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गायब होते धरती पुत्र
कभी सियासत में किसान नेता कहा जाना किसी भी राजनेता का बड़ा सपना होता था। यही नहीं, ‘किसान का बेटा‘, ‘धरती पुत्र‘ सरीखे विशेषण राजनेताओं को बहुत रास आते थे। लेकिन आज हालात पूरी तरह उलट गये हैं। अब खेती का रिश्ता रसूखदार लोगों के साथ सिर्फ आयकर बचाने का रह गया है। सरकार ने खेती को कर से मुक्त कर रखा है। यही वजह है कि हमारे सांसद, विधायक और रसूखदार लोग अपने ‘प्रोफेशन‘ के काॅलम में खेती दर्ज करना नहीं भूलते हैं। शायद इसी आकर्षण का नतीजा कहा जा सकता है कि सहस्राब्दि के नायक अमिताभ बच्चन ने भी लखनऊ के मलिहाबाद और बाराबंकी के इलाके में जमीन खरीदी। नामचीन लोग फाॅर्म हाउस को ‘स्टेटस सिंबल‘ मानने लगे हैं। लेकिन जमीन से असली रिश्ता रखने वालों की कहानी बेहद दुख देने वाली है। जो जमीन पर खेती-किसानी कर रहे हैं उनकी समस्याएं, आपदाएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। किसी राजनीतिक दल में उनके लिए कोई जगह नहीं है। क्योंकि राजनेताओं ने बहुत समझदारी से किसानों को जातियों में बांट दिया है। इसीलिए आलू, गन्ना, अरहर, कपास, धान, गेहूं, फल और सब्जियां उगाने वाले किसान भी एक प्लेटफाॅर्म पर नहीं आ पा रहे हैं। अब किसान इलाकाई उत्पादन की समस्याओं के निवारण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन, उनकी कोई ‘पैन इंडिया‘ आवाज नहीं बन पा रही है। कोई किसान नेता या धरती पुत्र बनने को तैयार नहीं है। सब लोग इस जमात से हमदर्दी तो रखते हैं, परंतु यह कितनी सतही है यह बीते 70 सालों में किसानों के निरंतर खराब होते हालात से समझी जा सकती है।
इनके उत्पादन के मूल्य अर्थशास्त्र के मांग और आपूर्ति के सिद्धांत से नियंत्रित नहीं होते। क्योंकि प्राय इन्हें हर सरकार की अपनी इच्छानुसार आयात और निर्यात खोलने का दंश झेलना पड़ता है। अपने जिस उत्पाद को किसान औने-पौने दाम पर बेचते हैं उसे ही अपनी जरूरत के लिए खरीदने पर किसानों को कई गुना ज्यादा पैसा देना पड़ता है! अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि के आंकड़ों से इनका कोई तालमेल नहीं होता। इन्हें अपने उत्पाद का मूल्य कितना मिलेगा यह अर्थशास्त्र के किसी सिद्धांत की जगह किसान की जरूरत से तय होता है। किसानों की समस्या सरकार के एजेंडे से कितनी बाहर है, इसे लंबे समय से संसद में अटके दो प्राइवेट मेंबर बिल से समझा जा सकता है। इनमें एक में किसानों को अपनी फसल की न्यूनतम कीमत की कानूनी गारंटी की मांग है। तो दूसरे में एक बार किसानों को कर्जमुक्त करने का आग्रह है। ताकि वो नई पारी शुरू कर सकें। खेती इकलौता ऐसा कारोबार है, जिसको किसान घाटे में चलाने को अभिशप्त है। लागत लगातार बढ़ रही है। फिर भी वह छोड़ नहीं सकता। क्योंकि वह गुलामी करने को तैयार नहीं है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार किसानों की औसत आय 6426 रुपये प्रतिमाह है। इसमें केवल 3078 रुपये खेती से उसे मिलते हैं। 2069 रुपये उसे मजदूरी और पेंशन से हासिल होते हैं। 765 रुपये पशुधन और 514 रुपये गैर कृषि कार्यों से वह अर्जित करता है। स्मार्ट सिटी युग में आज भी 36 फीसदी किसान झोपड़ी या कच्चे मकान और 44 फीसदी किसान कच्चे-पक्के यानी मिश्रित मकानों में रहने को मजबूर हैं। वर्ष 2011 की कृषि गणना के अनुसार देश में 80 फीसदी किसान लघु और सीमांत श्रेणी के हैं। ये केवल 41 फीसदी खेती जोतते हैं।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2015 तक तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। 2016 में यह आंकड़ा 11,370 था। आत्महत्या का यह सिलसिला हरित क्रांति की कामयाबी में अह्म भूमिका निभाने वाले किसानों तक जा पहुंचा है। फसल बीमा योजना में सरकार का खर्च 4.5 गुना बढ़ा है पर दायरे में आने वाले किसानों की संख्या नहीं बढ़ी है।
