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बंगाल: जानिए कौन हैं बंकिम चंद्र चटर्जी, जिनके घर पहुंचकर नड्डा ने आज दी श्रद्धांजलि
देश के अंदर चंद लोगों को ‘वंदे मातरम’ गीत से आपत्ति है। उनका तर्क है कि वंदे मातरम धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है। जबकि हकीकत ये है कि उन्हें वंदे मातरम के इतिहास के बारें में ठीक से जानकारी नहीं है।
कोलकाता: बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा गुरुवार को बंगाल के दौरे पर हैं। जेपी नड्डा ने आज यहां के नौहाटी का दौरा किया। यहां बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंकिम चंद्र चटर्जी के घर पहुंचे, जहां उन्होंने बंकिम चंद्र को श्रद्धांजलि दी।
इससे पहले नड्डा ने सोनार बांग्ला कैंपेन को लॉन्च किया। कैंपेन लॉन्च के दौरान बंगाली एक्ट्रेस पायल सरकार ने भाजपा ज्वाइन की।
सोनार बांग्ला कैंपेन के माध्यम से जनता से मेनिफेस्टो के लिए सुझाव मांगे जाएंगे। बीजेपी का दावा है कि इस कैंपेन के तहत 2 करोड़ लोगों तक पहुंचा जाएगा।
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जानिए कौन हैं बंकिम चंद्र चटर्जी, जिनके घर पहुंचकर नड्डा ने आज दी श्रद्धांजलि(फोटो:सोशल मीडिया)
कौन हैं बंकिम चंद्र चटर्जी
बंकिम चंद्र चटर्जी का जन्म उत्तरी 24 परगना जिले के कंथलपाड़ा गांव में 27 जून, 1838 को हुआ था।
वह ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। उनकी गिनती भारत के महान उपन्यासकार और कवियों में होती है। उन्होंने ही भारत का राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम' लिखा था।
बंकिम चंद्र का मतलब क्या होता है?
बंकिम चंद्र शब्द का बंगाली में अर्थ होता है शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन का चांद। उनके पिता यादवचंद्र चट्टोपाध्याय मिदनापुर के डिप्टी कलक्टर थे। उनका एक भाई संजीवचंद्र चट्टोपाध्याय भी एक उपन्यासकार थे और अपनी पुस्तक 'पलामाउ' के लिए जाने जाते हैं।
बंकिमचंद्र की प्रारंभिक शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षा मिदनापुर में हुई थीं। वह बचपन से ही मेधावी छात्र थे। शुरुआती पढ़ाई के बाद हुगली स्थित मोहसिन कॉलेज में उनका एडमिशन कराया गया और वहां पर छह सालों तक शिक्षा ग्रहण की।
संस्कृत से उन्हें खास लगाव थी। संस्कृत के ज्ञान की वजह से ही उन्हें बंगाली में पुस्तकें लिखना में काफी फायदा मिला। 1856 में वह कलकत्ता स्थित प्रेसिडेंसी कॉलेज चले गए।
1859 में उन्होंने बीए की पढ़ाई पूरी की। 1969 में लॉ में भी डिग्री हासिल की। वह यूनिवर्सिटी ऑफ कलकत्ता के पहले दो ग्रैजुएट्स में से एक थे।
जानिए कौन हैं बंकिम चंद्र चटर्जी, जिनके घर पहुंचकर नड्डा ने आज दी श्रद्धांजलि(फोटो:सोशल मीडिया)
11 साल की उम्र में शादी
ये बात बहुत ही कम लोग जानते हैं कि 11 साल की उम्र में ही बंकिम चंद्र का विवाह हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु सिर्फ पांच साल थी।
जब 22 साल के हुए तो पत्नी की डेथ हो गई। उसके बाद उन्होंने राजलक्ष्मी से विवाह किया। जिनसे उनको तीन बेटियां हुईं।
ऐसे बने महान उपन्यासकार
बंकिमचंद्र ने कई उपन्यास और कविताएं लिखीं हैं। उन्होंने द्वारा लिखे गए कई लेख से लोगों के मन में क्रांतिकारी विचार पैदा हुआ। अपनी रचना के कारण वह बंगाल के बाहर भी मशहूर हो गए थे।
उनके उपन्यास को भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाने लगा। उन्होंने पहला उपन्यास दुर्गेशनंदिनी लिखा था जिसका विषय रोमांस था।
यह उपन्यास 1865 में प्रकाशित हुआ था। उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में कपालकुंडल (1866), मृणालिनी (1869), विषवृक्ष (1873), चंद्रशेखर (1877), रजनी(1877), राजसिंह (1881) और देवी चौधरानी (1884) शामिल हैं। बंकिमचंद्र का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास आनंद मठ (1882) था। आनंद मठ में ही 'वंदे मातरम' गीत है जिसे बाद में राष्ट्रगीत के तौर पर अपनाया गया।
