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यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक नेता चुनो...
कभी दिल्ली में कांग्रेस का चेहरा रही, शीला दीक्षित के बेटे संदीप ने गांधी परिवार पर सवाल खड़े किये हैं। उन्होंने बड़े नेताओं के डरने और उनके डर के चलते कांग्रेस अध्यक्ष की तलाश न हो पाने की बात कही है। संदीप की बात का समर्थन शशि थरूर ने अपने ट्वीट में किया है। थरूर के ट्वीट में लिखा है- जो बातें संदीप खुलकर कह रहे हैं, वह बात पार्टी के देश भर के नेता दबी जुबान से कह रहे हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सोनिया ने अशोक गहलौत, कमलनाथ और भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया। राजस्थान में इस फैसले का विरोध सचिन पायलट कर रहे हैं, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य कमलनाथ के खिलाफ खड़े हैं।
कहा यह भी जा रहा है कि कभी भी सिंधिया भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन सकते हैं। लब्बोलुबाब यह है कि कांग्रेसियों को यह लगने लगा है कि गांधी परिवार के भरोसे सत्ता में जाने का उनका सपना अब पूरा नहीं होने वाला। कांग्रेस का इतिहास बताता है कि उसके नेताओं के मन में गांधी परिवार के प्रति यह धारणा पहली बार नहीं है।
1967 में रुपए के अवमूल्यन और कामराज की बगावत से भी कांग्रेसी यही सुर सुन रहे थे। तभी तो संयुक्त विपक्ष एक बैनर तले इकट्ठा हो गया था। 1967 में कांग्रेस पार्टी 283 सीटें जीतकर आ गई। खुद कामराज द्रविड़ मुनेत्र कषगम के 28 साल के युवा से चुनाव हार गए।
सीताराम केसरी अध्यक्ष और नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे, तब भी कांग्रेसियों को लगा कि इनके सहारे नय्या पार नहीं होगी। उस समय उन्हें गांधी परिवार की जरूरत महसूस हुई। तमाम आग्रहों के बाद सोनिया पार्टी अध्यक्ष बनीं।इससे पहले जब राजीव गांधी की हत्या हुई थी तो कांग्रेस के लोग सोनिया से राजनीति में आने की गुहार करते रहे। कई दिन तक कांग्रेसी 10 जनपथ के सामने जमे रहे। सोनिया ने यह जवाब दिया-हमारे बच्चे छोटे हैं, उनको पालना जरूरी है। वह अंतरमुखी हैं। नेपथ्य में रहती हैं। भारतीय परंपराओं को ज्यादा आग्रह और समर्पण से स्वीकार करती हैं।
सोनिया कांग्रेस की 1998 में अध्यक्ष बनीं और 2017 तक रहीं। इस बीच पांच लोकसभा चुनाव हुए। 1998 और 99 में दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को क्रमशः 141 और 114 सीटें मिलीं। इन दोनो चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार बनाई। वर्ष 2000 में एशिया वीक नामक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने कहा- सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस अगले 50 साल तक सत्ता में नहीं आ सकती। लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 145 और 2009 में 206 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नरेंद्र मोदी की आंधी में उड़ गई। उसने सबसे खराब प्रदर्शन किया। उसे 44 सीटों पर संतोष करना पड़ा। लेकिन इसकी एक बड़ी वजह मनमोहन सरकार के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश का होना भी था।