किसानों की आय दोगुनी करने के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय के सहायक सचिव डाॅ. अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। नौ खंडों में इसकी रिपोर्ट आई है। पर उसे जमीन पर उतार पाना मुश्किल है। क्योंकि उससे यह बात पता चलती है कि किसानों की न्यूनतम आय दोगुनी करना सरकार का लक्ष्य है, वास्तविक आय नहीं। इसमें भी गन्ना किसानों की आय दोगुनी करना असंभव है। एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की आमदनी बढ़ाना भी मुश्किल है। सरकार ने किसानों को उनकी फसलों का लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का एलान किया है। लेकिन यह वहीं संभव है, जहां सरकारी खरीद होती हो। यही नहीं, उत्पान लागत तय करने में सरकार किसान परिवार के लोगों की मजदूरी और अन्य कारकों पर विचार नहीं करती। वह सिर्फ बीज की कीमत, उर्वरक और कीटनाशक को शामिल करती है। नतीजतन, किसान लगातार घाटे का शिकार होता रहता है। यह सरकारी नीति की विसंगति है कि कार लोन दस फीसदी पर मिलता है। जबकि कृषि लोन 13.15 फीसदी पर।
हर वित्तमंत्री ने कृषि क्षेत्र में धनराशि बढ़ाने के दावे तो किये, लेकिन उसका फायदा किसान की जगह कृषि बाजार को मिला। कृषि को काॅर्पोरेट के नियंत्रण में जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। कई रिपोर्ट और अध्ययनों में यह माना गया है कि कृषि संकट सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है। लागत एवं मूल्य आयोग ने पंजाब में किसानों की आत्महत्या की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि उनका बढ़ता कर्ज, मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दर और उनकी घटती जोत है। लेकिन कांग्रेस के कृषि मंत्री हों या भाजपा के, दोनों लोकसभा में किसानों की आत्महत्या की बढ़ती संख्या पर अपने बयान में बिल्कुल हू-बहू एक ही बात कहते हैं। दोनों का मानना है कि किसानों की आत्महत्या की वजह घरेलू झगड़े और सेक्स की समस्या है। यह उत्तर और नजरिया बता रहा है कि सत्ता चाहे जिसकी भी हो, किसानों की समस्या को देखने का चश्मा एक ही है। तभी तो अभी तक किसी भी सरकार ने लंबे समय से चली आ रही मांग के बावजूद किसान आयोग का गठन नहीं किया। भले ही किसानों ने कर्नाटक में एमएस कृष्णा की सरकार गिरा दी हो, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की सरकार पलट कर रख दी हो। पर जब तक वह किसी केंद्र सरकार को नहीं पलटेगा तब तक उसकी शक्ति का एहसास नहीं हो पाएगा। क्योंकि नेता अपने चश्मे बदलने को तैयार नहीं हैं।
इनके उत्पादन के मूल्य अर्थशास्त्र के मांग और आपूर्ति के सिद्धांत से नियंत्रित नहीं होते। क्योंकि प्राय इन्हें हर सरकार की अपनी इच्छानुसार आयात और निर्यात खोलने का दंश झेलना पड़ता है। अपने जिस उत्पाद को किसान औने-पौने दाम पर बेचते हैं उसे ही अपनी जरूरत के लिए खरीदने पर किसानों को कई गुना ज्यादा पैसा देना पड़ता है! अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि के आंकड़ों से इनका कोई तालमेल नहीं होता। इन्हें अपने उत्पाद का मूल्य कितना मिलेगा यह अर्थशास्त्र के किसी सिद्धांत की जगह किसान की जरूरत से तय होता है। किसानों की समस्या सरकार के एजेंडे से कितनी बाहर है, इसे लंबे समय से संसद में अटके दो प्राइवेट मेंबर बिल से समझा जा सकता है। इनमें एक में किसानों को अपनी फसल की न्यूनतम कीमत की कानूनी गारंटी की मांग है। तो दूसरे में एक बार किसानों को कर्जमुक्त करने का आग्रह है। ताकि वो नई पारी शुरू कर सकें। खेती इकलौता ऐसा कारोबार है, जिसको किसान घाटे में चलाने को अभिशप्त है। लागत लगातार बढ़ रही है। फिर भी वह छोड़ नहीं सकता। क्योंकि वह गुलामी करने को तैयार नहीं है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार किसानों की औसत आय 6426 रुपये प्रतिमाह है। इसमें केवल 3078 रुपये खेती से उसे मिलते हैं। 