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एक नई सुबह की शुरुआत

Dr. Yogesh mishr
Published on: 24 Sept 2018 2:00 PM IST
 


आइए। परखिए। फिर राय बनाइये। पहली मर्तबा किसी संगठन ने खुद को कसौटी पर कसने के लिए इस कदर पेश किया है। वह भी ऐसा संगठन जिसको लेकर तमाम तरह की धारणाएं, भ्रांतियां और सच-झूठ, रोज-ब-रोज गढ़कर या गढ़ा हुआ निरंतर परोसा जाता चला आ रहा हो। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में खुद को जांचने परखने के लिए सबके सामने पेश कर दिया है। ‘भविष्य का भारत‘ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दृष्टिकोण नामक व्याख्यानमाला में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने समाज के सभी तबकों के गणमान्य लोगों से यह आग्रह किया कि संघ के बारे में कोई भी राय बनाते समय लोगों को पहले संघ को परखना चाहिए। संघ को लेकर जो धारणाएं हैं उनमें संघ एक कट्टरवादी हिन्दू संगठन है। संघ मुसलमानों के खिलाफ है। संघ की राष्ट्र की परिभाषा अपनी है। संघ भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करता है। संघ के स्वयं सेवक भाजपा को चुनाव जिताने के ‘टूल‘ होते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम को लेकर यह आशंका भी थी कि सवाल लिखित मांगे गए हैं इसलिए अनचाहे सवाल किनारे कर दिये जाएंगे। जब सवालों की झड़ी लगेगी तो मोहन भागवत उनका जवाब नहीं दे पाएंगे।




अपने तीन दिन के कार्यक्रम में मोहन भागवन ने इस तरह के अनंत विवादास्पद सवालों का बेबाकी और तर्क संगत ढंग से जवाब दिया, यहां तक कि गुरुजी के ‘बंच आफ थाट्स‘ के विवादित अंशों को भी खारिज करने से गुरेज नहीं किया। मोहन भागवन ने कुछ साल पहले दिये गये अपने साक्षात्कार में कहा था कि संघ का जो मूल सिंद्धात हिन्दू राष्ट्र है, वह अपरिवर्तनीय है। बाकी सब कुछ परिवर्तनीय है। लेकिन इस तीन दिवसीय बातचीत के अवसर पर मोहन भागवत यहां तक कह गए कि मुसलमान भी हिन्दू संस्कृति का हिस्सा हैं, कोई हिन्दू के बजाय भारतीय शब्द का उपयोग करे तो उन्हें कोई परहेज नहीं। इसलिए यह कहना कि संघ कट्टरवादी संगठन है, आधारहीन हो जाता है। जब कोई भी संगठन अपनी नीति और रणनीति बदलने को तैयार हो, अतीत में बदला भी हो तो उसे कट्टर नहीं कह सकते। बिहार के पिछले विधानसभा  चुनाव के दौरान मोहन भागवन ने जो आरक्षण पर बयान दिया था, उसे ही भाजपा की पराजय का कारण माना गया था। वह बयान इतना तल्ख था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह कहना पड़ा कि आरक्षण बरकरार रखने के लिए वह अपनी जान भी दे देंगे। लेकिन विज्ञान भवन में संघ प्रमुख ने इसी मुद्दे पर यह कह दिया कि आरक्षण संविधान सम्मत है और उसे संघ का समर्थन है। तीन साल में ऐसा क्या हुआ कि संघ प्रमुख ‘यू-टर्न‘ कर गये। मतलब साफ है कि वह ओरांग ऊटांग के तरह अड़े रहना नहीं चाहते। उन्होंने अंतर जातीय रोटी, बेटी के व्यवहार का समर्थन किया। जाति व्यवस्था को अव्यवस्था माना। एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग न हो। इस बात के लिए चेताया। भारतीय जनता पार्टी के कांग्रेस मुक्त नारे से हाथ खड़े कर दिये।