2017 में राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने। उनकी अगुवाई में 2019 के लोकसभा चुनाव हुए। जिसमें कांग्रेस को 52 सीटें और 19 फीसदी के आसपास वोट मिले। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी की अगुवाई में चुनाव जीतने और हारने दोनो के रिकार्ड हैं। जवाहरलाल नेहरू के खाते में चुनाव हारने का रिकार्ड नहीं है। इंदिरा गांधी ने तो आपातकाल के बाद एक मंच पर इकट्ठे हो गए समूचे विपक्ष को अगले ही लोकसभा चुनाव में चित करके दिखा दिया था। उनकी कूटनीति ने सारे विपक्षियों के एकजुट होने के बाद भी पांच साल का कार्यकाल पूरा ही नहीं होने दिया। राहुल गांधी के नेतृत्व में केवल लोकसभा चुनाव हारने का रिकार्ड दर्ज है। लेकिन उनके अध्यक्ष रहते ही कांग्रेस ने गुजरात में बराबरी का दमखम दिखाया। पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में सरकार बनायी। इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि राहुल भी जीत हार दोनो का खेल खेल चुके हैं। गांधी परिवार के अलावा 1959 से जोड़ा जाए तो के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, जगजीवनराम, शंकरदयाल शर्मा, देवकांत बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी, नरसिंह राव और सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष रहे हैं। जो लोग गांधी परिवार को आज कांग्रेस की राजनीति के लिए प्रासंगिक नहीं मान रहे हैं, वोट जुटाऊ नहीं मान रहे हैं। उन लोगों को पार्टी के अध्यक्षों के नाम पर विचार कर के यह फैसला करना चाहिए कि इनमें कौन है जो पैन इंडिया पहचान रखता हो, वोट पा सके। किसे अपने राज्य में भी जीत के लिए गांधी परिवार के नाम की दरकार नहीं है।
कांग्रेस अब तक छोटे और बड़े पैमाने पर 50 बार टूट चुकी है। एक भी किसी ऐसे नेता का नाम कांग्रेस से निकलने के बाद नहीं उभरा जो पैन इंडिया अपनी स्वीकृति बना पाया हो। कांग्रेस से निकलने के बाद सिर्फ विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाए लेकिन उनके लिए भी समूचे विपक्ष को एक होना पड़ा। राजीव गांधी को बोफोर्स मामले में रिश्वत लेने जैसा एक ऐसा झूठ उन्होंने बार-बार बोला, जो 28 साल बाद भी कागज पर सच नहीं निकल पाया।
मोरारजी देसाई के भी प्रधानमंत्री बनने की कहानी कांग्रेस बनाम अन्य सब की एकजुटता का नतीजा थी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह व मोरारजी देसाई में से कोई ऐसा नेता नहीं बन पाया जिसे उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चहुंओर नाम और काम पर पहचान मिली हो। इन लोगों ने क्षेत्रीय क्षत्रपों के कंधे पर सवार होकर नैया पार की। लेकिन ये दोनो नेता लोकसभा का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। नरसिंहराव हालांकि इनसे अल्पमत के नेता थे, लेकिन कांग्रेस में होने की वजह से ही उन्होने येन केन प्रकारेण अपना कार्यकाल पूरा कर दिखाया। केवी थामस ने अपनी किताब- सोनियाः द बिलब्ड ऑफ द मॉसेज में लिखा है कि सोनिया ने नरसिंह राव के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नाराजगी जाहिर की थी। वह राजीव गांधी हत्याकांड की जांच की धीमी प्रगति से नाखुश थीं।
गांधी परिवार की अगुवाई में कांग्रेस ने अलग अलग समय में 19 फीसदी से लेकर पचास फीसदी तक वोट हासिल किया है। कांग्रेस में कितने ऐसे नेता हैं जो राष्ट्र स्तर पर तीन-चार फीसदी वोट भी अपने व कांग्रेस की झोली में डालने में कामयाब हो सकते हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी इन दिनों दो ऐसे बड़े और सफल नेता उदाहरण के लिए दिखते हैं जो कांग्रेस से बाहर निकले और उन्होने अपनी सल्तनत जमा ली। लेकिन इन दोनो का भी दायरा एक प्रदेश से बाहर नहीं पसर पाया। आसपास के दूसरे राज्यों में जब इनकी पार्टी चुनाव लड़ी तो उसके लिए तीन चार फीसदी वोट हासिल करना मुश्किल हो गया। सोनिया का ही नेतृत्व था कि पार्टी हरियाणा में टूटने से बच गई। भाजपा नेता वेंकैया नायडू ने 23 मई 2016 को कहा था सोनिया गांधी ने पार्टी को एकजुट रखा है, उनके बिना पार्टी बिखर जाएगी। संदीप दीक्षित सरीखे तमाम लोग जो गांधी परिवार से मुक्ति पाना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले एक ऐसा चेहरा तैयार करना पड़ेगा जो समूचे भारत को स्वीकार्य हो। वरना थोथा चना बाजे घना की कहावत चरितार्थ होती रहेगी।