बंगाल सरकार के सचिव पद पर रहे
उन्होंने पढ़ाई खत्म करने के बाद जेसोर के डेप्युटी कलक्टर के पद पर नौकरी की थीं और बाद में वह डेप्युटी मजिस्ट्रेट के पद तक पहुंचे थे। 1891 में सरकारी नौकरी से रिटायर हुए।
कुछ समय तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। ब्रिटिश सरकार ने उनको रायबहादुर और सी.आई. ई. जैसी उपाधियों से नवाजा था।
वंदे मातरम और इसका इतिहास
दरअसल आज देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें वंदे मातरम और इसका इतिहास ठीक से पता नहीं है। उन्हें वंदे मातरम का इतिहास जानने की जरूरत है।
बात सन् 1870-1880 की है। उस वक्त देश ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में 'गॉड! सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था।
अंग्रेजों के इस फरमान से बंकिमचन्द्र चटर्जी, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डेप्युटी कलक्टर) थे, बेहद दुखी थे।
उन्हें अंग्रेजों के इस फरमान से ठेस पहुंची थीं। इसलिए उन्होंने 1875 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया -'वंदे मातरम'।
1882 में जब आनंद मठ नाम से बांग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओत-प्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया।
यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था।
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वंदे मातरम को लेकर क्या है विवाद
देश के अंदर चंद लोगों को ‘वंदे मातरम’ गीत से आपत्ति है। उनका तर्क है कि वंदे मातरम धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है। उस समय मुस्लिम लीग ने इस गीत को मुस्लिमों के खिलाफ बताया था और अब भी मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति है।
क्या है हकीकत
जबकि हकीकत ये है कि उन्हें वंदे मातरम के इतिहास के बारें में ठीक से जानकारी नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें नहीं मालूम है या वे जानने के बाद भी इस सच को स्वीकार करने तैयार नहीं है कि खुदीराम बोस, भगत सिंह, अशफाक उल्लाह खां, बटुकेश्वर दत्त सहित सैकड़ों क्रांतिकारी वंदे-मातरम गाते हुए फांसी के फंदों पर झूल गए थे।
उस वक्त हुआ कुछ यूं था कि 1905 में जब लार्ड कर्जन ने बंग-भंग ऐक्ट पास करके बंगाल के धार्मिक विभाजन को मंजूरी दी तो इसका जनता ने जोरदार विरोध किया था।
बंगाल के विभाजन के विरुद्ध उठे जनआक्रोश ने इस गीत को अंग्रेजों के खिलाफ एक हथियार में बदल दिया।
हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर वंदे-मातरम और अल्लाहु अकबर के नारों से अंग्रेज शासकों का जीना हराम कर दिया था। उस आन्दोलन के समय सारे भारत में एक ही गीत गाया जा रहा था और वो गीत था वंदे मातरम।
क्या है वन्दे मातरम् का मतलब
संस्कृत में 'बंदे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है और 'वंदे मातरम्' कहने से 'माता की वन्दना करता हूं' ऐसा अर्थ निकलता है, इसलिए देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम कहा गया।
24 जनवरी, 1950 राष्ट्रीय गीत का दर्जा
ये बात कम लोग ही जानते हैं कि 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस गीत के शुरू के दो छंदों को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया था।
आजादी के बाद 24 जनवरी, 1950 को राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का दर्जा देने की घोषणा की। 1952 में हेमेन गुप्ता ने इसी उपन्यास पर आधारित 'आनंद मठ' नाम से एक मूवी भी बनाई थीं।
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