आज भाजपा जातीय राजनीति पर आमादा है। कांग्रेस मुक्त नारा नरेन्द्र मोदी का तकिया कलाम है। एससी/एसटी एक्ट केन्द्र सरकार की प्रतिष्ठा का सबब है। तभी तो वह प्रोन्नति में आरक्षण और एससी/एसटी एक्ट के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के अनुभवों का फायदा उठाने को तैयार नहीं है। संघ के ये स्टैंड यह संदेश जुटाने का अवसर दे रहे हैं कि वह भाजपा से मोहभंग की स्थिति में हैं। लेकिन इस पर यकीन किया जाना आसान नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी का मेरूदंड राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उसके साथ नहीं है। अकेले दिल्ली के विधानसभा चुनाव में संघ ने भाजपा से मुंह मोड़ लिया था तो भाजपा की जमीन खिसक गई थी। लेकिन यह भी सच है कि संघ के राष्ट्रवाद, जम्मू-कश्मीर को लेकर उसके सिद्धांत, धर्मान्तरण के खिलाफ उसकी योजना, राम मंदिर को लेकर उसकी धारणा को अंगीकार करने के लिए भाजपा के अलावा कोई भी राजनीतिक दल तैयार नहीं। यहां तक की शिवसेना भी एक नये किस्म के हिन्दुत्व की बात करती है। किसी भी स्वयंसेवी संगठन की अपनी प्रतिबद्धताएं और धारणाएं होंगी ही। समर्थन और विरोध इसी पर ही निर्भर करता है। हालांकि जब भी राष्ट्रव्यापी समस्याएं आयीं तब संघ ने इससे ऊपर उठकर भी सोचा। उसने कांग्रेस का भी समर्थन किया। आपातकाल में इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जनसंघ का जनता पार्टी में विलय बिना संघ की अनुमति के संभव नहीं था। यही नहीं, किसी प्राकृतिक आपदा में सबसे पहले पहुंचने वाले लोगों में संघ का स्वयं सेवक ही होता है।




भौतिकवाद के इस युग में जीवनव्रती बनाने की कूबत किसी संगठन में हो तो निःसंदेह उसे विचारधारा के स्तर पर बेहद मजबूत संगठन माना जाना चाहिए। पूर्वोत्तर में कमल खिलने की वजह लम्बे समय से संघ की वहां सक्रियता है। केरल में भी लम्बे समय से संघ ही शहादत दे रहा है। यह भी सच है कि संघ में हिन्दू समर्थन तो है पर मुस्लिम विरोध नहीं। विरोध की यह धारणा संघ के ‘मित्रवत शत्रुओं’ की देन है। संघ के मित्रवत शत्रु इतने ताकतवर हैं कि वह जिस तरह का चेहरा संघ का चाहते हैं उस तरह का मुखौटा लगाकर संघ को पेश करने में कामयाब हो जाते हैं। बावजूद इसके तोहमत संघ पर लगा दी जाती है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने संघ के मंच से पण्डित जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी आफ इंडिया‘ के भारत का चित्र खींचा, ‘नेशन‘ की परिभाषा बतायी, सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, राष्ट्रपिता गांधी को याद किया और संघ ने इन सब को अंगीकार और स्वीकार किया। यह बड़ी बात है। यही संघ में आया लचीलापन है। कम्युनिस्ट पार्टियां 1925 के आसपास स्थापित हुई थीं आज वामपंथी राजनीति अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं जबकि 1925 में ही स्थापित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद निरन्तर विकासवान है। उसकी विचारधारा पर चलकर राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी सत्ता शीर्ष पर है इसलिए यह समझने की जरूरत है कि आखिर संघ के निरन्तर फलते-फूलते जाने की वजह क्या है? वह भी तब जब उसके पीछे कोई धन पशु नहीं है, विदेश का कोई धन नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हुए यह तथ्य हाथ लगता है कि संघ की असली ताकत नागरिक समाज के भीतर काम कर रहे उसके संगठन हैं। उसके कार्यकर्ता है। संघ की भाषा में भारत के 5000 साल की अनुगूंज सुनाई पड़ती है। उनकी विचारधारा संस्कृति का हिस्सा है। उनकी कार्यप्रणाली मिलने जुलने वाली है। अपरिचित से परिचय करने की कला में स्वयंसेवक महारथी होता है। तीन दिन के सम्मेलन में संघ प्रमुख ने यह साफ कर दिया है कि वह किसी भी बदलाव के लिए तैयार हैं। कोई भी आकर उन्हें परख और जांच सकता है। यह संघ के लिए एक नई सुबह है।


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Dr. Yogesh mishr

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