कहा यह भी जा रहा है कि कभी भी सिंधिया भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बन सकते हैं। लब्बोलुबाब यह है कि कांग्रेसियों को यह लगने लगा है कि गांधी परिवार के भरोसे सत्ता में जाने का उनका सपना अब पूरा नहीं होने वाला। कांग्रेस का इतिहास बताता है कि उसके नेताओं के मन में गांधी परिवार के प्रति यह धारणा पहली बार नहीं है।
1967 में रुपए के अवमूल्यन और कामराज की बगावत से भी कांग्रेसी यही सुर सुन रहे थे। तभी तो संयुक्त विपक्ष एक बैनर तले इकट्ठा हो गया था। 1967 में कांग्रेस पार्टी 283 सीटें जीतकर आ गई। खुद कामराज द्रविड़ मुनेत्र कषगम के 28 साल के युवा से चुनाव हार गए।
सीताराम केसरी अध्यक्ष और नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे, तब भी कांग्रेसियों को लगा कि इनके सहारे नय्या पार नहीं होगी। उस समय उन्हें गांधी परिवार की जरूरत महसूस हुई। तमाम आग्रहों के बाद सोनिया पार्टी अध्यक्ष बनीं।इससे पहले जब राजीव गांधी की हत्या हुई थी तो कांग्रेस के लोग सोनिया से राजनीति में आने की गुहार करते रहे। कई दिन तक कांग्रेसी 10 जनपथ के सामने जमे रहे। सोनिया ने यह जवाब दिया-हमारे बच्चे छोटे हैं, उनको पालना जरूरी है। वह अंतरमुखी हैं। नेपथ्य में रहती हैं। भारतीय परंपराओं को ज्यादा आग्रह और समर्पण से स्वीकार करती हैं।
सोनिया कांग्रेस की 1998 में अध्यक्ष बनीं और 2017 तक रहीं। इस बीच पांच लोकसभा चुनाव हुए। 1998 और 99 में दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को क्रमशः 141 और 114 सीटें मिलीं। इन दोनो चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार बनाई। वर्ष 2000 में एशिया वीक नामक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने कहा- सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस अगले 50 साल तक सत्ता में नहीं आ सकती। लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 145 और 2009 में 206 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नरेंद्र मोदी की आंधी में उड़ गई। उसने सबसे खराब प्रदर्शन किया। उसे 44 सीटों पर संतोष करना पड़ा। लेकिन इसकी एक बड़ी वजह मनमोहन सरकार के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश का होना भी था।
2017 में राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने। उनकी अगुवाई में 2019 के लोकसभा चुनाव हुए। जिसमें कांग्रेस को 52 सीटें और 19 फीसदी के आसपास वोट मिले। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी की अगुवाई में चुनाव जीतने और हारने दोनो के रिकार्ड हैं। जवाहरलाल नेहरू के खाते में चुनाव हारने का रिकार्ड नहीं है। इंदिरा गांधी ने तो आपातकाल के बाद एक मंच पर इकट्ठे हो गए समूचे विपक्ष को अगले ही लोकसभा चुनाव में चित करके दिखा दिया था। उनकी कूटनीति ने सारे विपक्षियों के एकजुट होने के बाद भी पांच साल का कार्यकाल पूरा ही नहीं होने दिया। राहुल गांधी के नेतृत्व में केवल लोकसभा चुनाव हारने का रिकार्ड दर्ज है। लेकिन उनके अध्यक्ष रहते ही कांग्रेस ने गुजरात में बराबरी का दमखम