2069 रुपये उसे मजदूरी और पेंशन से हासिल होते हैं। 765 रुपये पशुधन और 514 रुपये गैर कृषि कार्यों से वह अर्जित करता है। स्मार्ट सिटी युग में आज भी 36 फीसदी किसान झोपड़ी या कच्चे मकान और 44 फीसदी किसान कच्चे-पक्के यानी मिश्रित मकानों में रहने को मजबूर हैं। वर्ष 2011 की कृषि गणना के अनुसार देश में 80 फीसदी किसान लघु और सीमांत श्रेणी के हैं। ये केवल 41 फीसदी खेती जोतते हैं।
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 1995 से 2015 तक तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। 2016 में यह आंकड़ा 11,370 था। आत्महत्या का यह सिलसिला हरित क्रांति की कामयाबी में अह्म भूमिका निभाने वाले किसानों तक जा पहुंचा है। फसल बीमा योजना में सरकार का खर्च 4.5 गुना बढ़ा है पर दायरे में आने वाले किसानों की संख्या नहीं बढ़ी है।
किसानों की आय दोगुनी करने के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय के सहायक सचिव डाॅ. अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। नौ खंडों में इसकी रिपोर्ट आई है। पर उसे जमीन पर उतार पाना मुश्किल है। क्योंकि उससे यह बात पता चलती है कि किसानों की न्यूनतम आय दोगुनी करना सरकार का लक्ष्य है, वास्तविक आय नहीं। इसमें भी गन्ना किसानों की आय दोगुनी करना असंभव है। एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की आमदनी बढ़ाना भी मुश्किल है। सरकार ने किसानों को उनकी फसलों का लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का एलान किया है। लेकिन यह वहीं संभव है, जहां सरकारी खरीद होती हो। यही नहीं, उत्पान लागत तय करने में सरकार किसान परिवार के लोगों की मजदूरी और अन्य कारकों पर विचार नहीं करती। वह सिर्फ बीज की कीमत, उर्वरक और कीटनाशक को शामिल करती है। नतीजतन, किसान लगातार घाटे का शिकार होता रहता है। यह सरकारी नीति की विसंगति है कि कार लोन दस फीसदी पर मिलता है। जबकि कृषि लोन 13.15 फीसदी पर।
हर वित्तमंत्री ने कृषि क्षेत्र में धनराशि बढ़ाने के दावे तो किये, लेकिन उसका फायदा किसान की जगह कृषि बाजार को मिला। कृषि को काॅर्पोरेट के नियंत्रण में जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। कई रिपोर्ट और अध्ययनों में यह माना गया है कि कृषि संकट सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है। लागत एवं मूल्य आयोग ने पंजाब में किसानों की आत्महत्या की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि उनका बढ़ता कर्ज, मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दर और उनकी घटती जोत है। लेकिन कांग्रेस के कृषि मंत्री हों या भाजपा के, दोनों लोकसभा में किसानों की आत्महत्या की बढ़ती संख्या पर अपने बयान में बिल्कुल हू-बहू एक ही बात कहते हैं। दोनों का मानना है कि किसानों की आत्महत्या की वजह घरेलू झगड़े और सेक्स की समस्या है। यह उत्तर और नजरिया बता रहा है कि सत्ता चाहे जिसकी भी हो, किसानों की समस्या को देखने का चश्मा एक ही है। तभी तो अभी तक किसी भी सरकार ने लंबे समय से चली आ रही मांग के बावजूद किसान आयोग का गठन नहीं किया। भले ही किसानों ने कर्नाटक में एमएस कृष्णा की सरकार गिरा दी हो, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की सरकार पलट कर रख दी हो। पर जब तक वह किसी केंद्र सरकार को नहीं पलटेगा तब तक उसकी शक्ति का एहसास नहीं हो पाएगा। क्योंकि नेता अपने चश्मे बदलने को तैयार नहीं हैं।
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