक अवधाराणाओं में अति सर्वत्र वज्र्यते कहा गया है। हम इसे भूल चुके हैं। आत्मघटित के मार्फत संसाधन सुविधा है या समस्या यह पता करने में लग गए हैं। यह पता करने में ही अपने पुरखों को तारने के लिए जमीन पर भगीरथ के प्रयत्न से उतरने वाली गंगा संसाधनों की बलि चढ़ गई है। अब आप ने अपनी गर्दन दे रखी है। इसे दूसरों के अनुभव और नसीहत से जाने यही बेहतर होगा।


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Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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