दिखाया। पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में सरकार बनायी। इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि राहुल भी जीत हार दोनो का खेल खेल चुके हैं। गांधी परिवार के अलावा 1959 से जोड़ा जाए तो के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, जगजीवनराम, शंकरदयाल शर्मा, देवकांत बरुआ, ब्रह्मानंद रेड्डी, नरसिंह राव और सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष रहे हैं। जो लोग गांधी परिवार को आज कांग्रेस की राजनीति के लिए प्रासंगिक नहीं मान रहे हैं, वोट जुटाऊ नहीं मान रहे हैं। उन लोगों को पार्टी के अध्यक्षों के नाम पर विचार कर के यह फैसला करना चाहिए कि इनमें कौन है जो पैन इंडिया पहचान रखता हो, वोट पा सके। किसे अपने राज्य में भी जीत के लिए गांधी परिवार के नाम की दरकार नहीं है।
कांग्रेस अब तक छोटे और बड़े पैमाने पर 50 बार टूट चुकी है। एक भी किसी ऐसे नेता का नाम कांग्रेस से निकलने के बाद नहीं उभरा जो पैन इंडिया अपनी स्वीकृति बना पाया हो। कांग्रेस से निकलने के बाद सिर्फ विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाए लेकिन उनके लिए भी समूचे विपक्ष को एक होना पड़ा। राजीव गांधी को बोफोर्स मामले में रिश्वत लेने जैसा एक ऐसा झूठ उन्होंने बार-बार बोला, जो 28 साल बाद भी कागज पर सच नहीं निकल पाया।
मोरारजी देसाई के भी प्रधानमंत्री बनने की कहानी कांग्रेस बनाम अन्य सब की एकजुटता का नतीजा थी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह व मोरारजी देसाई में से कोई ऐसा नेता नहीं बन पाया जिसे उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चहुंओर नाम और काम पर पहचान मिली हो। इन लोगों ने क्षेत्रीय क्षत्रपों के कंधे पर सवार होकर नैया पार की। लेकिन ये दोनो नेता लोकसभा का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। नरसिंहराव हालांकि इनसे अल्पमत के नेता थे, लेकिन कांग्रेस में होने की वजह से ही उन्होने येन केन प्रकारेण अपना कार्यकाल पूरा कर दिखाया। केवी थामस ने अपनी किताब- सोनियाः द बिलब्ड ऑफ द मॉसेज में लिखा है कि सोनिया ने नरसिंह राव के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर नाराजगी जाहिर की थी। वह राजीव गांधी हत्याकांड की जांच की धीमी प्रगति से नाखुश थीं।
गांधी परिवार की अगुवाई में कांग्रेस ने अलग अलग समय में 19 फीसदी से लेकर पचास फीसदी तक वोट हासिल किया है। कांग्रेस में कितने ऐसे नेता हैं जो राष्ट्र स्तर पर तीन-चार फीसदी वोट भी अपने व कांग्रेस की झोली में डालने में कामयाब हो सकते हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी इन दिनों दो ऐसे बड़े और सफल नेता उदाहरण के लिए दिखते हैं जो कांग्रेस से बाहर निकले और उन्होने अपनी सल्तनत जमा ली। लेकिन इन दोनो का भी दायरा एक प्रदेश से बाहर नहीं पसर पाया। आसपास के दूसरे राज्यों में जब इनकी पार्टी चुनाव लड़ी तो उसके लिए तीन चार फीसदी वोट हासिल करना मुश्किल हो गया। सोनिया का ही नेतृत्व था कि पार्टी हरियाणा में टूटने से बच गई। भाजपा नेता वेंकैया नायडू ने 23 मई 2016 को कहा था सोनिया गांधी ने पार्टी को एकजुट रखा है, उनके बिना पार्टी बिखर जाएगी। संदीप दीक्षित सरीखे तमाम लोग जो गांधी परिवार से मुक्ति पाना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले एक ऐसा चेहरा तैयार करना पड़ेगा जो समूचे भारत को स्वीकार्य हो। वरना थोथा चना बाजे घना की कहावत चरितार्थ होती रहेगी।
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